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Showing posts from September, 2022

अहिंसक प्रतिरोध

कुछ कोई कहे अनर्गल या नाजायज कोई काम करे आगबबूला तब मैं गुस्से से हो जाया करता था मुझको लगता था देख कहीं अन्याय कोई चुप रह जाना कायरता है। गुस्सा लेकिन मन में पैदा कर देता था अवसाद शांति भीतर की सारी हो जाती थी भंग देर तक अनायास ही मन झुंझलाया रहता था। फिर मैंने खुद को बना लिया इतना कठोर पत्थर से जैसे टकराये कोई तो लगती चोट कोई टकराता मुझसे खुद घायल हो जाता था। पर पाया मैंने पथराती जाती है संवेदना दूृसरों के हमलों का असर नहीं होता लेकिन भीतर से पत्थर जैसा बनता जाता हूं। इसलिये नहीं अब कुण्डल-कवच पहनता सीना खोल वार सहता हूं सारे लोगों के जितना भी वे चाहते मुझे हो कष्ट ठीक उतना पूरी शिद्दत से सहता जाता हूं होकर भी लहूलुहान, नहीं करता पत्थर से वार मगर पीछे भी हटता नहीं एक भी इंच इस तरह करता हूं प्रतिरोध सभी अन्यायों का। अद्‌भुत होता है असर इस तरीके का पानी करता जैसे पत्थर में सूराख पिघलते जाते वैसे पत्थरदिल अन्याय छोड़कर राह न्याय की अपनाते इस नये तरीके में होती है नहीं किसी की हार जीतते जाते हैं सब लोग, जीत मेरी भी होती जाती है। रचनाकाल : 16 सितंबर 2022

निष्पक्ष न्याय

अनथक मेहनत खेतों में करता जो किसान लहलहा उठी फसलों को उसकी बाढ़ बहा ले जाती है या सूखा चट कर जाता है तब उसका वह दारुण विलाप बेहद मर्मांतक होता है। इससे भी लेकिन मर्मांतक मुझको लगता है वह क्षण जब लॉटरी किसी की लगती है मिल जाता छप्परफाड़ खजाना बिना किसी मेहनत के ही। घनघोर परिश्रम का फल देकर किसी और को ईश्वर क्या औसतन न्याय करने की कोशिश करता है? बेशक मुझको मालूम नहीं हैं नियम सृष्टि के सारे पर लगता है जो अन्याय उसे चुपचाप देखना कायरता सा लगता है इसलिये नहीं मैं लेता हूं घनघोर परिश्रम का भी फल करता हूं दर्ज अपना विरोध भिखमंगों जैसा करे कोई बर्ताव किसी मानव से मुझको हर्गिज यह मंजूर नहीं फिर चाहे वह ईश्वर ही हो। इसलिये बंद करता हूं अब स्तुतिगान चुनौती देता हूं ईश्वर को करके सबसे न्याय दिखाये जो भी देना हो, वह दे गरिमा के साथ बहाना करे न मिल जायेगा अगले जनम नहीं हैं अनपढ़ अब हम या कि अंधविश्वासी ईश्वर अगर चाहता है कि उसे हम मानें तो बनना ही होगा तार्किक करना होगा ऐसा न्याय दिखे जो सब लोगों को साफ-साफ। रचनाकाल : 12-13 सितंबर 2022

स्वार्थ और परमार्थ

मैं पसोपेश में पड़ जाता हूं अक्सर पूरी कर पाता जब नहीं स्वजन-परिजन की सभी अपेक्षाएं सबके हैैं अपने निहित स्वार्थ, अपनी-अपनी आकांक्षाएं पूरी न किया तो रुष्ट न हो जायें वे, यह भय लगता है। है अजब त्रासदी मगर कि टकराती हैैं सबकी इच्छाएं पूरी यदि करूं एक की तो दूजे को हानि पहुंचती है खुश रखना सबको एक साथ सम्भव ही कभी न हो पाता। इसलिये छोड़ संकीर्ण स्वार्थ, विस्तीर्ण जगत को चुनता हूं हो भला समूची दुनिया का, अब काम वही बस करता हूं याद आता है मुझको सूरज, जो देता है सबको प्रकाश जल जाने के भय से जिसके पर पास न कोई जा पाता मेरे भी जो अब रहता है नजदीक उसे तकलीफ झेलनी पड़ती है कुंदन सा कोशिश करता हूं खुद निखर सकूं व निखार सकूं पर बिना आग में तपे कहां यह सब सम्भव हो पाता है! जो छोड़ न पाते निहित स्वार्थ वे दूर छिटकते जाते हैैं नि:स्वार्थ भाव वाले पर दुनिया भर से जुड़ते जाते हैैं मैं नहीं किसी का बचा निजी, पर सबका बनता जाता हूं सब धरती-सूरज चांद-सितारे साथी बनते जाते हैैं। रचनाकाल : 11 सितंबर 2022

साधन और साध्य

आसन्न भले ही हार दिखे मैं नहीं मानता हार मगर अंतिम क्षण तक गीता ने मुझे सिखाई है निष्काम कर्म की परिभाषा मैं साध्य नहीं, साधन का रखता ध्यान न होने पाये वह अपवित्र भले ही मंजिल तय करने में लम्बा सफर लगे। सच कहूं अगर तो यात्रा में, मिलता इतना आनंद लक्ष्य पाने की रहती नहीं कोई हड़बड़ी मुझे यह पता चल चुका है रहस्य चाहूं मैं या कि न चाहूं, फल कर्मों का पर हर हाल में मिल कर रहता है। इसलिये सदा साधन की शुचिता का रखता हूं ध्यान कि मिलने वाला है जो फल उस पर लग जाये कहीं न दाग मुझे तो लोकतंत्र में साफ दीखता फर्क पाक और भारत के। रचनाकाल : 7 सितंबर 2022

