Posts

Showing posts from August, 2020

जिजीविषा

जानता हूं कि जोखिम भरा है इन दिनों कविता लिखना घनघोर चल रही है मौत से लड़ाई और संचित कर सारी शक्तियों को लगाना चाहिए उसी युद्ध में पर कायरता होगी ऐसे समय में छोड़ देना कविता को और संभव भी न हो पाये शायद जीत पाना कविता बिना। मारती ही जा रही है मौत अधिकांश को भय के हथियार से और लड़ सकती है कविता ही सबसे बेहतर विनाश के इस अस्त्र से भर सकती है लोगों को उमंग और उल्लास से। इसीलिए जूझते हुए मौत से लिखता हूं कविता चाहता हूं लोगों के भीतर बढ़ाना जिजीविषा।

जीवन का प्रतिनिधि

जकड़ती ही जा रही है मौत दुनिया को शिकंजे में और सोचता हूं हैरान होकर कि क्यों नहीं देख पाया उसके इस भयावह रूप को जिंदगी सामान्य थी जब! जानती है मौत भी यह अच्छी तरह जीत नहीं सकती वह जीवन से आमने-सामने की लड़ाई में इसीलिये चली है यह कुटिल चाल जाल उसने फेंका है दहशत का भयभीत करने को दुनिया को स्थापित करने को अपना साम्राज्य। लेकिन नहीं है इतना आसान खत्म करना जीवन को तार-तार करने को मौत के साम्राज्य को लूंगा जन्म बार-बार खत्म नहीं होने दूंगा दुनिया से कहकहों-किलकारियों को जीवन का प्रतिनिधि हूं मैं।

गुलामी और आजादी

जब भी होना चाहता हूं अपनी दिनचर्या से आजाद कुछ दूर तक जाकर ही लौट आता हूं घबराकर जहाज के पंछी की तरह। डरता हूं मन की निरंकुशता से कि लाखों बलिदानों से मिली है जो बेशकीमती आजादी व्यर्थ न हो जाय कहीं वह मेरी स्वच्छंदता से। इसीलिये कसता हूं लगाम खुद पर बनाता हूं गुलाम मन को चुकाता हूं कर्ज बलिदानों का महसूस करता हूं आजादी।

आजादी

परतंत्र तो नहीं हैं हम जन्मना मिली है आजादी फिर क्यों लगती है कहीं कोई कमी सी! मनाने के बावजूद हर साल आजादी का पर्व क्यों लगता है सब कुछ आडम्बर सा और नहीं छू पाता दिल को! क्यों महसूस होता है ऐसा कि अनजानी बेड़ियों में जकड़ते जा रहे हैं हम और महसूस भी नहीं कर पा रहे अपने मन की गुलामी की यातना! कि लड़े बिना अपने हिस्से की लड़ाई क्या नहीं पाई जा सकती सच्चे अर्थों में आजादी!

जादूगर

मैं जादूगर हूं जादू दिखाता हूं शब्दों के रचता हूं दुनिया एक जादुई। जादू दिखाने के पहले पर बनना पड़ता है खुद जादू पार करना पड़ता है आग के धधकते हुए दरिया को करना पड़ता है खुद अग्निस्नान ताकि जल जाय सारा अपशिष्ट दमक उठे भीतर का सोना सम्मोहित जो दुनिया को कर पाए। मैं जादूगर हूं चाहता हूं रचना ऐसा सम्मोहन दुनिया भी तैयार हो जाय करने को अग्निस्नान दमक उठे सोना सबके भीतर का दुनिया यह जादू सी बन जाय। दुनिया यह जादुई बनाने को खुद को तपाता हूं भट्टी में करता हूं लोगों को सम्मोहित खींचता हूं दरिया में आग के।

बेचैनी और शांति

भयानक गुंजार के साथ होता है विस्फोट और फैल जाता है मलबा दूर तक तो क्या तहस-नहस हो चुकी है दुनिया? सोचता हूं भयभीत होकर पर जागता हूं हड़बड़ाकर तो पाता हूं कि सब कुछ पूर्ववत् चल रहा है नहीं बदला है दुनिया में कहीं भी कुछ। होते हैैं इसी तरह बार-बार विस्फोट मन के भीतर असर  नहीं पड़ता पर रंच भर चलती ही जाती है दुनिया अपनी रफ्तार से।