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Showing posts from September, 2021

सफलता-असफलता

कभी-कभी रह जातीं मेरी कविताएं अनलिखी निरर्थक लगने लगती घण्टों की मेहनत जबरन कुछ लिखता हूं तो बेमतलब सा लगता है होता है कई बार मगर ऐसा भी कुछ ही मिनटों में सुंदर कविता बन जाती है मैं तर्क ढूंढ़ता हूं इसके पीछे का जिससे सदा सफलता हासिल हो असफलता से दो-चार न होना पड़े कभी। मिल पाया मुझको मगर नहीं कोई ऐसा पैटर्न सफलता-असफलता को अलग-अलग कर सकूं जुड़े हैं दोनों ऐसे एक-दूसरे से जैसे सिक्के के हों दो पहलू दिन के साथ जुड़ी हो रात, जुड़ा हो सुख से जैसे दु:ख भी। तब अकस्मात मुझको यह आया ध्यान कि मेरा दृष्टिकोण ही अब तक था एकांगी असफलताओं रूपी जड़ के बिना सफलता का मैं वृक्ष उगाकर फल पाने की इच्छा रखता था दोनों को करने के बजाय स्वीकार हवा में महल बनाने की कोशिश करता था इसके कारण जितना सुख पाने की कोशिश करता था, उतना दु:ख मिलता था सफलता पाने के चक्कर में ही असफलता से डर लगता था। तब से रहता हूं मगन परिश्रम करने में फल जो भी मिलता खट्टा-मीठा, सबकुछ अच्छा लगता है सुंदर कविताओं जितना ही कविता के भीतर रिक्त स्थान भी सुंदर लगता है उसी से अर्थवान बनती हैैं मेरी कविताएं। रचनाकाल : 17 सितंबर 2021

खुद्दारी

अक्सर ऐसा होता है मिट जाती हैैं जब चिंताएं मन बंजर होने लगता है। बेशक मुझको डर लगता है दु:ख होते हैैं जब असहनीय मैं टूट न जाऊं पीड़ा से अवसाद कहीं बर्बाद न कर दे जीवन को भय इसका लगने लगता है पर चिंतामुक्त समय में भी निष्फिक्र नहीं मैं हो पाता मन बेलगाम हो जाने का हरदम डर लगता रहता है। इसलिये शक्ति भर चिंताएं मैं सदा बनाये रखता हूं स्वेच्छा से अपनी क्षमता भर दु:ख सहता हूं है मुझको नहीं पसंद भाग्य का निर्णय मेरे स्वयं अलावा मेरे कोई और करे इसलिये नहीं मौका देता हूं हस्तक्षेप का ईश्वर को अपने कर्मों का फल खुद ही तय करता हूं दु:ख जितना दे सकता हो ईश्वर, उससे ज्यादा सहता हूं सुख पर जितना हक बनता है, हरदम उससे कम लेता हूं सिर नहीं झुकाने की नौबत आती है ईश्वर के आगे वह दोस्त सरीखा लगता है, महसूस मुझे होता मेरी इस खुद्दारी का वह भी आदर करता है। रचनाकाल : 13 सितंबर 2021

अपराध

दु:ख मुझे नहीं असफलता का अफसोस सिर्फ है इतना जितनी मेरे भीतर क्षमता थी कर पाया उतना काम नहीं। अपना कर्तव्य निभा पाता कर सकता था जो, उतना सबकुछ कर पाता तो असफलता भी गरिमामय हो सकती थी अपराधी मैं महसूस नहीं करता खुद को हक मेरा मुझको नहीं दिला पाने से तब ईश्वर ही मेरा कर्जदार बन सकता था। शर्मिंदा हूं अब, कर्जदार हूं ईश्वर का जितनी क्षमता दी मुझको उसका कर पाया उपयोग नहीं विश्वास जताया मुझपर देकर सर्वश्रेष्ठ मानव का तन उस पर मैं खरा उतर न सका चाहता अगर दुनिया को भी डालता बदल पर अपनी कमजोरियां तक नहीं बदल सका। स्वामी बनकर इस काया का धरती को स्वर्ग बना देता बनकर लेकिन अपने दोषों का ही गुलाम बर्बाद स्वयं ही मैंने अपना जीवन सारा कर डाला अब व्याकुल हूं यह सोच कि खुद को हीरा मैं अनमोल बना सकता था पर कोयला बनाकर रख डाला हे ईश्वर मैंने कैसा यह अपराध भयानक कर डाला! रचनाकाल : 9 सितंबर 2021