शब्दहीन कविता

जब नहीं सूझता लिखने को कुछ कभी-कभी अक्सर व्याकुल हो उठता हूं उस व्याकुलता के चक्कर में जबरन जब कुछ भी लिखता हूं वह इतना नकली लगता है होने लगती है खीझ स्वयं पर बुरी तरह। बेशक मन में है हसरत बहुत पुरानी यह लिख पाऊं ऐसी कविता जिसमें नजर न आये कागज पर एक भी शब्द जिस तरह तरंगें रहकर भी हरदम अदृश्य मन को उद्वेलित करती हैैं मेरी कविता भी बिना किन्हीं शब्दों के ही हर मन को कर दे उद्वेलित लिख पाना तब सचमुच होगा सम्पूर्ण सफल। मन चंचल लेकिन इतना ज्यादा है कि अभी सागर जैसा गम्भीर गहन बन पाना दुष्कर लगता है कुछ कहे बिना भी सारी बातें कह जाऊं यह क्षमता हासिल कर पाना फिलहाल असम्भव लगता है सब भले करें तारीफ सारगर्भित हैैं सुंदर शब्द मेरे पर मुझे पता है मेरे भीतर कितनी सारी कमियां हैैं लिख पाने खातिर शब्दहीन कविता कोई सैकड़ों मील का सफर अभी तय करना है। रचनाकाल : 2-5 सितंबर 2022

इंसान और भगवान

एक दिन ठन गई  मेरी ईश्वर से ही दरअसल करके घनघोर मेहनत मुझे कुछ मिला जब नहीं मैंने जिद यह पकड़ ली झुकूंगा नहीं करके तप जैसे घनघोर प्राचीन ऋषि-मुनि विवश करके ईश्वर को वरदान पा लेते थे मैं भी इतना परिश्रम करूंगा कि मजबूर हो जाय ईश्वर कहे मुझसे वरदान कुछ मांग लो तब कहूंगा मुझे चाहिये कुछ नहीं एक तुम ही नहीं इतने खुद्दार हो सबको देते फिरो मैं भी मानव सही, किंतु खुद्दार तुमसे हूं कुछ कम नहीं उस समय क्या नहीं मेरा दर्जा भी बढ़ जायेगा एक इंसान ईश्वर के समकक्ष हो जायेगा! तो क्या काबिल है इंसान इतना कि भगवान भी बन सके? मैंने अचरज से देखा कि भगवान की खुशियों का तो ठिकाना न था जिस तरह हर पिता चाहता पुत्र उससे भी आगे बढ़े तो क्या ईश्वर की इच्छा है इंसान उससे भी भगवान ज्यादा बने? नींद  इतने में ही खुल गई किंतु अब तक अचंभित था मैं कितनी क्षमता है हम मानवों में कि कर सकते क्या कुछ नहीं किंतु खुद से ही हो करके गाफिल रसातल चले जा रहे चाहता है ये ईश्वर कि हीरा बनें हम मगर कोयला बन के ही बस रहे जा रहे! रचनाकाल : 4 सितंबर 2022

कर्मयोग

कब कहां मिले किन कर्मों का फल किसे पता साधारण जोड़-घटाने जितने सरल तो नहीं नियम सृष्टि के! फल लग जाते पौधों में कुछ दिन में ही कुछ पेड़ मगर ले लेते हैैं कई साल चक्र है सबका अपना अलग-अलग जीते हैैं बरसों-बरस जीव कुछ लेकिन कुछ का मिनटों का होता है जीवनकाल कौन जाने यह दुनिया चलती है किन नियमों पर? इसलिये नहीं बनता हूं न्यायाधीश कर्म करता हूं अपने हिस्से का ईश्वर को है बेहतर मुझसे मालूम कि क्या है उचित और क्या अनुचित उसका जो भी हो फैसला उसे सिर-माथे पर मैं रखता हूं। रचनाकाल : 30 अगस्त 2022

खतरों का रोमांच

डर लगता था अज्ञात भंवर में कूदूं तो हश्र न जाने क्या होगा! योजना बनाकर जीना लेकिन इतना नीरस लगता है मैं अक्सर तूफानों से भिड़ने सागर में चल पड़ता हूं। बेशक हैैं खतरे जोखिम के अनगिनती डूबा अगर कभी तो मेरी ही होगी सारी जिम्मेदारी पर इतने मोती जुटा चुका हूं अब तक जोखिम के बल पर खतरों के ही संग रहना अब प्रिय लगता है। दरअसल मुझे यह पता चल चुका है रहस्य खतरों का भी होता है अपना ही स्वभाव छल-कपट जरा भी नहीं सहन कर पाते वे नि:स्वार्थ भाव से ही रहना संभव है उनके बीच इसलिये जो भी उनसे पाता हूं, दुनिया को अर्पित करता हूं रहता खतरों से घुल-मिल कर, रोमांचक जीवन जीता हूं। रचनाकाल : 29 अगस्त 2022

अहं ब्रह्मास्मि

जब से मैंने समझ लिया है गणित, सृष्टि के नियमों का सब दूर हो गईं चिंताएं, बेफिक्र हमेशा रहता हूं भय नहीं कि कोई ठग लेगा या लूटेगा मेरे भीतर है छिपा खजाना ऐसा जिसको कितना भी लूटे कोई, हर्गिज वह कभी न कम होगा जिस तरह शून्य से कितना भी ले ले कोई पर शून्य हमेशा बचता है मैं पूर्ण ब्रह्म हूं ऐसा जिसको पूरा भी ले ले कोई तो पूर्ण ब्रह्म ही बचता है। रचनाकाल : 28 अगस्त 2022