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Showing posts from May, 2020

जंगली, गँवार, देहाती

रुको, मैंने जान लिया है सब कुछ जान गया हूँ मैं तुम्हारी सारी समस्याओं की जड़ अरे रुको, तनिक साँस ले लेने दो मैं चुप हूँ तो इसका मतलब यह नहीं कि मैं जानता नहीं हूँ अपितु सोच रहा हूँ मैं कि कैसे समझाऊँ तुम्हें। हाँ, हाँ वही वही तो कह रहा हूँ मैं आओ मेरे साथ और चलो श्रम करने, खेतों में कि मिलेंगे उसी मार्ग में सारे अनुभव महसूस कर आया हूँ मैं जिन्हें। अरे नहीं-नहीं तुम गलत समझे मैं तुम्हें पुराने जमाने नहीं ले जा रहा या जंगली, गँवार, देहाती नहीं बना रहा मैं तो तुम्हें प्रकृति के सान्निध्य में ले जाना चाहता हूँ और जंगली, गँवार, देहाती बनाना चाहता हूँ। अरे! ये मैं क्या कह गया? मैंने तो जंगली, गँवार, देहाती कहना चाहा था पर तुमने जंगली, गँवार, देहाती कैसे समझ लिया! अरे हाँ! शब्द तो मेरे भी वही थे पर मैं कैसे समझाऊँ कि मेरा मतलब वह नहीं था! क्या! मैं पागल हूँ? कि तुम्हें बेवकूफ बना रहा हूँ? अरे नहीं, नहीं तुम लोग समझे नहीं बेवकूफ तो दरअसल तुम लोग हो ही... अरे, अरे ठहरो ये क्या कर रहे हो! पत्थर क्यों उठाने लगे तुम लोग?

इंतजार

देर तक बैैठे रहने के बाद, नदी कनारे मैं घर आया। आते ही घर, मुझे गाँव की गंध लगी अपने मन के सद्विचारों को मैं इतनी जल्दी समाप्त होने देना नहीं चाहता था इसलिए उठकर चला आया हूँ पुन: खेतों में, पेड़ों के झुरमुट तले। छाँव में बैठ, चाँदनी में नहाये अपने गाँव को देख मैं पुन: अभिभूत होता जा रहा हूँ अब माफ कर दिया है मैंने उन्हें उनके भावी अपराधों के लिये भी। अब मैं शांत चित्त होकर घर लौट रहा हूँ उनकी कोई भी बात अब मुझे विचलित नहीं कर पाएगी प्रकृत का असीम प्यार जो पा लिया है मैंने। अब गाँव के निकट पहुँच उनकी आवाजें सुनाई दे रही हैं छोटे-छोटे झगड़ों में उलझे गाँव के लोग विरोधियों की निंदा और षड्यंत्र बुनने में लीन हैं। मेरे कदम भी अनायास ही उस ओर बढ़ जाते हैं पर मैं उन्हें बीच में ही रोक लेता हूँ बातें सुन कर उनकी क्योंकि मैं उन लोगों में से नहीं हूँ वह मेरा समाज नहीं है मैंने माफ जरूर कर दिया है उन्हें पर उन्हें झेलना मेरे लिये सम्भव नहीं हो पाएगा। अब मुझे अहसास हो रहा है कि प्रकृति का असीम प्यार पाने के बाद भी मैं अकेला हूँ निपट अकेला और जागते हुए मुझे यह रात गुजारनी होगी, अकेले ही। यह, जो सोये ह

मुझे गलत न समझना वृक्षो

मुझे गलत न समझना वृक्षो मैंने तुम्हें नहीं लगाने का फैसला किया है अरे नहीं, यह बात नहीं कि मुझे तुमसे प्यार नहीं वरन पाया है मैंने, कल मनुष्यों की सभा में एक षड्यंत्र का आभास कि अधिकाधिक लगाने के बारे में तुम्हें प्रस्ताव पास हो रहा था जहाँ। नहीं-नहीं, वे तुम्हारे प्रति प्यार से अभिभूत नहीं थे तुम्हारे नि:स्वार्थ दान को समझते हुए उन्होंने लगाने का निर्णय लिया है तुम्हें- प्रदूषित कचरा लिये बहते नालों किनारे और जहरीला धुआँ उगलती अपनी फैक्टरियों के आसपास। मैं नहीं चाहता दूसरों की गलतियों का इतना बड़ा दण्ड देते हुए तुम्हें पंगु करना, बोन्साई बनाना। अरे नहीं, निराश मत हो मैं हूँ न! तुम चले मत जाना कहीं यह धरती छोड़कर मैं आऊँगा लौट कर एक दिन तुम्हारे ही पास। तुम्हीं कहो, छोड़कर तुम्हें और कहाँ जा सकता हूँ मैं! पर फिलहाल तो मैं फैक्टरियों का जहरीला धुआँ पीने में व्यस्त हूँ।

जीवनराम

मेरा नाम जीवनराम है लोग मुझे यही कहते हैं परंतु कौन? अंदर वाला या बाहर वाला! लोग जीवनराम को टुच्चा समझते हैं उसकी लफंगों के साथ दोस्ती है किंतु कोई लड़की जब, अकेले सुनसान में गुण्डों के चंगुल से, बचने को पुकारती है मैं आगे बढ़, मुकाबला कर उन्हें भगाता हूँ तब वह कृतज्ञता से पूछती है मेरा नाम और मैं बताता हूँ जीवनराम। परंतु कौन! अंदर वाला या बाहर वाला? मेरे दोस्त मुझे चटोर समझते हैं जब भी कुछ खाना हो- मुझसे फरमाइश करते हैं मैं उन्हें खिलाता हूँ, स्वयं नहीं खाता हूँ और उन्हें बताता हूँ, मैं तो सदैव खाता हूँ। किंतु कभी-कभी शाम को, डिनर के नाम को कहीं कोई दोस्त मेरे घर में टपकता है दरवाजे से पुकारता है ‘जीवनराम’ मैं चौंक पड़ता हूँ, अकस्मात बोल उठता हूँ कौन जीवनराम! अंदर वाला या बाहर वाला? किंतु शीघ्र ही स्वयं पर काबू पाता हूँ अपनी सूखी रोटी पीढ़े तले छुपाता हूँ और आकर उसे बताता हूँ, मैं तो होटल में खाता हूँ। कुछ लोग जानते हैं, जीवनराम दुरग्गा है अंदर से सीताराम बाहर से फुग्गा है। वे खुद को मेरा हितैषी बताते हैं लोगों से बचने की राहें सुझाते हैं किंतु जब चलते-चलते उधार मांगते हैं अपनी ही सलाहों

