धरती की मौत


वह कलाकार था
चाहता था कि अपनी कला से
वो बदले सभी की मनोवृत्तियां
लोग भीतर से इतने मगर
हो चुके थे बंजर
उसमें कुछ भी उगाना था बेहद कठिन
ध्यान उनका किसी भी तरह खींचने के लिये
उनके भीतर नमी ला सके इसलिये
अपने भीतर का रस वो लुटाता रहा
भूमि बंजर जो थी, कैसे उर्वर बने इसलिये
कोशिशें सारी वो आजमाता रहा।

ला न पाया मगर वो नमी रेत में
सूख कर खुद भी मिलता गया उसी में
फैलता ही गया ऐसे वह मरुस्थल
सोखता ही गया सबके भीतर का रस
जाने कितनी ही सदियों का प्यासा था वह
खत्म करता गया मानवी सभ्यता
नागफनियों का साम्राज्य बढ़ता रहा
जिंदगी खत्म होती रही सूख कर
धीरे-धीरे वो बन गया निर्जीव ग्रह।

नींद से हड़बड़ा कर अचानक जगा
था वो सपना भयावह जो देखा अभी
देख कर अपने ग्रह की सुखद भोर को
उसको राहत मिली जिंदा है धरती मां।
ध्यान अचानक गया उसका अखबार पर
आई थी मंगल ग्रह की बड़ी सी खबर
कभी जिंदा था वो धरती सा था सुंदर
याद कर अपना सपना वो थर्रा गया
तो क्या धरती भी मर जायेगी एक दिन!

धुंध अचानक विचारों की उसके छंटी
सामने आ गया सच, भयावह था जो
धरती मां ने दिया था जनम इसलिये
उसकी रक्षा करेंगे समझदार पुत्र
बन चुके हैैं वही लेकिन अब भस्मासुर!

सहसा उसको लगा सपना देखा था जो
होने वाली है घटना आगामी दिनों
उसको क्यों पर दिखी
वह हकीकत जो होने को ही है अभी
दीखती जो नियति है अवश्यम्भावी
चाहती क्या है धरती कि रोके कोई?
रचनाकाल : 3 फरवरी 2021

Comments

Popular posts from this blog

गूंगे का गुड़

सम्मान

नये-पुराने का शाश्वत द्वंद्व और सच के रूप अनेक