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Showing posts from June, 2021

अच्छाई की खेती

 विपदाएं आएं लाख सही टूटे धरती या आसमान मैं नहीं चाहता दामन छोड़ूं आशा का प्रत्येक परिस्थिति में अपने जीवन की लौ दीपक के जैसी रखूं हमेशा ऊपर ही बस यही लक्ष्य नजरों में हरदम रहता है। महसूस किया है अक्सर यह निंदा या आलोचना किसी की करने-सुनने वाले दोनों के मन में पैदा करती हैै भाव नकारात्मकता का कलुषित आनंद क्षणिक मिल जाये चाहे पर वे नहीं सहायक होते आगे बढ़ने में। इसलिये ढूंढ़ता हूं मैं हरदम सबके भीतर अच्छाई चिंता करता हूं नहीं कि कोई अतिशयोक्ति का दोष लगायेगा मुझ पर खुल कर करता हूं सबके गुण की सराहना अद्भुत है यह अगले ही दिन पाता हूं वह गुण पहले से भी बढ़ जाता है कई गुना। मैं नहीं चाहता बनना न्यायाधीश नहीं है काम मेरा दण्डित करना हिस्सा हूं मैं मानवता का समृद्ध उसे ज्यादा से ज्यादा करूं  सभी की अच्छाई फल-फूल सके कोशिश में बस दिन-रात इसी मैं रहता हूं अच्छाई बोकर फसल काटता हूं ढेरों अच्छाई की। रचनाकाल : 22-26 जून 2021

जीना सिखाती कविता

कविता लिखी सुंदर विचार भव्य-दिव्य थे भूल गया उनको पर जीवन में उतारना अगले दिन बैठा जब लिखने तो गायब थी कविता की आत्मा कोशिश बहुतेरी की शब्दों से उसको सजाने की बन न पाई लेकिन वह प्राणवान। ऐसा हमेशा ही होता है जब भी मैं छोड़ता हूं कविता के भावों को जीना तो होने लगती है वह खोखली काम नहीं आती है बाजीगरी शब्दों की होता हूं अपनी ही नजरों में शर्मिंदा देख करके अपना पाखण्डीपन। इसीलिये लिखता जो जीता भी उसको हूं दूरी न बढ़ने पाये कविता और जीवन में रखता हूं चौकसी बचता हूं सफलता की भरमाने वाली चकाचौंध से अक्सर असफलताएं ही देती हैैं प्रेरणा मुझको आगे बढ़ने की। दुनिया सपनीली है कविता की बनना नहीं चाहता पर सपनों का सौदागर कविता मुझे देती है साहस कि खुद को लुटा सकूं अद्भुत है बदले में दुनिया मुझे सारी मिल जाती है सारी दुनिया का मैं हो जाता हूं। रचनाकाल : 21-26 जून 2021

बुढ़ापा

सुविधाएं तो हैैं सारी लेकिन बंद जेल में जैसे हूं, दम घुटता जाता है शक्ति नहीं है इतनी उठकर भाग सकूं सब संगी-साथी छूट गये ये अंत समय में कैसी मुझ पर विपदा आई है! ये अंधकार सा कैसा मुझ पर छाता जाता है क्या मौत खड़ी है बांह पसारे, अब मैं मरने वाला हूं? गला दबाता जाता है जैसे कोई, रुकती जाती है सांस अचानक ढीले पड़ते हाथ, तभी फुर्ती से भाग निकलता हूं पैर टकराते हैैं पर तभी चीज से किसी और गिर पड़ता हूं सहसा खुलती है नींद, स्वयं को पाता हूं बिस्तर पर अपने पड़ा हुआ। सपना था बड़ा भयानक, राहत मिलती है यह देख अभी मैं हुआ नहीं हूं बूढ़ा, संगी-साथी सब हैैं साथ मेरे मैं बंद जेल में नहीं, स्वयं अपने घर हूं। सहसा आते हैैं याद आज के वृद्ध बिठा जो पाते सामंजस्य नहीं बच्चों से जिंदगी जिनकी कटती वृद्धाश्रम या घुट-घुट कर अपने घर में बिजली सी जाती जैसे मन में कौंध अनावृत होती है यह सच्चाई सपना जो देखा मैंने, है कल्पना नहीं वह तल्ख हकीकत है समाज के वृद्धों की। तो क्या अंत समय में अभिशापित सा जीवन जीना ही बस नियति हमारी है! रचनाकाल : 20 जून 2021