माँ के लिये

माँ, एक बार फिर तुम रो लेना सच मानो माँ- कोई कसर नहीं रखी है मैंने सारी कोशिशें करके देख चुका हूूँ पर आईने की तरह साफ दिखता है मुझे कि नाकारा ही निकलेगा तुम्हारा यह पुत्र भी। जानता हूँ माँ कि भैया निठल्ले हैं और मुन्ना भी निकलेगा, शायद ऐसा ही क्योंक लिखने के बावजूद चिट्ठियों में भर्तियों के बारे में मन नहीं है उसका फौज की नौकरी में जाने में। विडम्बना तो यही है माँ, कि मैं उसे प्रोत्साहित भी नहीं कर सकता क्योंकि मैं खुद ही खिलाफ हूँ फौज की नौकरी के। यद्यपि कहा था तुमने कि जाए जब वह शामिल होने, दौड़ में रहूँ मैं उसके साथ ही साथ ताकि पूरी कर दौड़ होकर थकान से चूर जब वह लौटे पिला सकूँ मैं उसे पानी। अगले ही साल रिटायर हो जाएँगे पिताजी और नहीं जानतीं तुम कि कैसे चलेगा तब घर। शायद कोई नहीं जानता क्योंकि नहीं है जमीन भी इतनी कि निर्वाह हो सके खेती से कुशलतापूर्वक। नहीं माँ, मैं कलह के डर से नहीं भागा हूँ घर से कोई गलती नहीं है भाभी की तीन-तीन बच्चे हैं और भैया बेरोजगार हैं हर कोई चाहता है आर्थिक सुरक्षा। मैंने तो कभी दुखाना नहीं चाहा था माँ दिल, तुम लोगों का विश्वास था कभी कि सुधार लूँगा एक दिन

अवसाद

सोते-सोते रात में अचानक उठ बैठता हूँ देखता हूँ घड़ी में बीत चुकी है आधी रात नींद भरी है आँखों में कारण समझ नहीं आता कुछ इस तरह उठ जाने का। सुबह लेकिन उठने में मुश्किल बड़ी होती है पीठ और सीने में दर्द होता भयानक सपना बन जाता है रात का उठ बैठना। दिन में भी कई बार हैरान होता हूँ खो गया सा लगता कुछ याद नहीं आता पर काँपने सा लगता हूँ डर जाता याद कर इसी तरह काँपते थे हाथ-पैर मनोरोगी भाई के। करता विचार जब समस्या पर याद कई घटनाएँ आती हैं क्र म लेकिन गड्ड-मड्ड होता है। कुछ माह पहले ही चल बसा है मित्र का इकलौता लड़का बीमारी से तुच्छ तब से लगते हैं अपने सारे दु:ख दर्द। काम बहुत रहता है आफिस में शिकवा तो कुछ भी न था गलती पर एक बार हुई जब डाँट पड़ी, नोटिस मिला गड़बड़ सब हो गया है तब से एक ही मैटर को बार-बार पढ़ता हूँ काम लेट होता है इतने पर भी नहीं मिलती संतुष्टि रात को डर लगता है सपने में गलती तो नहीं छूटी कहीं कोई? दर्द दे रहा है सिर बेटे का शिकायत महीनों से है लेकिन शुरू हैं परीक्षाएँ संकट गम्भीर है इसीलिए समझाता हूँ उसको चश्मा अगर लग गया एक बार जिंदगी भर पीछा नहीं छोड़ेगा इसीलिए खाया करो चना अंकुरित औ

मुर्दा शांति

सुनता तो था न कभी इन दिनों समाचार खबरों पर लेकिन अब कान लगे रहते हैं हटाया है जबसे मिस्रवासियों ने हुस्नी मुबारक को भड़क गई है आग दूसरे भी देशों में अरब ही नहीं बल्कि अफ्रीका के सुदूर बुगोतीवासी भी चाहते हैं लोकतंत्र। पिछले कई दिनों से चल रहा प्रदर्शन लगातार यमन, बहरीन में। लीबिया में मर चुके हैं सैकड़ों जार्डन, कुवैत और सऊदी अरब, ओमान उतर आई सब जगह जनता सड़क पर भिड़ गई अलजीरिया में सेना से। चकित हूं यह देखकर कि फैली थी दुनिया में इतनी तानाशाही लोकतंत्र के नाम पर! शांतिमय प्रदर्शन से साबित किया है मिस्रवासियों ने गांधी अभी जिंदा हैं। सहनशील लेकिन नहीं हैं सब परीक्षा ले रहा कठिन लीबिया अपने ही लोगों की! सेना ने मार डाला दो सौ को पुलिस वालों को भी दो लोगों ने जला दिया। याद आता है चौरीचौरा शासक तो जालिम हैं उतने ही आज भी गांधी लेकिन उतने सहनशील नहीं डर लगता इसीलिए भड़का जो दावानल रोकेगा कौन उसे? लेकिन अपने देश की सहनशीलता को देख क्षोभ गहरा होता है उजागर हुए हैं भ्रष्टाचार जो लाखों करोड़ों के आंकड़ों के अर्थ ही बदल गए लाखों के मतलब भी हो गए करोड़

जीवन संध्या

ज्यादा नहीं बचा समय छोड़नी होगी शिल्प की चिंता कह देना होगा सब जरूरी है जो बिना किसी लाग-लपेट के मोल लेकर भी खतरा बुरा लगने का। बढ़ता ही जा रहा दर्द जो था सीने में इसके पहले कि यह बन जाय जानलेवा करना होगा काम खत्म। सोचा तो था न कभी इतनी छोटी होती होगी जिंदगी खेलता ही रह गया, शब्दों से उसके भिन्न-भिन्न अर्थों से होता रहा चमत्कृत करता रहा चमत्कृत। होते ही हासिल महारत पर पता चला अचानक समय भी निकल गया! मुट्ठी से रेत सा फिसल गया!! इसीलिये व्याकुल हूं बचा खुचा वक्त है जो कह देने को उसमें किसी तरह सारा कुछ व्यस्त हूं।

