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Showing posts from October, 2020

उन्नति की परिभाषा

जब चूर बदन हो थक कर घोर परिश्रम से तब लगता है दिन आज निरर्थक नहीं गया मैं नहीं चाहता मिले सफलता तुरत-फुरत बस मेहनत करता रहूं सदा घनघोर कि मंजिल आती जब भी निकट नजर चल पड़ता हूं मैं कठिन मार्ग की ओर। हो भले सहज आरामदेह नीचे चलना मैं गहन पर्वतों के शिखरों तक आकर्षक इतना मार्ग बनाऊंगा धारा जो अब तक चली आ रही सुख-सुविधा में नीचे ही बहते जाने की रुख मोड़ उसे मैं त्याग-तपस्या के उत्तुंग शिखर तक लाऊंगा। इसीलिए फल ठुकराता हर एक सफलता का निरंतर करता हूं घनघोर परिश्रम चाहता बदलना उस परिभाषा को चली आ रही जो उन्नति की।

भरपाई

बुरे दिनों से मुझे कोई गिला नहीं दूर से दीखते थे वे जितने भयावह असल में नहीं थे उतने खतरनाक दगा तो मुझे अच्छे दिनों ने दिया है जब उपलब्ध थीं सारी सुविधाएं और बढ़ सकता था मंजिल की ओर रॉकेट की रफ्तार से भी ज्यादा तेजी से   ऐसा भरमाया पर मनोहारी मौसम ने कि चला गया नींद के आगोश में और खुली है आंख जब तो ढल चुकी है सांझ रुकने का तो समय नहीं पर जरा भी छाया हो अंधेरा चाहे घनघोर राहों में बढ़ना ही होगा आगे कालिमा को चीर कर करनी ही होगी उसकी भरपाई समय जो गंवा दिया है, मनोहारी मौसम में।

राम राज्य

कभी-कभी होता हूं क्रोधित जब लगता है भस्म कर दूं दुनिया के सब रावणों को आ जाय सब जगह राम राज्य। लेकिन जब देखता हूंं भीतर तो खुद को ही पाता हूं लैस हथियारों से रावण के पता ही नहीं है कहीं राम का मुखौटे के पीछे सब एक जैसे लोग हैैं ऐसे में खिलाफ लड़े कौन किसके सब जगह तो रावण का राज है? होता है महसूस तब जलाना तो कठिन नहीं पुतले को बेहद कठिन है बनना राम पर बचने की खातिर इस कठिनाई से फूंकते हैैं रावण का पुतला हम सोचते हैैं आ गया है राम राज्य!

नियति नीलकण्ठ की

डरता हूं अपने भीतर के क्रोध से क्योंकि जानता हूूं सिर्फ मैं ही कि वह कितना प्रलयंकारी है इसीलिये बचता उसको छेड़ने से पर देखने में लगता बेहद सहनशील इसीलिये कुछ क्रूर लोग सीमा जब क्रूरता की लांघते हैैं लेते हैैं परीक्षा सहनशीलता की फुफकार उठता है मेरे भीतर का नाग और तत्पर हो उठता है उगलने को अपार विष बेहद कठिनाई से तब रोकता हूं बाहर निकलने से गरल को पीता हूं सारा जहर भीतर ही मुश्किल से बचता हूं मरने से। बचना तो चाहता नहीं नियति से विष पीना यदि नियति है तो ऐसा ही हो आंच नहीं दूसरों पर आये यह चाहता हूं खुद ही झेलूं सारे उसके दुष्प्रभाव कोयला बदलता जैसे हीरे में चाहता हूं दुनिया को अमृत दूं बदले में सारा विष धारण करूं कण्ठ में नियति स्वीकारूं नीलकण्ठ की।

अपनी शर्तों पर

कोशिश तो बहुत की थी बचाने की पर सूख चुका है जीवन रस नहीं बची है इतनी शक्ति कि लिखना जारी रख सकूं कविता छाता ही जा रहा है आंखों के सामने अंधेरा लड़ने में तो नहीं रखी कसर कोई जीतती ही जा रही है मौत पर जानता हूं टेक दूंगा घुटने तो मौत मुझे बख्श देगी अभी भी छोड़ नहीं सकता सिद्धांत पर बेमकसद जीना मंजूर नहीं रहना ही है जिंदा यदि तो जीवन जिऊंगा अपनी शर्तों पर।

