जहर
जब से मैंने जहर खरीदा, नींद उड़ गई रातों की
अहसास नहीं था मुझको इतना होगा असर भयंकर
अब यह लगता है फुफकार रहा है सांप कीटनाशक के पैकेट में।
विश्वास नहीं था मर जायेंगे इससे सारे मच्छर
लेकिन करते ही छिड़काव, मर गये जब वे सारे सचमुच
तब से कांप गया हूं जाने किस आशंका से अनहोनी की
जब मामूली सा डोज मार देता है सारे मच्छर को
कितना घातक होगा वह उससे बच पायेंगे कैसे बाकी जीव-जंतु?
आती है सहसा याद खबर कुछ दिन पहले
खेतों में चुगते दाना कटी फसल का जब मर गये सैकड़ों पक्षी
कैसे बच पायेंगे मानव हम जहरीले होते भोजन से?
बेचैनी मेरी बढ़ जाती है फेंकूं कहां जहर को
छोड़ा खुले में अगर, पर्यावरण प्रदूषित सारा होगा
धरती में गाड़ा तो भूजल जहरीला हो जायेगा!
सहसा आते हैैं याद तभी शिवशंकर
सागर मंथन से जो उपजा गरल, बचाने खातिर दुनिया को उससे
उनके भी पास रहा होगा क्या कोई बाकी और विकल्प
सिवा उसको अपने ही भीतर धारण करने के!
पर मैं तो हूं कमजोर जानता नहीं कीमियागरी
जहर को कैसे अमृत में परिवर्तित करते हैैं!
सूझता नहीं पर कोई और उपाय सिर्फ बढ़ती जाती बेचैनी
क्या मैं खत्म समूची हो जाने दूं दुनिया को उस विष से
धरती पर जो बढ़ता ही जाता है लगातार!
कोई भी नहीं उपाय दीखता बचने का बस इस कोशिश के सिवा
कि खुद को अनुशासन की आग में तपा, कर डालूं इतना ज्यादा मजबूत
कि बनकर नीलकण्ठ जिंदा रख पाऊं धरती को।
रचनाकाल : 6 सितंबर 2021
अहसास नहीं था मुझको इतना होगा असर भयंकर
अब यह लगता है फुफकार रहा है सांप कीटनाशक के पैकेट में।
विश्वास नहीं था मर जायेंगे इससे सारे मच्छर
लेकिन करते ही छिड़काव, मर गये जब वे सारे सचमुच
तब से कांप गया हूं जाने किस आशंका से अनहोनी की
जब मामूली सा डोज मार देता है सारे मच्छर को
कितना घातक होगा वह उससे बच पायेंगे कैसे बाकी जीव-जंतु?
आती है सहसा याद खबर कुछ दिन पहले
खेतों में चुगते दाना कटी फसल का जब मर गये सैकड़ों पक्षी
कैसे बच पायेंगे मानव हम जहरीले होते भोजन से?
बेचैनी मेरी बढ़ जाती है फेंकूं कहां जहर को
छोड़ा खुले में अगर, पर्यावरण प्रदूषित सारा होगा
धरती में गाड़ा तो भूजल जहरीला हो जायेगा!
सहसा आते हैैं याद तभी शिवशंकर
सागर मंथन से जो उपजा गरल, बचाने खातिर दुनिया को उससे
उनके भी पास रहा होगा क्या कोई बाकी और विकल्प
सिवा उसको अपने ही भीतर धारण करने के!
पर मैं तो हूं कमजोर जानता नहीं कीमियागरी
जहर को कैसे अमृत में परिवर्तित करते हैैं!
सूझता नहीं पर कोई और उपाय सिर्फ बढ़ती जाती बेचैनी
क्या मैं खत्म समूची हो जाने दूं दुनिया को उस विष से
धरती पर जो बढ़ता ही जाता है लगातार!
कोई भी नहीं उपाय दीखता बचने का बस इस कोशिश के सिवा
कि खुद को अनुशासन की आग में तपा, कर डालूं इतना ज्यादा मजबूत
कि बनकर नीलकण्ठ जिंदा रख पाऊं धरती को।
रचनाकाल : 6 सितंबर 2021
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