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Showing posts from February, 2021

लुटने का आनंद

अद्भुत है आनंद स्वयं लुट जाने में मैं डरता था बचपन में यही सिखाया मुझे गया था दुनिया बहुत लुटेरी है चौकन्नापन लेकिन हरदम का मुझको खाये जाता था सब पर शक करना, विश्वास नहीं कर पाना मुझको शर्मिंदा कर देता था मन ही मन में जब बड़ा हुआ तो देखा छोड़ मनुष्यों को दुनिया तो सारी दाता है! पशु-पक्षी, पौधे-पेड़ सभी लेते हैैं जितना उससे ज्यादा देते हैैं हम मानव ही बस दोहन करते धरती का! चौकन्नापन तब से छोड़ दिया, मन के द्वारों को खोल दिया जो जितना चाहे लूटे, मुझको खुशी वही मिलती है पाते पेड़ लदे फल, जो पत्थर के बदले में फल देते हैं  अद्भुत है यह लुटता हूं मैं जितना ही उससे ज्यादा मुझको देती है आनंद प्रकृति लुट कर भी मैं धनवान दिनोंदिन होता जाता हूं घनघोर मगर उससे भी ज्यादा अचरज की है बात लूटता जो मुझको वह खुद भी लुट जाता है छोड़ देता है चौकन्नापन वह करने लगता है विश्वास मजा फिर उसको भी लुटने में आता है देखकर यह सब मुझको मिलता है इतना ज्यादा आनंद कि ज्यादा से ज्यादा मैं कोशिश करता लुटने की विश्वास सिखाता हूं करना सब लोगों को समृद्ध बनाता जाता हूं। रचनाकाल : 27 फरवरी 2021

रूपांतरण

डरता था मैं बंजर होने से बेहद सूखना नहीं चाहता था यूं ही लेकिन जब प्यासे लोग तड़पते हों मेरे सब आसपास मैं नहीं बचाकर रख सकता था एक बूंद भी पानी की अपने भीतर बेशक मैं होता चला जा रहा शुष्क उगा सकता पर अपने भीतर कांटे नहीं भले मर जाऊं लेकिन जीवन तो जीना है अपनी शर्तों पर है नियम यही यदि जिंदा रहने की खातिर छीना-झपटी करनी होगी जीवन रस की यदि वही बचेगा जो होगा बलवान मारकर कमजोरों को उनकी ताकत हर लेगा तो करता हूं इनकार नियम पर चलने से मैं नहीं हरूंगा किसी और की एक बूंद भी नमी सूखता भले चला ही जाऊंगा मैं लगातार लाखों डिग्री का ताप-दाब भी सह कर नहीं झुकूंगा हीरा बनकर दमकूंगा मैं बंजर धरती पर। रचनाकाल : 25 फरवरी 2021

प्रतिरोध

बहुत ज्यादा नहीं थी  जरूरत पढ़ने-लिखने या बुद्धिजीवी बनने की  जानने की खातिर उस विनाश को  हो रहा जो आज पर्यावरण का छोड़नी थी बस अपने  हिस्से की सुख-सुविधा  हासिल होती जो उस विनाश से प्रताड़ित होने का भय छोड़ कर  करना था विरोध सरकार का खतरा उठा कर भी  कहलाने का राष्ट्रद्रोही  रोकना था सत्ता को करने से विनाश पर्यावरण का। जुटा नहीं सके लेकिन साहस हम छोड़ने की सुख-सुविधा  सत्ता के खिलाफ नहीं जा सके करते हुए बौद्धिक जुगाली बस बने रहे सहभागी लूट में। ग्रेटा, दिशा रवि जैसे बच्चे नई पीढ़ी के  दिखा रहे हमको आज आइना  इतना तो कठिन न था  साफ-साफ दीखना विरोध में  उंगली उठाना सरकार पर। पाखण्डी बन के ही रह तो नहीं गये कहीं सारे बुद्धिजीवी हम! रचनाकाल : 20 फरवरी 2021