अतिरिक्त नहीं कुछ भी

शक्तियां हैैं बहुत सीमित पास मेरे कर नहीं सकता वहन अपव्यय जरा भी लक्ष्य से भटकी जरा सी भी नजर तो है नहीं मौका दुबारा फिर कोई। मानता था मैं इसे अभिशाप पहले हो जरा सी भी नहीं अतिरिक्त ऊर्जा मनोरंजन का न हो मौका तनिक भी ले न पाऊं एक क्षण का भी अगर विश्राम तो जिंदगी कितनी कठिन हो जायेगी! किंतु अब यह जानता हूं है मिला वरदान कितना बड़ा मुझको बच सका हूं इस वजह से कितने ही भटकाव से अहसान ईश्वर का है मुझ पर अतिरिक्त कुछ भी नहीं देकर राह उसने की सरल मेरी बहुत अब लक्ष्य पर ही टिकी रहती हैैं निगाहें है समय या शक्ति मेरे पास जितनी है जरूरत पुंजीभूत होकर प्रखर होता जा रहा है आत्मबल आसान लगता धार पर तलवार की चलना नहीं डर डगमगाने का है कोई अब इधर या उधर सहसा ही चला है पता अब यह नहीं है अतिरिक्त दुनिया में कहीं कुछ हम गंवाते जो समय या शक्ति यूं ही व्यर्थ में अपराध है वह निखर पाती हैैं नहीं सम्भावनाएं छिपीं जो भीतर हमारे क्या कभी हम जान पायेंगे कि हर इंसान के भीतर छिपी हैैं सैकड़ों एटम बमोंं से ज्यादा बढ़ कर शक्तियां दुनिया कि इस्तेमाल से जिनके अभी तक तो बन जानी चाहिये थी आज की तुलना में बेहतर सैकड़ों ज्याद

बुराई

ऐसा नहीं कि मुझको था न पसंद सभी के संग रहना घुलमिल कर मेरे पास समय था नहीं मगर दुनियादारी में डूब सकूं इसलिये गांव में भी मैं सबसे अलग-थलग ही थोड़ा सा रहता आया। मुझको अच्छा लगता था शहरों में रखते काम सभी बस खुद से ही रहते हैैं व्यस्त स्वयं में कोई नहीं अड़ाता टांग किसी के रस्ते में। आया पर रहने महानगर में जब तो धक्का लगा देख कर, यह तो नहीं अकेलापन वह जैसा मैं गांवों में सोचा करता था! बेशक हैैं सब तल्लीन स्वयं में नहीं जानते नाम पड़ोसी का भी अपने मानवता की डोर मगर जो बांधे रखती है अजनबियों को भी दिखती नहीं यहां तो वह भी लोगों के भीतर! यह कैसा है निर्मम समाज मर रहा अगर हो कोई सड़कों पर भी तो निस्संग भाव से सभी चले जाते हैैं अपने रस्ते में! अनासक्ति का भाव मुझे अच्छा लगता है गीता का पर निरासक्ति के धोखे में यह तो कोरी निर्दयता है! क्या ऐसा सम्भव नहीं कि गुण सब शहरों में भी गांवों के आ जायं बुराई दूर रहे दोनों की ही मिट जाय भेद गांवों का शहरों का सारा! भय है पर मुझको मेल कराने की कोशिश में खत्म न गुण सब दोनों के हो जायं बुराई दोनों की ही मिल कर हम पर हावी ना हो जाय! इसलिये भूल कर भेद शहर-गांवो

नींव का पत्थर

की हो पढ़ाई जिसने साल भर घनघोर लेकिन भूल जाये सब कुछ परीक्षा में जो छात्र वह कितना अभागा है! करके घनघोर मेहनत खेतों में लहलहाती फसल को अचानक ही बाढ़ में गंवा दे किसान जो कितना वह किस्मत का मारा है! चाहता हूं मेरी भी ऐसे ही अभागों और किस्मत के मारों में गिनती हो देखता है कोई नहीं नींव को गगनचुम्बी भवनों की चाहता हूं बनना मैं ऐसी ही नींव ताकि चूम सकें आसमान आने वाली पीढ़ियां मिला है विरासत में जो मुझको खोखला समाज भीतर से उसको मजबूत करना चाहता हूं पास हुए नकल करके छात्र जो, अंधाधुंध खाद-पानी डालकर खेतों को बंजर बना चुके किसान जो उनकी गलतियों का दण्ड भोग कर मेहनत करके भी घनघोर लेकिन होकर वंचित फल से बंजर हो चुकी सारी चीजों में उर्वरता फिर से लाना चाहता हूं ताकि नई पीढ़ी को विरासत में मिल सके समृद्ध भूमि रचनाकाल : 13 जून 2021

