अपराध और दंड


ऐसा नहीं कि अन्याय अत्याचार देखकर
मेरा खून नहीं खौलता
पर सन्न रह जाता हूं
अपने भीतर के विकारों को देखकर
और पाता हूं कि बाहर के अत्याचारों से
मैं भी कहीं न कहीं नाभिनालबद्ध हंू।
लड़ना चाहता हूं भीषण लड़ाई
दुनिया की सारी बुराइयों के खिलाफ
पर फुरसत ही नहीं मिल पा रही
लड़ने से अपने भीतर की बुराइयों से
और पाता हूं हर अपराधी के भीतर
कहीं न कहीं अपना भी अंश
कि की होती कोशिश अगर मैंने प्राणपण से
तो हर अपराध को रोक सकता था होने से!
इसीलिए करता हूं कोशिश कुछ इस तरह
दुनिया को बेहतर बनाने की
कि होता है कहीं भी अपराध जब
देता हूं दंड अपने आप को
जोड़ता हूं खुद को ब्रह्मांड से।

Comments

Popular posts from this blog

गूंगे का गुड़

सम्मान

नये-पुराने का शाश्वत द्वंद्व और सच के रूप अनेक