उदासीनता

नौकरी तो बढ़ गई साल भर के लिये फिर तनख्वाह भी बढ़ी है ठीकठाक फिर क्यों उदास है मन? भुनभुना रहे हैं लोग व्यक्त कर रहे अपना असंतोष वृद्धि नहीं हुई जिनकी खास कुछ। अव्वल होकर भी अपने साथियों में खुशी लेकिन हो रही मुझे न क्यों? पढ़ता हूँ रोज गीता कर रहा अभ्यास अनासक्ति का लेकिन उदासीनता तो होता नहीं अर्थ अनासक्ति का! छाया फिर विषाद क्यों? क्या यह परछाईं है साथियों के रोष की? सबकी उन्नति के बिना सध नहीं सकती क्या अनासक्ति? कारण नहीं आता समझ फिर भी मन उदास है

बिना हथियारों की लड़ाई

जब तक था लैस अस्त्र-शस्त्र से दूसरों से बेहद डर लगता था दूसरे भी डरते थे उतना ही डरता है सांप जैसे मानव से मानव भी सांप से दोनों उगलते जहर होते ही सामना। लेकिन अनायास ही कल हो गया जब नि:शस्त्र फैल गई मुस्कान दूसरों के चेहरों पर मेरा भी डर गायब हो गया अजनबी भी मित्र जैसे बन गए। अब तो रहता हरदम ऐसे ही अनारक्षित बढ़ते ही जाते हैं दोस्त-भाई दिन-ब-दिन दुश्मनी बची ही नहीं व्यर्थ सारे अस्त्र-शस्त्र हो गए शायद यही थे मेरे दुश्मन सबसे बड़े। ख्वाहिश अब होती है देश भी हमारा अगर इसी तरह हो जाय नि:शस्त्र दुश्मनों को डर न लगे हमसे खत्म सारी दुश्मनी हो जायेगी रुक सकेगी होड़ हथियारों की फैलेगा अमन-चैन चहुंओर। लेकिन आसान नहीं डगर यह साजिश यह गहरी है गुंथे हैं निहित स्वार्थ कितने ही दुश्मन कहीं और नहीं अपने ही भीतर हैं लड़ते हैं उनसे जो कहलाते नक्सली बनते आतंकवादी। लड़ना होगा इसीलिये पहले अपनों से ही अपना सीना खोल कर छोड़ सारे अस्त्र-शस्त्र। बेशक जिंदा हैं अभी नाथूराम गोडसे छलनी करेंगे सीना गांधी का लेकिन थमेगा तभी रक्तपात आंधी रुकेगी पागलपन की भीतर के दुश्मन ही मांगते बलिदान हैं। जहर खत्म करने का यही ह

मध्य वर्ग का आदमी

मुश्किल तो था न कभी लिख पाना कविता ऐसा भी नहीं कि अब खत्म हो गई हों सारी वजहें बढ़ती ही जा रही बल्कि सारी त्रासदी  इतनी हुई अधिकता कि खबर नहीं बनती अब किसानों की आत्महत्या शोषण मजदूरों का। तरक्की कर रहा देश टीवी, अखबारों में नेता, अभिनेता सब व्यापारी बन गए सारी जगह छेंक ली खबरों में न आता कभी मध्य-निम्न, निम्न वर्ग कोई नहीं दिखता अब मरते हुए भूख से मीडिया की नजरों में। मुद्दा नहीं लेकिन यह डर लगता खुद से मैं भी पथरा गया हासिल कर नौकरी जी रहा हूं ठीकठाक मर रही हैं लेकिन सम्वेदनाएं। करने की कौन कहे मदद मजलूमों की उबर नहीं पाता हूं अपनी जरूरतों से पूरी करते ही एक दस खड़ी हो जाती हैं. जानता हूं अच्छी तरह खुद को बचाने का फैसला ही गलत था वंचितों के संग खड़े होने का रास्ता बस एक था साथ उनके रह कर ही लड़ना था तिल-तिल कर मरना था। लेकिन जुटा न पाया साहस यह आज तक जा बैठा दुबक कर कहलाता मध्य वर्ग। देखता हूं सपना उच्च वर्ग का टीवी, अखबारों में देखता उन्हीं की खबर उन्हीं जैसा बनने की कोशिश में जिये चला जाता हूं अंदर से धीरे-धीरे बंजर होता जाता हूं। नहीं अच्छी लगतीं अब कविता-कहानियां लुभाते हैं शाहरु

प्रार्थना

भयानक समय है नहीं दिखता जब कोई आधार निपटने के लिए इससे लेता शरण कविता की। नहीं, छुड़ाना नहीं चाहता हूँ पीछा इससे सिर आँखों पर सारी यातना लय न टूटे भीतर की बस यही कामना। नहीं है शक्ति, न सही टूट जाऊँ चाहे खुद नियम न टूटें बस यही है प्रार्थना। दीन तो मैं कभी न था आज की यह प्रार्थना भी दीनता नहीं समझता रहा पर जिसे स्वाभिमान दुखाया न हो दिल इसने घमंड के धोखे में! लगी हो किसी को ठेस तो मांगता हूँ क्षमा। चिंता नहीं अपनी मुझेे  क्रूर से क्रूर समय भी नहीं कर सकता विचलित पर बनी रहे दुनिया जीने के काबिल अनजानी ठेसों से जम गई हो अगर पिघल सके कठोरता इसीलिए व्याकुल हूँ बनता हूँ दीन माँगता हूँ क्षमा। मनुष्यों की क्रूरता मैं सह नहीं पाता काँपता हूँ थर-थर करता हूँ प्रार्थना।

आत्मसम्मान

निरर्थक सी लगती है कभी-कभी जिंदगी, आजकल ज्यादा ही महसूस होता है। बदल रहे शब्दों के अर्थ इतनी तेजी से कि कविता भी लिखने का मन नहीं करता है। खो गई प्रतिष्ठा कविताएँ लिखने को समझते निठल्लापन लोगबाग आजकल। गलत भी नहीं हैं वे हमने ही कविता में सस्तापन भर दिया शब्दों की बाजीगरी बना करके रख दिया काट दिया जीवन से। इसीलिये आजकल कविता को जीने में व्यस्त हूँ सूखा जो जीवन रस कविता की ठठरी से उसे वापस लाने को संघर्षरत हूँ चाहता हूँ अपने से नाभिनालबद्ध कर लूँ अपने भीतर का सारा रस उसमें भर दूँ भले ही मैं सूख जाऊँ कविता पर हरी-भरी हो जाय छिन चुकी प्रतिष्ठा जो वापस उसे मिल जाय ताकि जब करे कोई शुरु आत होना पड़े न उसे शर्मिंदा  सिर ऊँचा करके बता सके लिखता मैं कविता।