मेरी बारी

मैं नहीं मिला हूं कभी दिशा रवि या ग्रेटा थनबर्ग से प्राणों से भी प्यारा है मुझको देश कभी यह सोच नहीं सकता कि करूंगा गद्दारी जाने पर क्यों लगता है मुझको गिरफ्तार होने की अगली बारी मेरी है। चिंतित हूं मैं कि किसान सड़क पर बैठे हैं भय उनके भीतर गहरा है, बेदखल खेत से होने का वे नहीं चाहते हैं कोई हिंसा-फसाद प्राणों से भी प्यारा है उनको देश अनुभवी आंखें उनकी भय से देख रहीं पर कृषि कानूनों को। मैं चिंतित हूं यह देख निरंतर पर्यावरण प्रदूषित होता जाता है मेरी पीढ़ी के लोगों को पर फिकर नहीं करते ही जाते हैं तबाह वे धरती को नई पीढ़ी के बच्चे हैं लेकिन परेशान कुछ भी करने की खातिर हैं तैयार, बचाने धरती को है प्यारी दुनिया सारी उनको, शामिल है जिसमें उनका भी देश। मैं डरता रहा कि ठप्पा लगा दिया जाएगा मुझ पर गद्दारी का देशद्रोहियों की सूची में नाम लिख दिया जायेगा पर बच्चे भी जब नहीं डर रहे जेलों से तैयार बचाने की खातिर हैं जब वे सारी दुनिया को मैं शर्मिन्दा हूं, बारी अब तक आ पाई क्यों नहीं गिरफ्तारी की मेरी! रचनाकाल : 16-17 फरवरी 2021

आधी रात का सपना

बात है आज की यह नहीं, साल बीते करोड़ों घूमते थे धरा पर महाकाय प्राणी बहुतेरे थी कमी तो नहीं कोई सब के लिये था सभी कुछ सुलभ पेट भरने में सक्षम थी धरती सभी अपनी संतानों का चाहती पर थी शायद जनम देना वो ऐसे इंसान को जो दिलाये उसे सारे ब्रह्माण्ड में सबसे दर्जा अनूठा था सरल तो नहीं साल लाखों लगे थे परिष्कार में अंतत: पर सफल हो गई थी बनाने में मनुष्य को था वो नाजुक बहुत बचना मुश्किल था उसका सहारे बिना तब मदद की थी उसकी, धरा पर जो मौजूद थे चर-अचर सब ने सोचा था तब ये कि उनका सहोदर समझदार है नाम रोशन करेगा वो धरती मां का सारे ब्रह्माण्ड में। समझदार तो था वो बेशक बहुत, की तरक्की अद्भुत देह से पर हमेशा ही कमजोर सबसे रहा आया वो सबका था लाड़ला उससे उम्मीद सारे चराचर को थी इसलिये अपने हिस्से का सुख वो सभी उसको देते रहे सारे कष्टों से बचता रहा और नाजुक वो बनता रहा पैना मस्तिष्क लेकिन लगातार ही उसका होता गया। ठीक तो था यहां तक, सभी को थी उम्मीद उससे बड़ी पर भयानक हुआ यह, कदर वो न कर पाया दाताओं की सबसे लेता गया फिर भी अहसान फरामोश होता गया दूध देकर जिलाया था जिस धरती मां ने उसे खून उसका ही होकर बड़ा च

मस्तानों की नगरी

जब मन में हो उल्लास मजा दुख-कष्टों को सहने में आता है मरते तो सब हैं रो-धोकर हो भगत सिंह के जैसा मन में जोश अगर फंदा भी फांसी का फूलों का हार नजर आता है। यह किस्सा मैंने सुना पिता से पड़ता था अकाल बचपन में उनके अक्सर ही कई बार अन्न का दाना भी घर में बचता था नहीं काटनी पड़ती थी अधपकी फसल उसका निकाल कर दाना चूल्हा जलता था तब सांझ ढले। पड़ती थी कोई शिकन नहीं पर मन में सारे भाई मस्ती से करते थे काम शाम का खाना पांचसितारा होटल जैसा लगता था दिन थे अभाव से भरे, आज भी पर उनको स्मृतियां सुनहरी अपनी लगती हैं। चाहता यही हूं मैं भी कोशिश करूं नहीं बचने की दुख-कष्टों से अपने जज्बे से रंगीन बनाकर उनको कर डालूं इतना आकर्षक सुख भी शर्माये उनके आगे गायब दैन्य भाव हो जाये दुनिया भर से हो जिस हाल में जहां जो भी जीने लगें सभी मस्ती में धरती मस्तानों की नगरी ही बन जाय! रचनाकाल : 11 फरवरी 2021

