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Showing posts from November, 2021

प्रलोभन

वैसे तो मैं आमतौर पर रहता हूं ईमानदार  थोड़ा सा बनकर बेईमान लेकिन हो भारी लाभ कहीं मन डगमग होने लगता है समझाने लगता हूं खुद को थोड़ा सा बनकर बुरा अगर हो बेशुमार फायदा चढ़ावा ईश्वर को भी दे दूंगा परमार्थ कार्य कुछ कर लूंगा आसानी से यह धुल जायेगा करने वाला हूं जो पाप जरा सा। जाने किन जन्मों के लेकिन पुण्यों से संकट के क्षण से जब पार उतर आता हूं सही-सलामत डिगने से बच जाता है मन होता है तब यह अहसास दीखता था जो पाप जरा सा उसके पीछे कितना दांव बड़ा था लगा हुआ। पहली बार जरा सा होने पर भी बेईमान आसान राह हो जाती है सम्पूर्ण भ्रष्ट हो जाने की दिखने में छोटा भले कदम हो पहला मंजिल की पर उससे दिशा नियत हो जाती है। ईश्वर की मुझको नहीं जरूरत पड़ती आम दिनों में लेकिन ऐसे बड़े प्रलोभन जो दिखने में छोटे लगते हैैं उनके आगे मैं डिग न सकूं इसकी खातिर करता हूं यह प्रार्थना कि ऐसे मौकों पर  हे ईश्वर मुझे बचा लेना। रचनाकाल 27 नवंबर 2021

हिसाब-किताब

आसानी से बेशकीमती चीज कोई हासिल होती है जब भी तो मन भर जाता है मेरा पश्चाताप से। मैं चढ़ता हूं गिरि शिखरों पर पैदल ही करना उन्हें प्रदूषित वाहन से अपराध सरीखा लगता है संघर्ष भरे पथ पर चलकर संतुष्टि सदा मिलती है जब भी कभी शार्टकट लेने की कोशिश की तो पाया हरदम कद मेरा अपनी नजरों में ही छोटा होता जाता है। मैं रोज लगाता हूं हिसाब सोने से पहले रातों में दिनभर में जितनी मेहनत की, उससे ज्यादा प्रतिफल तो हासिल किया नहीं! जीने की खातिर तत्व लिये जो धरती और प्रकृति से उनका कर्ज चुकाने की कोशिश में, की तो कोई कमी नहीं! जिस दिन भी मुझ पर बाकी कोई रह जाता है कर्ज चैन की नींद नहीं सो पाता हूं, सीने पर भारी बोझ सरीखा लगता है अगले दिन जब तक चुकती नहीं उधारी, तब तक मन व्याकुल सा रहता है। ना जाने दिन हो कौन आखिरी जीवन का इसलिये नहीं बाकी रखता कोई हिसाब बारी जब आये चिरनिद्रा में हो जाने की लीन न सीने पर हो कोई बोझ, बकाया रहे न कोई कर्ज मिली थी दुनिया जैसी मुझको, उससे बेहतर जाऊं छोड़ नई पीढ़ी खातिर। रचनाकाल 21 नवंबर 2021

कविता और किसान

चाहता हूं मेहनत करूं बढ़ कर मजदूरों से बुद्धिजीवियों से ज्यादा करूं मनन-चिंतन भी बेशक यह मुश्किल है जलती है बाती जब दोनों किनारों से तो तेल खत्म होता है शीघ्र ही लेकिन नहीं चाहता कि दिया तले अंधेरा हो बिना श्रम की कविता और कविता विहीन श्रम दोनों अधूरे से लगते हैैं इसीलिये करता हूं मेहनत कड़ी धूप में रोशनी में चांदनी की लिखता हूं कविताएं अद्भुत है, घटने के स्थान पर बढ़ती ही जाती हैैं शक्तियां सूरज के ताप से होता शरीर पुष्ट चांदनी से होता ऊर्जस्वित मन होती जाती है सुंदर जिंदगी यह सपनों सी सपने जीवंत नजर आते हैैं व्यग्र हूं कि दुनिया को कैसे दिखाऊं यह दुनिया जो सुंदर है सपनों से भी बढ़कर रास्ता गुजरता है जिसका अपने आप को दोनों सिरों से करके प्रज्ज्वलित! रचनाकाल 13 नवंबर 2021

तमसो मा ज्योतिर्गमय

चलता ही रहता है अंतर्द्वंद्व हमेशा बीच असत् और सत् के ईश्वर से हम करते आये हैैं बस यही प्रार्थना सदियों से तमसो मा ज्योतिर्गमय। हर मानव के भीतर ही होते हैैं रावण और राम लड़ाई लड़नी पड़ती है सबको ही, अपने-अपने हिस्से की अपने ही भीतर के रावण का करना पड़ता है वध रुकता नहीं कभी सिलसिला, अनवरत चलता है संग्राम। दिवाली याद दिलाती है हमको हर साल कि मर-मर कर भी रावण जी उठता हर बार जरा भी हुए अगर हम गाफिल रावण हो जायेगा हावी बुझने पाये हर्गिज नहीं हमारे अंतर्मन का दीपक भीतर रहे उजाला, मिले न मौका तम को पैठ बनाने का। दीवाली का त्यौहार हमें देता मौका हर साल कि रुक कर करें तनिक पड़ताल हमारे भीतर रावण रूप बदल कर पैठा तो है नहीं कहीं दीपक अपने भीतर का हमने कहीं बुझा तो दिया नहीं हम कहीं भूल कर आत्मनिरीक्षण परंपरा को ही तो ढोते नहीं चले जाते हैैं सालोंसाल! रचनाकाल : 4 नवंबर 2021

मिटे अंधेरा भीतर-बाहर का

ज्योतिपुंज हम महाकाय हों भले नहीं पर छोटे-छोटे दीपक हैं  जितना भी सम्भव होता है अपने हिस्से का दूर अंधेरा करते हैैं। बेशक सूरज का होता है अपना महत्व पर नहीं शिकायत हमको दीपक बनने से जब तक बाकी हो एक बूंद भी ऊर्जा की पूरी क्षमता के साथ उजाला दे पायें जो मिली भूमिका हमको, उसे निभा पायें बस यही कामना करते हैैं। सच तो यह है देतीं जीवन सूरज की किरणें प्रखर, मगर होती न चांदनी मद्धम तो सपनों का जन्म न हो पाता होती न विविधता जग में तो जीवन फीका ही रह जाता। हम खुश हैैं सतरंगी समाज में रहते हैैं हे ईश्वर, इसको लगे न कोई बुरी नजर दीवाली की इस रात, जगमगाते दीपों के साथ दूर हो जाय अंधेरा सारा भीतर-बाहर का बस यही कामना करते हैैं। रचनाकाल : 3 नवंबर 2021