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भयावह मंजर

भयभीत हूं कि देखते ही देखते बदलता जा रहा है सब कुछ और मैं कुछ भी नहीं कर पा रहा। इतना बढ़ गया है प्रदूषण कि नॉस्टैल्जिक लगने लगा है अतीत कि प्रगति के शिखर को पीछे कहीं दूर छोड़ आए हैैं हम! भयानक तो यह है कि मन भी लगने लगा है प्रदूषित और दुर्लभ लगने लगे हैैं पहले की तरह भोले-भाले निर्दोष इंसान सबसे भयानक तो यह है कि अब पहले की तरह कविताएं भी नहीं लिख पाता निर्दोष। तो क्या अपने लेखन के शिखर को भी पीछे छोड़ आया हूं कहीं दूर और अब सिर्फ यादें बची हैैं मधुर अतीत की! यह इंतेहा ही है भयानकता की कि इन सब के बावजूद जिये चला जा रहा हूं किसी रोबोट की तरह बिना किसी वेदना संवेदना के बनती ही जा रही है मरघट सी दुनिया जो लगती जीवंत थी।

सही-गलत

पहले मैं डरता था घिसी-पिटी रेखा पर चलने से अक्सर निकल कर अपनी कक्षा से सैर करने लगता था स्वच्छंद चाहता था एक करना जमीन और आसमान। ढलने लगी है अब उम्र जब डरता हूं भटकन से चाहता हूं चलते जाना चुपचाप अपनी ही कक्षा में चलते जैसे सूरज-चांद चलता है समूचा जैसे ब्रह्माण्ड। समझ नहीं पाता हूं अब हूं सही राह पर या पहले था या कि सही दोनों ही जगह पर था! आता है याद आइंस्टीन का सापेक्षता का सिद्धांत बन नहीं पाता हूं न्यायाधीश लगती हैं सारी चीजें सही अपनी जगह पर।