पितृसत्तात्मक समाज में

पापा, गलती हो गई गलती हो गई पापा माफ कर दो मुझे मुझसे आपका रोना देखा नहीं जा रहा कुछ ही देर में पहुंच जाऊंगी उस लोक जहां से लौट कर कोई नहीं आता वैसे अब लौट कर आने की इच्छा भी तो नहीं बची पापा! यह दुनिया अभी काबिल नहीं हो पाई है बेटियों के रहने के आपने तो मुझे बेटे जैसा ही माना पापा मैं भी कोशिश कर रही थी बेटे का हक अदा करने की कोचिंग और स्कूल में पढ़ा कर घरखर्च में हाथ बटाने की पढ़ा रही थी छोटे भाई-बहनों को... पर दुनिया तो मुझे लड़का नहीं समझ सकती थी न पापा! नहीं पापा, किसी को भी नहीं दूंगी दोष मैं  खूब लग रहे हैैं नारे दुनिया में स्री-पुरुष समानता के पर हजारों वर्ष की मनोवृत्तियां बदलना इतना आसान तो नहीं है न पापा! नहीं पापा, समय नहीं बचा ज्यादा कुछ कहने का सल्फास की गोलियां खाने के बाद कहां बचता है ज्यादा देर कोई! मैं भी जा रही हूं पापा हो सके तो बस इतनी कोशिश करना कि बेटों की तरह सचमुच ही बन सके दुनिया हम बेटियों के भी रहने लायक ताकि जन्म लूं जब फिर कभी तो लेना न पड़े विदा, असमय दुबारा। रचनाकाल :  11 जून 2021

मेहनत का फल

अक्सर मैंने महसूस किया है मेहनत का फल मुझको तरह-तरह से मिलता है यह सच है विफल हुआ हूं मैं कई बार परिश्रम करके भी घनघोर नहीं हासिल कर पाया हूं जो वांछित था मगर कई साल बाद रह गया दंग यह देख कि मेहनत फलीभूत इस तरह हुई मैं सपने में भी सोच नहीं सकता था उसके बारे में। जब शुरू-शुरू में मैं कविताएं लिखता था होती थी हसरत मन के भावों को कागज पर ढाल सकूं अक्सर असफल रहता था लेकिन लिखता ही रहता था दशकों बाद आज लगता है वे असफलताएं ही मेरी, बुनियाद सफलताओं की हैैं। सीखी थी मैंने शॉर्टहैण्ड बचपन में प्रैक्टिस करता था तब रात-रात भर उसकी सैकड़ों कापियां भर डाली थीं लेकिन कुछ भी काम न आया मेरे वह ऋणी मगर हूं आज उसी प्रैक्टिस का उसके कारण ही मैं बना सका हूं मेहनत को अपनी आदत। इसलिये नहीं अब घबराता हूं असफलताओं के डर से मेहनत करता घनघोर हमेशा रहता हूं निश्चिंत जानता हूं फल मुझको आज नहीं तो कल, परसों इस रूप नहीं तो और किसी भी रूप सही लेकिन हर हालत में उसका मिलना तय है। रचनाकाल : 6 जून 2021

अनुभवी और अनुभवहीन

जब अनुभवहीन था पहले मैं  अक्सर दुस्साहस भरे काम कर जाया करता था जानता नहीं था क्या होती है मौत आज जब याद आती हैं घटनाएं  कांप उठता हूं यह सोच कि अक्सर मरने से मैंं बाल-बाल ही बस बच जाया करता था अब समझदार हूं, जोखिम नहीं उठा पाता जिंदगी सुरक्षित है पहले की तुलना में दिन पहले के ही लेकिन अब भी मोहक लगते हैैं डर जाने कैसा समा गया है भीतर अनजानी राहों पर चलने की अब हिम्मत नहीं जुटा पाता। अनुभवों ने मुझे किया बहुत समृद्ध मगर छीना भी है कम नहीं अगर जोड़ने-घटाने बैठूं तो क्या पता कि किसका पलड़ा भारी हो!   गिला तो कोई भी है नहीं जिंदगी से अब भी हसरत होती है लेकिन मन में काश, कि पहले जैसी निर्भयता फिर हासिल कर पाता कुछ नहीं जानता था जब, तब मन जैसा था निर्दोष जानता हूं जब सब कुछ आज स्वयं को पहले जैसा फिर निर्दोष बना पाता! रचनाकाल : 2 जून 2021