लड़ाई अपने आप से

मन इतना बंजर तो कभी नहीं रहा कि लिख ही न सकूं कविता! क्या हो गया है इन दिनों मुझे कि डरने लगा हूं अपने आप से ही ये वो मैं तो नहीं हूं जिसे जानता रहा हूं इतने बरसों से! ये कौन है जो हावी होता जा रहा है मुझ पर अपने दुर्गुणों के साथ! पथराते जा रहे शरीर पर किसने जमा लिया है अपना अधिकार और किये जा रहा है इसे मेरे ही खिलाफ! इतनी भयानक तो कभी नहीं रही लड़ाई कि दुश्मन बनती जाये अपनी देह ही और संजोता रहा जिन सद्गुणों को जीवन भर रौंदती चली जाये उन्हें खुद ही! पाना चाहता हूं पहले जैसी मासूमियत और निर्दोषिता पर करता है भीतर ही कोई राक्षसी अट्टहास और घोंटता ही जा रहा है गला मेरी कविता का!

अजनबी दुनिया में

रुका तो कहीं भी नहीं ज्यादा देर फिर कैसे भटक गया रास्ता? चारों तरफ फैला है मरुस्थल बियाबान और ढलने लगी है सांझ अब तक तो मिल जानी चाहिये थी मानवों की बस्ती पर दूर-दूर तक दिखता नहीं कोई आदमजाद घिरने लगा है अंधेरा और सुनाई देने लगी है निशाचरों की आवाज माहिर हैैं रूप जो बदलने में ओढ़े हैैं मनुष्यों का वेश भी। तो क्या उन्हीं के साम्राज्य के बीच काटनी होगी अब यह रात? सिहर उठता हूं इस आशंका से ही और  बढ़ाता हूं कदम तेज, और तेज पहुंच सकूं ताकि अपने सहजात मानवों की बस्ती तक। दीखता पर कोई नहीं दूर तक होना तो चाहिये था उन्हें यहीं! बेहद हैरान-परेशान हूं कि चले गये आखिर सब लोग कहां मानवता से भरे हुए मानवों को लील गई धरती या निगल गया आसमान?

प्रायश्चित

जैसे ही पूरी करता हूं एक बाधा दौड़ दूसरी सामने आ जाती है जैसे अंतहीन हो श्रृंखला खुश हूं कि मिला है ऐसा सौभाग्यशाली जीवन नीरस लगता जीना बाधाओं बिना डर लगता है सुख-सुविधाओं से हासिल की जाती हैैं जो धरती के शोषण से खड़ा होना चाहता हूं इसीलिये मनुष्येतर जीवों के पक्ष में कर सकूं परिमार्जन ताकि दोषों का अपनी मानव जाति के।

अपराध और दंड

ऐसा नहीं कि अन्याय अत्याचार देखकर मेरा खून नहीं खौलता पर सन्न रह जाता हूं अपने भीतर के विकारों को देखकर और पाता हूं कि बाहर के अत्याचारों से मैं भी कहीं न कहीं नाभिनालबद्ध हंू। लड़ना चाहता हूं भीषण लड़ाई दुनिया की सारी बुराइयों के खिलाफ पर फुरसत ही नहीं मिल पा रही लड़ने से अपने भीतर की बुराइयों से और पाता हूं हर अपराधी के भीतर कहीं न कहीं अपना भी अंश कि की होती कोशिश अगर मैंने प्राणपण से तो हर अपराध को रोक सकता था होने से! इसीलिए करता हूं कोशिश कुछ इस तरह दुनिया को बेहतर बनाने की कि होता है कहीं भी अपराध जब देता हूं दंड अपने आप को जोड़ता हूं खुद को ब्रह्मांड से।

गांधी-जयंती

हार्दिक इच्छा है कि गांधी जैसा बनूं सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलूं पर जितना आसान है यह, कठिन भी है उतना ही पहुंचाता है जब कोई अहं को चोट तो फुफकार उठता हूं और आता है जब नफे-नुकसान का सवाल तो झूठ बोलने से भी नहीं रोक पाता खुद को बेशक इसके पक्ष में जुटा लेता हूं ढेरों तर्क और समझाता हूं अपने आप को दूसरों की तरह कि बदल चुका है आज समय और सम्भव नहीं है गांधी जैसा बन पाना पर जानता हूं भीतर ही भीतर कि समय नहीं बदला है बल्कि बदल गए हैैं हम ही और पीछे बहुत दूर छोड़ आए हैैं गांधी को टांग दिया है दीवार पर और करते हुए उनका स्तुतिगान दे रहे हैैं धोखा अपने आप को बनते ही जा रहे हैैं पाखंडी।