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Showing posts from July, 2020

बाधा दौड़

माना कि दौड़ बहुत कठिन है पर नहीं चाहता हटा दी जाएं रास्ते की बाधाएं नहीं चाहता कोई शार्टकट सारी कठिनाइयों के साथ ही पूरी करना चाहता हूं दौड़ रास नहीं आयेगा सीधा सपाट जीवन मौत की कगार पर ही मजा मुझे आता है चलने में

मृत्यु से संघर्ष

मौत के साथ संघर्ष में अभी-अभी लौटा हूं एक बड़ी विजय हासिल करके गहरा था इस बार उसका झपट्टा और नोंच ले गई है वह बहुत सारा मांस करके मुझे लहूलुहान घावों की पर मुझे चिंता नहीं शीघ्र भर लूंगा इन्हें पूरी तरह से और फिर-फिर जाऊंगा कगार तक मौत को चुनौती देने कि माननी ही होगी उसे हार खत्म करना होगा अपने डर का साम्राज्य कि जीवन का ही होगा इस दुनिया में राज्य पूरे जीवन को ग्रसने के बजाय सीमित रहना होगा मृत्यु को स्वाभाविक अंत की अपनी भूमिका तक जिसकी कोख से फिर लेता है जीवन एक नया जन्म

मनोहारी दुख-कष्ट

बढ़ने लगीं जब तकलीफें छोड़ दिया लिखना बचाने लगा शरीर को कि दूर होंगे कष्ट जब लिखूंगा तब बैठ करके चैन से। छोड़ते ही कविता पर होने लगा बंजर अंदर ही अंदर शरीर को तो बचा लिया पर होती ही गई क्षीण आत्मा। इसीलिये छोड़ता अब चिंता शरीर की लिखना शुरू करता हूं दुख-कष्टों के बीच ही कि बची रही आत्मा तो जी लूंगा लिये हुए नाजुक शरीर भी आत्मा के बिना लेकिन ढो नहीं पाऊंगा बंजर सी देह को। इसीलिये लिखता हूं चलता पैनी धार पर कटता ही जाता हूं होता लहूलुहान मनोहारी दीखता है खून से रंगा शरीर।

रूपांतरण

बेहद क्रूर है समय पर नहीं चाहता कि मेरी कविताओं में भी आये यह क्रूरता। सपनों में नाचती है मौत, पर जीवन को चाहता हूं भरना जीवन्तता से। इसलिये नहीं शुरू की थी रेगिस्तान की यात्रा कि मैं भी हो जाऊं बंजर भले ही करना पड़े मौत का वरण, पर भर देना चाहता हूं धरती को जीवन रस से पी रहा हूं इन दिनों जहर भयंकर, पर बदले में चाहता हूं देना अमृत। आहट भी मौत की अब दे रही सुनाई मधुर घंटियों सी परियों के देश जैसे लगते हैैं दु:स्वप्न मरणांतक पीड़ा में मिल रहा चरम सुख। बदल रहे शब्दों के अर्थ, जैसे भयानक दबाव सह कोयला बदलता है हीरे में बदलता है जहर जैसे अमृत में।

खजाने की खोज में

लम्बी कठिन यात्रा के बाद पहुंचा जब तंग बीहड़ घाटी में देने लगी है जवाब शक्ति। लौटने को मुड़ता पर जैसे ही मोती दूर दीखते चमकते हैैं जैसे ही बढ़ता हूं आगे बढ़ती ही जाती है चकाचौंध दीखता खजाना बेशकीमती। शक्ति लेकिन चुकती ही जाती है डरता हूं रह न जाऊं ऊपर पहुंचने से पानी के इसी हड़बड़ाहट में वापस लौट आता हूं लेकिन ऊपर पहुंच कर पछताता हूं क्यों न लेकर आ सका दो-चार रत्न! आखिर उतरता हूं फिर नीचे गहरी तंग घाटी में दीखते हैैं फिर से रत्न चमकते लौटने का फिर से डर लगता है बढ़ता ही जाता हूं लेकिन मिलने लगे हैैं अब राह में बिखरे हुए रत्न बीनते हुए उन्हें बढ़ता ही जाता हूं दीखता खजाना जहां टूटती सी लग रही है सांस पर। चकाचौंध बढ़ने के साथ ही बढ़ता ही जा रहा अंधेरा समझ नहीं पाता कि जागता हूं या फिर  बेहोश होता जाता हूं लेकिन इस हाल में भी रत्नों की चाह में बढ़ता ही जाता हूं आगे गहरी तंग घाटी में समंदर के।