कुटिल एकता

अभी-अभी बात कर रहे थे वे एकता की और बल्लियों उछल पड़ा था मेरा मन, खुशी से कई सालों से त्रस्त है मेरा गाँव, गुटबंदी से राजनीति की कुटिल चालों ने खत्म कर दिया है भाईचारा मेरे गाँव छोड़ने का यह भी एक कारण था। शहरों में अजनबी थे लोग नहीं पहचानते थे पड़ोसी को भी पर यहाँ तो पीढ़ियों की जान-पहचान के बावजूद लोग दुश्मन थे एक-दूसरे के इसीलिये जब बात सुनी एकता की तो खुशी से फूला नहीं समाया मैं और बनाने लगा योजना, गाँव लौटने की सख्त जरूरत थी यहाँ मेरी गरीबी थी, अशिक्षा थी रूढ़िवादिता थी दूर कर इन सबको लानी थी जागरूकता, वैज्ञानिक चेतना। नहीं कर पाया था यह सब अभी तक तो सिर्फ इसलिए कि बिना सहयोग सबके सम्भव नहीं था यह इसीलिए आज जब एकता की बात सुनी खुशी बेतहाशा हुई। देर नहीं लगी पर काफूर होते इसे पाया जब इसमें आभास षड्यंत्र का  कुटिल थी यह एकता। चुनाव नजदीक थे परास्त करने तीसरे को हो रहे थे एकजुट वे कराने को मेलजोल सहमत थे दोनों गुट मेरे ही नाम पर मंजूर मुझको पर नहीं थी यह एकता चला आया चुपचाप छोड़कर सबको अवाक बैठक से उठकर करने लगा तैयारी लौटने को फिर से अजनबी लोगों के बीच।

चौकीदार

व्याकुल हूँ लिखने को बेहद उद्विग्न हूँ बीत गए अनलिखे ही पाँच दिन परसों ही पढ़नी है कविता लिख नहीं पाया अब तक एक शब्द। जब से आया है फोन करना है कविता पाठ तन-मन रोमांचित है। बीत गए बीस साल पाण्डुलिपियों से कई भर गई हैं पेटियाँ सोचने लगा था अब मानता अनमोल जिन्हें बिकेंगी वे कापियाँ रद्दी के भाव से! देरी से ही सही दशकों के बाद जब आ गया है समय अब उनके प्रकाशन का काँप रहे हाथ क्यों? पत्नी जो टोकती थी लिखते समय हरदम आज वह भी चुप है समय भी है ढेर सारा ठहरी फिर कलम क्यों? बढ़ रहा भय मन ही मन बाकी के दो दिन भी यों ही बीत जायेंगे कुछ न लिख पाऊँगा मिला है जो मौका यह व्यर्थ चला जायेगा रह जायेंगी पेटियों में फिर से यों ही पड़ी अभिशप्त पाण्डुलिपियाँ। नहीं हैै यह पहली बार हर बार ऐसा ही होता है लिखता हमेशा हूँ लेकिन जब आता मौका उठा नहीं पाता हूँ फायदा भीतर बैठा है कोई चौकीदार लगातार। समझाना चाहता हूँ उसको दुनियादारी करता पर ध्वस्त वह सारी बहानेबाजी अनावृत करता मुझे  आईने के सामने। पहुँच गई है दुनिया जाने कहाँ से कहाँ रोकता पर मुझे यह करता हूँ कोशिश जब दौड़ने की टांग खींच लेता है। खीझता हूँ कभी-कभी सोचत

चंदन पाण्डेय

ढूंढ रहा हूँ सुबह से कारण कुछ पता नहीं चलता महसूस होता है सिर्फ जैसे चीरती जाती हो सीने को कोई कर्कश ध्वनि चिड़चिड़ा उठता है मन। इतना ज्यादा तो नहीं था ऑफिस में काम कि खीझ जाऊँ बुरी तरह घर में भी नहीं हुई कोई खास तकरार फिर क्यों पा रहा खुद को इतना हताश! अच्छी नहीं कटी रात आँख लगते ही बज उठा था फोन रांग नंबर था शायद या मैं ही उनींदा था! सुबह उठकर देखता हूँ मोबाइल कि सपना तो नहीं था? दर्ज है उसमें लेकिन पौने बारह बजे एक कॉल पर करता हूँ जब कॉल बैक आती है दूसरी तरफ से अजनबी भाषा में, अजनबी आवाज ठीक सपने की तरह और पड़ जाता हूँ दुविधा में कि रात में जो देखा था वह सपना था या यथार्थ! प्रिय कहानीकार चंदन पाण्डेय का पढ़ रहा था कल ब्लॉग पुलिस की नृशंसता पर शशिभूषण को समझा रहे थे वे कि एक घण्टे भी रह लो हवालात में तो याद रखोगे पुलिस को, जिंदगी भर। सचमुच, ऐसी ही है पुलिस सोचता हूँ मैं कश्मीर और पूर्वोत्तरवासियों के बारे में बंद हैं जो सालों से हवालात में बड़े भाई ही तो हैं आखिर फौज वाले पुलिस के! पढ़ी थी चंद दिनों पहले ही जम्मू-कश्मीर वासी फिरोज राठेड़ की दास्तान और सो नहीं पाया था इसी तरह रातों को

बंजर

मनोहारी है मौसम छाये हुए हैं बादल और पिघलती महसूस हो रही है भीतर जमी बर्फ। बहुत दिनों से नहीं हुई अपने आपसे मुलाकात देखा जब आज यों ही आईना हो रहा खुद पर शर्मिंदा। अभिमान था अपने आप पर सिर्फ लिखता ही नहीं था कविताएँ जीता भी था उन्हें फर्क नहीं था लिखने और जीने में कमजोर लेकिन था दुनियादारी में भाग रहे थे लोग मेरे सामने तरक्की की राह पर पिछड़ता जा रहा था मैं रोज-रोज लगातार। इसीलिये एक दिन स्थगित कर दिया लिखना चल पड़ा मैं भी तरक्की की राह पर खुशी हुई देखकर कि मानता था जिसे कठिन बेहद आसान है वह बुद्धि तनिक लगाकर हुआ जा सकता है मालामाल खरीदा जब एक प्लाट महंगा लगा उस वक्त कुछ ही दिनों में पर भाव हुए दोगुना चौगुना होने में भी ज्यादा नहीं लगा वक्त बैठे बिठाए घर में कुछ ही सालों में कमा लिये लाखों रुपए समझ गया राज यह कि कैसे धनी बनते हैं दु:खद लेकिन यह हुआ कि दूर होता गया अपने आप से मोटी हुई चमड़ी, भूल गई सम्वेदना बैठता था कभी-कभार लिख नहीं पाता पर कविता हद हो गई एक दिन जब आफिस में कनिष्ठ ने भेज दिया मुझको इस्तीफा होकर आहत, मेरी फटकार से बिजली सी कौंधी दिमाग में आया याद, मैंने भी ऐसे ही शुरुआती

