Posts

Showing posts from October, 2023

अपने हिस्से का कर्तव्य

साफ नजर आती मुझको उल्टी विकास की धारा लेकिन कितनी भी कोशिश कर लूं यह युगों पुरानी परम्परा होती टस से मस नहीं निराशा मन में छाती जाती है बेचैनी बढ़ती जाती है क्या धरे हाथ पर हाथ देखता रहूं बैठ चुपचाप पतन मानवता का! आती है सहसा याद कहानी रामायणकालीन गिलहरी थी जो नन्हीं सी ही पर सागर में बनते पुल पर नन्हें-नन्हें पत्थर डाल दिया था जिसने अपना योगदान जब उससे पूछा गया कि क्यों थकती है वह करके नगण्य सा काम कहा था उसने यह इतिहास लिखा जायेगा जब था कौन पक्ष में राम, कौन रावण के तब गणना मेरी हो रामचंद्र की सेना में इसलिये शक्तिभर मैं अपना कर्तव्य निभाती जाती हूं। सहसा छंटती है धुंध निराशा मन की मिटती जाती है कर्तव्य नजर जो आता अपने हिस्से का जी-जान लगाकर उसको पूरा करता हूं फल पर देता हूं ध्यान नहीं पर अनायास परिवर्तन दिखने लगता है जो धारा उल्टी दिखती थी बेहद मामूली सही, मगर उसका प्रवाह कुछ थमता है विश्वास प्रबल यह होता है उल्टे विकास की दिशा सही होगी, तय है कि कभी न कभी गंगा को भले भगीरथ लाये धरती पर उनके पुरखों का योगदान क्या कुछ कम था! रचनाकाल : 27-29 अक्टूबर 2023

इंतजार

दुनिया में जारी है रावण का अट्टहास मायावी वह मौजूद हर जगह है लेकिन है रूप बदलने में माहिर जो शस्त्र चलाये जाते हैं उस पर, सारे करते तबाह निर्दोष सभी इंसानों को है कहीं राम का पता नहीं रावण से लड़ने का जो करते हैं दावा वे भी रावण की तरह दिखाई देते हैं पुतला तो मैं हर साल जलाता रहा मगर कद रावण का कैसे बढ़ता ही जाता है? गहराती जाती रात लड़ाई भीषण होती जाती है दिखते हैं रावण ही रावण चहुंओर न जाने राम नजर कब आयेंगे! रचनाकाल : 23-24 अक्टूबर 2023

यूटोपिया

क्या-क्या न संजोये थे दिल में अरमान बदलने को दुनिया सपने कितने ही देखे थे कुछ भी था नहीं असम्भव बस मिल जाय जरा सा समय निपट लूं वर्तमान की चिंता से फिर सपनों की दुनिया रचने को बैठूंगा होगा सबकुछ आदर्श कहीं अन्याय नहीं रह जायेगा सब बिना दण्ड के भय के, खुशी-खुशी से सच्चाई के पथ पर बढ़ने की स्वेच्छा से होड़ लगायेंगे सतयुग जैैसा फिर से आयेगा समय सुखी सब रामराज्य जैसे होंगे! सपनों में ही लेकिन सपने रह गये नहीं हो पाई चिंता वर्तमान की खत्म शक्तियां ही कम होती गईं कभी था जो बलिष्ठ, तन जर्जर होता गया पतन की ओर निरंतर दुनिया बढ़ती रही आज जब लटक रहे हैं पांव कब्र में सोच रहा हूं कहां रह गई गलती क्यों साकार न कर पाया सपने क्या मृग मरीचिका जैसा अपने सपनों में ही जीना हम सब इंसानों की नियति अंतत: होती है? रचनाकाल : 18-19 अक्टूबर 2023

बर्बरता की जीत

बर्बरता बढ़ती जाती है दुनिया में चारों ओर भयंकर उतनी ही बर्बरता से बर्बर लोगों से  लिया जा रहा है पूरा प्रतिशोध नाच नंगा हिंसा का दिन-दिन बढ़ता जाता है। दिल दहल गया था मेरा जब इजराइल पर कर हमला कर दी थी हमास ने सभी क्रूरता पार औरतों-बच्चों के प्रति कोई भी इंसान भला कैसे इतना ज्यादा नृशंस हो सकता है! पर फिलिस्तीन की करके नाकाबंदी जब कर दिया शुरू इजराइल ने फिर वहां कहर बरपाना भूखे-प्यासे बच्चों-महिलाओं को मरते देख तड़पते फिर से दहल गया दिल मेरा अपने समकालीन मनुष्यों की यह देख नराधम हिंसा चुप रह जाना क्या मानवता है? पर पक्ष अगर मैं लूं भी तो आखिर किसका मांगें दोनों की लगतीं मुझको सही पक्ष दोनों पीड़ित, दोनों अपराधी मुझे दिखाई देते हैं! पर सर्वनाश के बीच कहीं क्या नहीं भूमिका मेरी उन इंसानों से क्या अलग हृदय है मेरा यदि छिड़ गया युद्ध मेरे भी कभी वतन में तो होकर क्या इतना ही तटस्थ तब सही-गलत का निर्णय मैं कर पाऊंगा? कंपकंपी छूट जाती है मेरी सहसा ही यह सोच नहीं हूं मैं बनने के लायक न्यायाधीश मुझे तो जो भी पक्ष दिखे पीड़ित बस उसकी सेवा करनी है। प्राणों की बाजी लगा मगर बर्बरता से लड़ते जो दोन