रेगिस्तान

चिलचिलाती धूप में चला आया मीलों तक कहीं कोई छांव नहीं तपता है सारा बदन। सपने तो देखता था इसी के चाहता था पार करना रेगिस्तान डर तो कभी लगा नहीं प्राण चाहे निकल जायें प्यास से। लेकिन भयभीत हूं बढ़ता हूं जितना ही आगे होता महसूस ऐसा भीतर से बंजर होता जाता हूं सूखता ही जाता है प्राण रस। ऐसा तो सोचा न था बंजरता मिटाने को ही चाहता था पार करना रेगिस्तान कामना थी रेत को भी हरा-भरा उपवन बनाने की। लीलता ही जा रहा पर मुझे यह भीतर से रेत होता जा रहा मौत से तो डर कभी लगा नहीं लेकिन यह बंजरपन मुझको भयभीत करता जा रहा कोई उपाय नहीं दीखता इससे उबरने का।

झूठ का मुलम्मा

जब मैं कहता हूं कि झूठ नहीं बोल सकता तो लोगों को लगता है कि दुनिया का सबसे बड़ा झूठ यह देखते वे संदिग्ध नजरों से। सोचा तो था न कभी चलना होगा कठिन इतना सीधी-सरल राह पर दुनिया के इतना विपरीत है यह अलग-थलग पड़ जाता सबसे रखता हूं अपनी सच्चाई को छुपा करके सबसे लीप-पोत लेता हूं ऊपर से झूठ का मुलम्मा कि समझें न लोग मुझे पागल या पाखण्डी। होती है घुटन इस मुलम्मे से फेंकना पर चाहता हूं ज्योंही इसे घेर लेते दुनिया के झूठे सब चाहते हैैं मार देना मेरी सच्चाई को इसीलिये घबरा कर छिपा लेता फिर से इसे ओढ़ लेता झूठ का मुलम्मा सोने पर कर लेता पीतल की पालिश

लुकाछिपी

लुभाते हैैं मुझे गहन गिरि गह्वर खतरा उठा कर भी चला जाता गहरे तक मुश्किल से लौट पाता जहां से। दरअसल बिखरी हैैं वहां कविताएं अनमोल चुनने का लोभ जिन्हें खींच ले जाता मुझे। खतरा तो बहुत है लौटने की रहती नहीं गारंटी मौत जकड़ लेती है पंजे में मुश्किल से पीछा छुड़ाकर लौटता हूं क्षत-विक्षत होकर। इतनी मोहक हैैं पर कविताएं रोक नहीं पाता खुद को जाने से फिर-फिर। खेलता हूं लुकाछिपी काल से चुनता हूं कविताएं गहन गिरि गह्वर से।

सही समय

पहले मैं नहीं जानता था कविता लिखने का सही समय संकट के दिनों में भूल जाता था लिखना और सुख के दिनों में सूझता ही नहीं था कुछ अब मैं जान गया हूं कि कविता लिखने का समय तो पीड़ा के चरम क्षणों में ही होता है। पहले मैं लजीज व्यंजन खाता था स्वाद नहीं आता था पर खाने में अब मैं जान गया हूं कि भोजन का सही समय तो उपवास के बाद ही होता है। डरता था चलने से पहले कांटों भरी राह में नीरस सी लगती थी जिंदगी जान गया हूं पर अब कि चलने का सही मजा तो तलवार की धार पर ही होता है।

सफेदपोश हत्यारे

जब एक दुर्दांत अपराधी को खुलेआम मार डालें सफेदपोश हत्यारे तो समझ नहीं पाता कि किससे ज्यादा डरूं! अपराधी से तो फिर भी बच सकता हूं कि नहीं ओढ़ रखी है उसने कोई खाल पर सफेदपोश हत्यारों से बचकर कहां जाऊं भला जब सर्वोच्च पदों पर विराजमान हों वे और रखवाली में भी तैनात हों वही! नाज था मुझे अपने लोकतंत्र पर कि निजात मिली थी अत्याचारों से राजों-महाराजों-जमींदारों के पर रूप बदल आये हैैं वे लोकतंत्र की खाल ओढ़कर फिर आ गए हैैं डराने और समझ नहीं पा रहा मैं कहां जाऊं भाग कर अब इन सफेदपोशों से।

वायरस और मनुष्य

कौन सा लोक है यह जिसमें नहीं दीखता कोई आदमजाद कैक्टस जैसे काँटों वाले वायरसों का ही दीखता है साम्राज्य। तो क्या हो चुका है मनुष्यों का अंत और अब वायरस ही करेंगे राज्य ? प्रलय तो कोई आई नहीं फिर कैसे बदल गया निजाम! ढूंढ़ता हूँ अपनी मानव प्रजाति को चारों ओर और भयभीत होकर पाता हूँ कि बदल चुके हैं वे ही सब काँटेदार वायरस में। तो क्या यही थी हम मनुष्यों की नियति? सिहर उठता हूँ यह सोच कर और जाग उठता हूँ हड़बड़ा कर। पर नींद खुलने के बाद भी डराता रहता है देर तक सपने में देखा था जो मनुष्यों का वह काँटेदार रूप।