अंतर्द्वंद्व

कशमकश में हूँ इन दिनों समझ नहीं पाता स्वप्न है या यथार्थ पहुँच जाता हूँ सोते-पढ़ते ईसा मसीह, सुकरात या गांधी के समय में। पाता हूँ खुद को जहर पीते या सूली पर चढ़ते और घुटते ही दम नींद खुल जाती है। टटोलता हूँ सीने में खून से सनी गोलियाँ पर सुरक्षित पाकर भी खुद को नहीं मिलती राहत घेरे रहता है अवसाद। भयानक हो चुका है सभ्यता का विकास सर्वाधिक खतरनाक मोड़ पर है इन दिनों मनुष्यता इन सब के बावजूद जिये जा रहा हूँ मैं बिना किसी प्रतिरोध के सपने में इसी पर होता हूँ शर्मिंदा। भयानक तो यह है कि गांधी को मारते हुए गोली जीसस को सूली पर चढ़ाते जहर पिलाते सुकरात को खुद ही को पाता हूँ खुद ही के सीने में गोलियाँ भी लगती हैं चुभती है सूली घुटता दम जहर से। अपने ही भीतर बैठा दीखता है दुश्मन कठिन है लड़ाई यह।

शुरुआत

धँस गए हैं पैर दुनियादारी में उड़ गई है नींद, काँपते हैं पाँव लौटने का है नहीं कोई विकल्प साथ में है काव्य रखना है पकड़ कस कर। काँपते थे यों ही क्या शुरुआत में बापू! किया आरम्भ सत्याग्रह नहीं पदचिह्न थे कोई बस प्रार्थना सम्बल! विस्मृत हो चुके हैं राम नकली बन चुके हैं कृष्ण रुचियों में हमारी ढल. दिया आकार मनचाहा कि कालातीत होने का उठाया फायदा फिर भी कल्पना करता कि काँपे तो जरूर होंगे किया होगा शुरू जब रण। कि तय करती रही होगी जीवन की दिशा यह कँपकँपाहट करता आज जब शुरुआत पाता हूँ सभी को साथ देती हैं मुुझे ढाढ़स कहानी महापुरुषों की।

कविता और जीवन

गोल-गोल घेरे में घूमने लगी है कविता आने लगे हैैं फिर-फिर वही शब्द कारण तो जानता हूं अच्छी तरह नहीं तोड़ पा रहा पर दायरे को अपने घूमने लगा हूं गोल-गोल घेरे में नहीं तोड़ पा रहा हूं नई जमीन जीने लगा हूं सेफ जोन में सड़ने लगा है पानी ठहरा हुआ। आगे बढ़ाने खातिर कविता को चाहता हूं डालना खुद को अनजानी राहों पर उठाना चाहता हूं खतरे कि नाभिनालबद्ध है जीवन से कविता जितना ही आगे बढ़ूंगा मैं वह भी बढ़ती जाएगी जितना ही जोखिम उठाऊंगा निखरती ही जायेगी वह उतना ही। रचनाकाल : 9 मई 2020   

गणतंत्र

जब सिर चढ़ कर बोलता है राष्ट्र के सेवकों का अहंकार तो लगने लगता है डर कि क्या यही लोकतंत्र है? सेवकों का रूप धर कर कहीं लौट तो नहीं आये वही राजे-महाराजे? शासन अगर अपना है तो फिर डर क्यों लगता है? लड़ना ही होगा हमें सेवक रूपी मालिकों से कि बदनाम हो गया अगर लोकतंत्र तो खो देंगे हम मानव जाति का शासन का सर्वश्रेष्ठ विकल्प रचनाकाल : 26 जनवरी 2020

सम्मानजनक मौत

भयानक है यह दौर पर यही वह समय भी है जब कर सकता हूं इसमें हस्तक्षेप बदल सकता हूं घटनाओं को वरना गुजरने के बाद तो यह सिमट जायेगा इतिहास के पन्नों में और पढ़ाया जायेगा बच्चों को कि एक ऐसा भी दौर आया था दुनिया में फंस गये थे लोग जब अपने ही बनाये, विकास के चक्रव्यूह में नहीं ढूंढ़ पाये थे निकलने का कोई उपाय और मरने लगे थे कीड़े-मकोड़ों की भांति नहीं होगी यह ऐसी मृत्यु जिस पर नाज कर सके आने वाली पीढ़ी। तोड़ना ही होगा इस चक्रव्यूह को ढूंढ़नी ही होगी अपने लिए इससे कहीं बेहतर सम्मानजक मौत। रचनाकाल : 30 अप्रैल 2020

कविता के लिये

बेहद तेजी से भाग रहा है समय बहुत दिनों से पीछे छूटती जा रही थी कविता और समय को पकड़ने के लिये मैं भागता जा रहा था बदहवास अब नहीं छोड़ना चाहता लय को भागना तो अब भी है तेजी से पर साथ लेकर भागूंगा अब कविता को चंद मिनट ही सही, पर निकालूंगा समय उसके लिये ताकि भागते-भागते हो न जाऊं बंजर सूख न जाये कहीं भीतर का जीवन रस। रचनाकाल : 6 मार्च 2020

मौत से खिलवाड़

मैदान अगर सपाट हो तो बोझिल लगने लगता है रास्ता और कंटीले पथ पर चलूं तो पैर लहूलुहान हो जाते हैं। कई बार लौट चुका हूं मौत के कगार से पर बार-बार खींचता है उसका आकर्षण जानता हूं कि तनी रस्सी पर चलने के समान है यह पर तभी महसूस होता है कि जीवित हूं मृतप्राय सा लगता है चुनौतीविहीन जीवन इसलिये आमंत्रित करता हूं खुद ही विपत्तियों को होता हूं लहूलुहान झुलसता हूं बंजर रेगिस्तान में खिलवाड़ करता हूं मौत से। रचनाकाल : 7 मार्च 2020