लौटने की छटपटाहट

कहानियां जब सुनता था बचपन में मनुष्येतर जीवों की लुभाता था संसार जादुई बोलते थे पेड़-पौधे जानवर भी, भाषा मनुष्यों की अद्भुत था कल्पना का लोक वह होती थी जीवंत हर एक चीज कातती थी चरखा जो चांद पर बुढ़िया कौतूहल जगाती थी। बड़ा हुआ, जानी हकीकत जब टूटता ही गया तब तिलिस्म सब कटता गया मनुष्येतर जीवों से दोहन कर सारे संसाधन का बढ़ाता ही चला गया सुख-सुविधा। जितना पर करता हूं तरक्की नीरस उतनी होती है जिंदगी पथराती जाती संवेदना यहां तक कि लगता बेजान सा अपना शरीर भी! चाहता हूं फिर से सच मानना कहानियों को बचपन की बात करना चाहता हूं पेड़-पौधों, चांद-तारों सारे मनुष्येतर जीवों से हिस्सा जो हड़पा है इन सब का लौटा कर सबसे क्षमा मांग लूं शामिल हो विस्तृत परिवार में हिस्सा बनूं सचराचर जगत का डराता ही जाता है मुझको यह विकराल दानव विकास का। रचनाकाल : 5 फरवरी 2021

धरती की मौत

वह कलाकार था चाहता था कि अपनी कला से वो बदले सभी की मनोवृत्तियां लोग भीतर से इतने मगर हो चुके थे बंजर उसमें कुछ भी उगाना था बेहद कठिन ध्यान उनका किसी भी तरह खींचने के लिये उनके भीतर नमी ला सके इसलिये अपने भीतर का रस वो लुटाता रहा भूमि बंजर जो थी, कैसे उर्वर बने इसलिये कोशिशें सारी वो आजमाता रहा। ला न पाया मगर वो नमी रेत में सूख कर खुद भी मिलता गया उसी में फैलता ही गया ऐसे वह मरुस्थल सोखता ही गया सबके भीतर का रस जाने कितनी ही सदियों का प्यासा था वह खत्म करता गया मानवी सभ्यता नागफनियों का साम्राज्य बढ़ता रहा जिंदगी खत्म होती रही सूख कर धीरे-धीरे वो बन गया निर्जीव ग्रह। नींद से हड़बड़ा कर अचानक जगा था वो सपना भयावह जो देखा अभी देख कर अपने ग्रह की सुखद भोर को उसको राहत मिली जिंदा है धरती मां। ध्यान अचानक गया उसका अखबार पर आई थी मंगल ग्रह की बड़ी सी खबर कभी जिंदा था वो धरती सा था सुंदर याद कर अपना सपना वो थर्रा गया तो क्या धरती भी मर जायेगी एक दिन! धुंध अचानक विचारों की उसके छंटी सामने आ गया सच, भयावह था जो धरती मां ने दिया था जनम इसलिये उसकी रक्षा करेंगे समझदार पुत्र बन चुके हैैं वही लेकिन अब

मरते दम तक

कुछ समझ नहीं पाता हूं गलती कहां हुई कोशिश तो करता पूरी चलूं सही पथ पर जाने क्यों पर मन में विकार भर जाता है करते-करते संघर्ष निरंतर खुद ही से थक कर निढाल हो चुका मगर यह रुकने का है समय नहीं हो जाऊंगा जब चिरनिद्रा में लीन मिटा लूंगा थकान तब सारी लेकिन अभी नहीं रुक सकता चाहे कितना भी हो कठिन मार्ग गंतव्य दूसरा बदल नहीं सकता गिरते-पड़ते चाहे जैसे भी हो बढ़ना ही होगा गिरि शिखरों की ओर लगाता होड़ मौत से बढ़ता ही जाता हूं बंजर बीहड़ रेगिस्तान पार कर बंजर होता जाता खुद भी शर्त अगर है यही कि रस की एक बूंद भी बाकी बचे न भीतर तो भी है मंजूर मगर रुक सकता नहीं किसी भी कीमत पर। रचनाकाल : 1फरवरी 2021