जहर

जब से मैंने जहर खरीदा, नींद उड़ गई रातों की अहसास नहीं था मुझको इतना होगा असर भयंकर अब यह लगता है फुफकार रहा है सांप कीटनाशक के पैकेट में। विश्वास नहीं था मर जायेंगे इससे सारे मच्छर लेकिन करते ही छिड़काव, मर गये जब वे सारे सचमुच तब से कांप गया हूं जाने किस आशंका से अनहोनी की जब मामूली सा डोज मार देता है सारे मच्छर को कितना घातक होगा वह उससे बच पायेंगे कैसे बाकी जीव-जंतु? आती है सहसा याद खबर कुछ दिन पहले खेतों में चुगते दाना कटी फसल का जब मर गये सैकड़ों पक्षी कैसे बच पायेंगे मानव हम जहरीले होते भोजन से? बेचैनी मेरी बढ़ जाती है फेंकूं कहां जहर को छोड़ा खुले में अगर, पर्यावरण प्रदूषित सारा होगा धरती में गाड़ा तो भूजल जहरीला हो जायेगा! सहसा आते हैैं याद तभी शिवशंकर सागर मंथन से जो उपजा गरल, बचाने खातिर दुनिया को उससे उनके भी पास रहा होगा क्या कोई बाकी और विकल्प सिवा उसको अपने ही भीतर धारण करने के! पर मैं तो हूं कमजोर जानता नहीं कीमियागरी जहर को कैसे अमृत में परिवर्तित करते हैैं! सूझता नहीं पर कोई और उपाय सिर्फ बढ़ती जाती बेचैनी क्या मैं खत्म समूची हो जाने दूं दुनिया को उस विष से धरती पर जो बढ़ता ह

दु:ख खोजा, सुख मिला

जब था अभाव जीवन में, सुख का एक जरा सा कतरा भी मन में अपार खुशियां भर देता था सूखी मिट्टी में बारिश की हल्की फुहार भी अमृत जैसा लगती थी अब हूं साधन-सम्पन्न मगर जीवन नीरस सा लगता है रोमांच बनाये रखने को फिर कष्ट झेलने, जोखिम लेने का मन करता है है अजब त्रासदी घाटी से गिरि शिखर मनोरम लगते थे उत्तुंग शिखर से लेकिन अब घाटी आकर्षित करती है दरअसल नहीं है सुख-दु:ख का अस्तित्व कोई, मन पर ही सबकुछ निर्भर है मन के जीते है जीत, अगर मन हार जाय, लगती हर चीज निरर्थक है जब तक यह समझ नहीं पाया था भेद, हमेशा व्याकुल-विचलित रहता था मृग मरीचिका से सुख के पीछे हरदम भागा करता था अब सहता हूं स्वेच्छा से सब दु:ख-कष्टों को, मन सदा प्रफुल्लित रहता है जब से छोड़ा भागना सुखों के पीछे, सुख परछाईं जैसा मेरे पीछे-पीछे भागा करता है। रचनाकाल : 3 सितंबर 2021

हिंसा और अहिंसा

कोशिश तो पूरी करता हूं हर हालत में स्थिर रहूं मगर होता जब भी अन्याय, देखकर खून खौलने लगता है बरसों के सतत परिश्रम से मन कुछ निर्मल हो पाता है पर आगबबूला होता हूं जब, मैल दबी मन के भीतर की ऊपर झट आ जाती है मैं नहीं चाहता हर्गिज चुप रहना अन्याय देख कर भी प्रतिकार मगर हिंसक हो मेरा, यह भी है मंजूर नहीं बेशक हिंसा में आग भरी होती है उत्तेजक जो मुझको भी आकर्षित करती है होकर भी मैं पक्षधर अहिंसा का, ठण्डापन अपने भीतर नहीं चाहता हूं लाना मेरे भीतर की आग मगर झुलसा न सके औरों को, करने खातिर उसे नियंत्रित अपने गुस्से पर काबू पाने की पूरी कोशिश करता हूं। है आग जरूरी बेहद, उसमें बिना तपे कुंदन भी नहीं निखर पाता मेरे भीतर भी धधक रही जो आग चाहता नहीं बुझे तपता हूं उसमें खुद को खरा बनाता हूं जो आग निरंकुश होकर हिंसा बनकर करती है तबाह मैं उसे नियंत्रित करके ठप्पा लगा अहिंसा पर जो ठण्डेपन का वह धारणा बदलकर परिभाषा को नये सिरे से गढ़ता हूं जिस ऊर्जा के बल पर हिंसा सबकुछ कर देती राख अहिंसा को अपनी मैं उसके बल पर ही दमकाता हूं। रचनाकाल : 31 अगस्त 2021