अनथक यात्रा

जरा सा ठहरता हूं सुस्ताने को कि पानी सड़ने लगता है दूषित होने लगता है मन चूर हो चुका हूं थक कर पर मंजूर नहीं है मलिन होना चलते-चलते अगर मौत आनी है तो यही सही नहीं रुकूंगा कहीं पार करता जाऊंगा जंगल पहाड़ और गहरी घाटियां पर नहीं लूंगा विश्रम कहीं कि जब नहीं ठहरता ब्रह्माण्ड पल को भी कहीं तो मेरी भी यही नियति हो कहीं न थमें पैर मौत आने के पहले तक। रचनाकाल : 9 मार्च 2020

होली

सभ्यता की दौड़ में ये कहां आ गये हम कि जितना ही भागते हैं भविष्य में उतनी ही तेजी से खींचती हैं स्मृतियां अतीत की! खुश था ग्लोबलाइजेशन से कि विश्व मानव बन रहे हैं हम पर यह तो बीमारियों का वैश्वीकरण है! कि गले मिलना तो दूर हाथ भी नहीं मिला सकते हम! ऐसे तो कभी नहीं मनी थी होली विकास के नाम पर कहीं गलत दिशा में तो नहीं भागे जा रहे हम! थोड़ी देर ठहर कर चाहता हूं सोचना पर इतनी तेज है समय की रफ्तार कि भागता ही जा रहा हूं लगातार बदलते ही जा रहे हैं रंग अपने सारे तीज-त्यौहार। रचनाकाल : 10 मार्च 2020

सही दिशा

कठिन तो बहुत है रेगिस्तान की यात्रा झुलसा रही है धूप और कांटे कर रहे लहूलुहान किंतु बीच-बीच में आते हैं इतने मनोरम दृश्य कि भूल जाती है सारी थकान और भर जाता है मन अवर्णनीय उत्साह से ऐसे ही मौकों पर लगता है कि चल रहा हूं सही दिशा में काफी है इतना ही अवलंबन पार करने के लिये कांटों भरा निर्जन और बंजर रेगिस्तान नहीं है समय की चिंता लग जाये चाहे सारी उम्र गलत नहीं होगी दिशा तो पहुंच ही जाऊंगा मंजिल तक। रचनाकाल : 11 मार्च 2020

विनाश और शुरुआत

दुनिया को अपने शिकंजे में जकड़ता जा रहा है कोरोना भयभीत है मानव जाति संभावित विनाश से होना ही था यह एक न एक दिन मिलना ही था मनुष्यों को अपनी निरंकुशता का फल कि ज्यादा दिनों तक प्रकृति बर्दाश्त नहीं करती किसी की भी तानाशाही भर चुका है शायद युगों से संचित पाप का घड़ा और अब फूटना ही उसकी नियति है! स्वागत है तुम्हारा विनाश कि उसके बाद ही शायद हम कर पायें सही दिशा में एक नई शुरुआत! रचनाकाल : 14 मार्च 2020

प्रार्थना-1

मन चाहता है आज करना प्रार्थना माँगना तो कुछ नहीं, जो मिला है वह बहुत है बस दूँ चुका मय ब्याज के यह कर्ज, है बस कामना। धुंध राहों में बहुत थी, मार्ग भटका बार-बार जब जरूरत थी मिली, सबकी मुुुुझे सद्भावना अकड़ता ही रहा अब तक, सिर कभी न झुका सका माफ करते रहे सब, मैं ही न कर पाया क्षमा दे न पाया जो कभी, वह आज कैसे माँग लूँ है यही संकोच मन में, है अधूरी साधना। मांगता तो कुछ नहीं, बस आज करना चाहता हूँ प्रार्थना।

साधना

टूटता है बदन होती है पीठ दर्द से दोहरी फिर भी लिखता हूँ कविता। उदास है मन आसान नहीं लिखना फिर भी लिखता हूँ क्योंकि जरूरी है यह जीने के लिये। सूख सा गया है जीवन रस कठिन हो गया बेहद लिख पाना कविता फिर भी लिखता जाता हूँ बंजर जमीन में बीज बोता जाता हूँ।

बलिदान

हताश तो अभी भी करती हैं असफलताएँ पर नहीं होता अब क्षोभ हद से गुजर कर दवा बन चुका है दर्द। शिकायत अब नहीं होती किसी से भी शुक्रिया ईश्वर, कि बार-बार असफल कर बनाये रखा तुमने मुझे, सही रास्ते पर कठिन था छोड़ पाना मृगतृष्णा पर छूट ही गई आखिर धन्यवाद तुम्हारा कि बरसों बरस धीरज रख करते रहे मुझे असफल। नहीं करूँगा अब और इंतजार स्थगित नहीं होगा लिखना मंजूर कर लिया है तिल-तिल कर गलना क्योंकि खोने को अब कुछ बचा नहीं और पाना कुछ मैं चाहता नहीं इसके पहले कि तुम जबरन लो यह शरीर कर देना चाहता हूँ, बलिदान मैं खुद ही।

शिखर की यात्रा

चढ़ा दिया है खुद को सान पर बनना चाहता हूँ जीवित प्रयोगशाला देखना चाहता हूँ, कितनी क्षमता है शरीर में कहाँ तक जा सकता है मानव शिखर की ऊँचाई पर। सरपट दौड़ा था शुरू में तो अनवरत काम किया सालोंसाल कविताएँ भी बेमिसाल लिखा थक गया शरीर फिर लड़खड़ाने लगा कदम-कदम पर सोचने लगा रुक कर रास्ता क्या गलत था? बीते बरस-दर-बरस इसी कशमकश में कोई नहीं आसपास पूछ सकूँ जिससे सही रास्ता। नक्शा जो पास था पर देता पता था इसी रास्ते का पहुँचे थे जो शिखर पर गुजरे थे वे भी इसी रास्ते से चलता रहा इसीलिये घिसट-घिसट संचित कर ऊर्जा शरीर की। दीखने लगा है अब तो क्षितिज पर धुंधला प्रकाश भी। चाहता बताना अब तो रास्ते के बारे में आयेंगे लोग मेरे बाद जो कि देता नहीं दूर तक साथ यह शरीर भी दौड़ने के बाद चुक जाती शक्ति जब रेंगना भी पड़ता है आत्मशक्ति के बल पर लौट नहीं आयें वे उस समय डर कर भयभीत न हों सोच कर कि भटक गए रास्ता। जीवन यह रेस नहीं सरपट मैदानों की नदियाँ-पहाड़ भी हैं रास्ते में जंगल भी करने पड़ते हैं पार कोई नहीं शार्टकट शिखर पर पहुँचने का इसके सिवा कोई नहीं रास्ता।

जिंदा होते शब्द

ज्ञान तो वह पा गया था पर बेहद हल्का लगता था वह डर लगता था कि उड़ न जाय कहीं फूंक से भी, जरा सी। शुरू किया जब उसे जीवन में उतारना तो खुल रहे हैं नये-नये अर्थ। घिसे-पिटे लगते थे शब्द कई कविताएँ बासी सी लगती थीं ढूँढ़ता ही रहता था नये-नये शब्द, जो दें ताजगी। लेकिन जब शुरू किया जीना उन शब्दों को लगते थे जो घिसे-पिटे चमकने लगे हैं अब वे हीरे और मोतियों से। होता महसूस अब यह शब्दों ने पाये हैं अर्थ जो सिर्फ उन्हें इस्तेमाल करता था थोथा रह जाता था इसीलिये छू नहीं पाती थीं कविताएँ मन को। जीता हूँ पहले अब शब्दों को उसके बाद इस्तेमाल करता हूँ लगती हैं जीवित अब कविताएँ।

अनमोल जीवन

कुछ नहीं बचता जब करने या सोचने को चलता रहता है जीवन तब भी इच्छा नहीं होती लेकिन जीने की बेमकसद जीवन का आखिर क्या अर्थ है? शायद अवसाद यही प्रेरित करता होगा करने को आत्मघात. बेशक वह हल नहीं समस्या का लेकिन बन जाय जब जीवन खुद समस्या क्या करे कोई ऐसे जीवन का! बेशक यह सच है कि जीवन अनमोल है बेमतलब जीना भी लेकिन निर्थक है चाहते हम करना अगर सार्थक रखना होगा हिसाब एक-एक क्षण का वरना साबित होंगे अपराधी अनमोल जीवन को निर्थक जीते जाने का.

स्वप्न और यथार्थ

अक्सर होता है इन दिनों विचित्र अहसास सोते हुए लगता है कि जाग रहा हूं और जागते हुए लगता है कि नींद में देख रहा हूं सपना सब कुछ गड्ड-मड्ड हो गया है नहीं दीखती कहीं कोई यथार्थ और सपने के बीच सीमारेखा सपने तो अब भी करते हैं मंत्रमुग्ध पर भयावह यथार्थ डराता है चाहता हूं सपनों को यथार्थ के धरातल पर उतारना पर नजर नहीं आता कोई उपाय सपने संजोये हुए मन में विचरता हूं भीषण यथार्थ में झुलसता है तन रेगिस्तान में पुलकित होता है मन सपनों की उड़ान में। रचनाकाल : 29 अप्रैल 2020

पटकथा का अंत

शर्मिंदा हूं कि नहीं बना पाया अपने हिस्से की दुनिया को सुंदर करता ही रह गया शिकायतें निकालता ही रहा मीन-मेख और गुजर गया जीवन! नहीं, खत्म नहीं हुआ है सब कुछ कर सकता हूं अभी भी बहुत कुछ न सही निर्दोष, निष्कलंक पर मिटा सकता हूं बहुत से दाग इतनी बेहतर तो बना ही सकता हूं दुनिया कि अगली पीढ़ी को वह मैली न लगे मिल सके स्वच्छ कैनवास उसे भरने के लिए अपने हिस्से का रंग भले नहीं कर पाया अच्छी शुरुआत पर अभी भी मेरे बस में है अपने मनमुताबिक करना पटकथा का अंत।   रचनाकाल  : 29 अप्रैल 2020

असफलता का वरदान

जब भी मिलती है सफलता मन बेकाबू हो जाता है इसीलिये माँगता हूँ ईश्वर से वरदान असफलता का जारी रहे ताकि कठिन साधना इसके पहले कि राख हो जाय काम पूरा ले सकूँ शरीर से बाद में भी हो सकेगा उपलब्धि का हिसाब लेकिन ढल जाने पर हो सकेगा काम नहीं जर्जर शरीर से चाहता हूँ इसीलिये रहना निरंतर परिश्रमरत.

निशाचर और देवता

जानता तो वह सब था कमी नहीं थी कुछ ज्ञान में पर नहीं कर पाया था अपने वश में शरीर को. रास्ता तो वह जानता था दूर से ही दीखता था लक्ष्य काँटे पर बीच में थे जंगल पहाड़ थे लाँघ कर पहुँचना था मंजिल तक कहना लेकिन मानता शरीर नहीं भागता ही जाता ढलान में साथ लिये बुद्धि को उसके हिसाब से जो तर्क गढ़ती जाती थी. इसी तरह चलते-चलते दूर होता गया लक्ष्य भूलता ही गया ज्ञान दास बन शरीर का भटकने लगा खाइयों में, खोहों में लुप्त हुईं चोटियाँ अँधेरा ही लगने लगा शाश्वत सत्य कहलाने लगा वह निशाचर. भाई था उसका ही जुड़वाँ जो खास नहीं उसको कुछ ज्ञान था वश में था उसके शरीर पर डरता नहीं था जो काँटों से बढ़ता ही जाता था पार कर जंगल-पहाड़ों को पहुँचा जब चोटी पर सामने था तेजस्वी सूर्य का प्रकाश-पुंज जान लिया उसने शाश्वत यह सत्य ही प्रकाश है कहलाया देवता वह.

चिट्ठी

बरसों से नहीं लिखी चिट्ठी किसी को भी स्मृतियाँ बन रह गये बचपन के दिन वे. जानता हूँ लम्बा था पहले का रास्ता महीनों लग जाते थे पाने में हालचाल चिट्ठी जब मिलती थी पुरानी हो चुकती थी खबर हफ्ते-दस दिन खुशी पर जो मिलती थी फोन पर कर बात भी मिलती नहीं आज वह. होता महसूस ऐसा बात नहीं कर पाया बहुत दिनों से अपने आप से. देख नहीं पाता हूँ आइना पहचान पाता नहीं खुद को बनता ही जाता हूँ अजनबी, खुद से.

मनुष्यता बचाने के लिये

नहीं डॉक्टर, हैरान मत हो नहीं पकड़ पायेंगी तुम्हारी मशीनें इस घाव को क्योंकि यह शरीर नहीं दिल पर है. कितना अच्छा होता अगर यह शरीर पर होते कम से कम दवा तो मिल जाती! नहीं होता अब किसी पर विश्वास पर विश्वास के बिना जीना सम्भव भी तो नहीं! क्षुब्ध होता था पहले मैं प्रकृति की निर्दयता पर आती थी जब कहीं आपदा. काँपता हूँ पर अब तो देख कर मनुष्यों की क्रूरता. हमने ही प्रकृति को पत्थरदिल बना दिया! नहीं डॉक्टर, ऐसे जीना सम्भव नहीं काम नहीं करेंगी, तुम्हारी दवाइयाँ बार-बार आऊँगा मैं हत्यारे के सामने ङोलूँगा वार तलवार के धार ताकि भोथरी कुछ हो जाय हो जाऊँगा खड़ा, बंदूक के सामने ताकि कुछ गोलियाँ कम हो जायँ. नहीं डॉक्टर, दुश्मन नहीं हैं वे मेरे ही साथी हैं गए थे जो दुश्मनों से लड़ने को. लड़ते-लड़ते लेकिन दुश्मनों से ही वे भी बन गए छीन लिये उनके भी हथियार क्रूरता में उनसे भी बढ़ गए! लगने लगे अब तो दुश्मन भी मित्नों से. सुनो डॉक्टर, नहीं है समय यह इलाज का करना ही होगा मुङो प्रतिरोध अपनों का रक्तरंजित होना होगा बार-बार खत्म न हो जायँ उनके हथियार जब तक ङोलने ही होंगे मुङो वार बार-बार अपनों-परायों के. मनुष्

आत्म संघर्ष-२

तरक्की तो हो रही है रोज-रोज बाहर भी भीतर भी शांति नहीं मिलती पर मन को भटक गई सी लगती है दिशा विकास की. जितना ही बढ़ता हूँ आगे खाई भी बढ़ जाती है संगी-साथियों के बीच पाता जिन्हें आसपास अजनबी वे लोग हैं. भेद तो लिया है चक्रव्यूह को कहलाते लोग जो बड़े-बड़े जान गया राज उनका पहुँच गया आसपास इस्तेमाल किये बिना उनके हथियारों का. चाहता बताना अब अपने संगी-साथियों को आगे बढ़ने का ठोस रास्ता चाहिये जो इसके लिये मेहनत भरपूर उनके पास है जरूरत नहीं है छल-छद्म की पोली होती है नींव जिसकी. तोड़ते ही नहीं पर वे दायरे को अपने बना नहीं पाते हृदय को उदार बुनियादी फर्क नहीं दीखता उनके और बड़ों के बीच मिल गई इन्हें जो धन-संपदा भेद नहीं कोई रह जायेगा इनके-बड़ों के बीच अजनबी से ये भी बन जायेंगे. चाहता हूँ इसीलिये स्वेच्छा से लौटना रास्ता बताना उन्हें आगे बढ़ने का नया ताकि आगे बढ़ कर वे बन न जायँ उन्हीं बड़ों जैसे ही खो न जाय उनकी भी मनुष्यता महँगा है सौदा वह. उतर नहीं पाता हूँ नीचे पर पहले की तरह दु:ख-तकलीफों को झेल नहीं पाता हूँ शिद्दत से. बढ़ता हूँ जितना ही आगे उतने ही दूर ह

आत्म संघर्ष-१

    हर गलती मुझे असहज कर देती है अन्याय-अत्याचार देख खौल उठता है खून लेकिन देखता हूँ जब ध्यान से दिखाई देती हैं उसकी जड़ें मेरे भीतर भी. अनगिनत बारीक नसें पहुँचाती हैं मेरा भी खून करती हैं पोषण अत्याचार के उस वृक्ष का और रुक जाते हैं हाथ करने से प्रहार उसकी मोटी जड़ पर क्योंकि लगते ही घाव उस पर तेजी से बहेगा खून मेरे शरीर से सम्भव नहीं है ऐसे लड़ना अपने आप से. इसीलिये काटता हूँ अपनी बारीक जड़ें जुड़ीं जो उस वृक्ष से होता लथपथ खून से. काटे बिना लेकिन अपने को उस वृक्ष से सम्भव नहीं लड़ना अत्याचार से   

दोष-पाप

   अविश्वास तो रहा नहीं जरूरत भी लेकिन कभी पड़ी नहीं ईश्वर की ढोता रहा सलीब अपनी लज्जास्पद लगता था पापों को अपने ईश्वर को सौंपना. देखा पर उस दिन जब आलीशान गाड़ी में सवार परिवार को दे रहा था टुकड़े जो रोटी के बाजू में खड़े उस भिखारी को सिर से उतार अपने पाँव तक दूर करने दोष-पाप काँप गया भीतर तक. फटेहाल है जो पहले से ही कैसे भिखारी वह झेलेगा बड़े-बड़े पापियों के दोष-पाप! याद आया ईश्वर तब हाथ जोड़ पहली बार करने लगा प्रार्थना संचित हों मेरे अगर पुण्य कुछ मिलें वे इस कृषकाय भिक्षुक हो. लालसा मुझे नहीं सुख-सुविधा की पाता पर जैसे मैं मिलती रहे भिक्षुक को भी दाल-रोटी झेलना पड़े न उसे दूसरों का दोष-पाप इसीलिये करता अर्पण उसको अपना सब पुण्य कार्य.

निशाचर

    पढ़ते हैं बच्चे जब किताबों में कि मिलती है ताजगी- उठने से तड़के लगती यह बात उन्हें किस्से-कहानियों की. जानता हूँ समझाना व्यर्थ है इसीलिये करता हूँ कोशिश खुद कर दिखाने की. हमला लेकिन इतना जबर्दस्त है कि टिक नहीं पाती हैं मेरी अच्छाइयाँ. चुम्बक जैसे रहते हैं चिपके टीवी से देर रात फैशन बन गया करना डिनर आधी रात को. नींद नहीं होने से बेहद कठिन होता है उठना सुबह-सुबह उनींदी आँखों से ही भागते हैं स्कूल वे. बेमानी हो गईं कहानियाँ रामायण की काल्पनिक से लगते हैं राम-कृष्ण बनते ही जा रहे अब बच्चे निशाचरों से.

जीवंत कविता

करता था कोशिश जब लिखने की कविता भागती थी दूर वह परछाईं सी आगे-आगे छोड़ लेकिन पीछा जब शुरू किया जीना तो पीछे-पीछे रहती वह हरदम परछाईं सी. मिलते ही अब तो फुरसत के पल-दो पल लेते ही कापी पेन लिखे चला जाता हूँ रुकने का नाम ही अब लेती नहीं कविता. होड़ मची रहती है आगे निकलने की लिखने और जीने में. जान गया हूँ अब यह नाभिनालबद्ध है जीवन से कविता इसीलिये जीता हूँ लिखने के पहले इसे कविता सा बन गया है जीवन अब हो गई है जीवंत कविता भी.