Posts

दु:ख-कष्टों का आनंद

सब सुविधाओं के बीच, बैठ रमणीक स्थलों पर लगता तो है आसान बहुत कविता लिखना हसरत लेकिन यह होती है आपाधापी के बीच, शोरगुल में रहकर जीवन जैसा जीते हैं हरदम आम लोग वैसा ही जीकर, फिर भी कुछ लिख सकूं अगर सुख अनुपम मिल पायेगा कवि कहलाने में। पर्वत शिखरों के बीच लगाना ध्यान जिंदगी निरासक्त होकर जीना, मुझको आकर्षित करता है जीवन के कोलाहल में पर, दुश्चिंताओं के बीच लगा पाऊं कुछ पल को ध्यान, हो सकूं अनासक्त कोशिश में ही मैं हरदम इसकी रहता हूं। सुंदर लगते हैं फूल मुझे, पर कभी तोड़ता नहीं उन्हें छूने से भी चोटिल वे हो जायेंगे, यह डर लगता है सुख भी ऐसे ही सुखकर तो लगते हैं पर मैं नहीं भोगता उन्हें कि इससे  मैला उनके होने का भय लगता है। रचनाकाल : 9 मई 2024

अज्ञात का रोमांच

डर लगता था पहले मुझको अनजानी सारी चीजों से हर चीज चाहता था कि सुनिश्चित पहले से करके रख लूं संभावित सारी बाधाएं कर दूर सुरक्षित जीवन यह सारा कर लूं। पर होते ही सारी चिंताएं दूर नहीं रह गया कोई रोमांच जिंदगी बोझिल लगने लगी काटना एक-एक दिन दूभर होने लगा इसलिये मैंने फिर से आमंत्रित कर लिया जोखिमों-खतरों को। भयभीत नहीं होता हूं अब बाधाओं से कर लेता सारी चुनौतियां स्वीकार जिंदगी में बढ़ता ही जाता है रोमांच नजरिया जबसे बदल लिया मैंने जिन चीजों में पहले होता दु:ख-कष्ट उन्हीं में सुख अब अनुपम मिलता है। रचनाकाल : 7 मई 2024

उनकी तू-तू मैं-मैं, हिंसा पीड़ित बचपन और हीटवेव का हाहाकार

 जिन्होंने भी सास-बहू की तू-तू मैं-मैं सुनी होगी, वे जानते होंगे कि उनके बीच शब्दों के व्यंग्य-बाण किस तरह छोड़े जाते हैं. एक-दूसरे को नीचा दिखाने के चक्कर में वे अपने तरकश में शब्दों के नायाब तीरों का इजाफा करती रहती हैं! राजनीति में भी लगता है इन दिनों यही हो रहा है. एक-दूसरे को पछाड़ने के लिए नए-नए नुकीले शब्द गढ़े जा रहे हैं. दुनिया के और किसी देश में शायद इस तरह की चटपटी राजनीतिक लड़ाई नहीं होती होगी! कदाचित यह हम भारतीयों की ही विशेषता है कि जहां भी तमाशा होता है, हम मजमा लगा कर देखने लगते हैं और वोट पाने के लालच में हमारे कुछ नेता मसखरों जैसा बर्ताव करने में भी नहीं हिचकते. लेकिन हमारे नेताओं को क्या पता है कि इस नूरा-कुश्ती से देश को कोई लाभ नहीं होगा! उनको पता हो, न हो, जनता को यह पता होना चाहिए कि विकास के असली मुद्दों की कीमत पर रचे जा रहे इस प्रहसन में उसे मजा भले ही आए लेकिन इससे उसका भला होने वाला नहीं है.   भला तो दुनिया में होने वाली लड़ाइयों से बच्चों का भी नहीं हो रहा है. वे दिन हवा हुए जब लोग एक-दूसरे के सुख-दु:ख में सहभागी होते थे. अब कोई मरे या जिये, किसी को कोई फर

वांछित-अवांछित

मैं ये सोचता था कि सृष्टि में सबसे अधिक ज्ञानी बस हम इंसान हैैं दुनिया बनी है हम मनुष्यों के लिये सब पेड़-पौधे, जीव सचराचर कभी जब हो सकेंगे पूर्ण विकसित तब दिखेंगे शायद हम जैसे सभी! किंतु जब तुलना शुरू की गुण अधिक हैैं पास किसके हो गया यह देख करके स्तब्ध सारे जीव सचराचर प्रकृति से ले रहे जितना कहीं उससे अधिक वे दे रहे संसार को बस एक हम ही जीव हैैं जो दे रहे कुछ भी नहीं इस विश्व को नुकसान ही पहुंचा रहे हैैं प्रकृति को! होता अगर है जीव कोई लुप्त दुनिया से असर पड़ता समूची श्रृंखला पर प्रकृति के इंसान लेकिन हम अगर ले लें विदा क्या तनिक भी तब काम दुनिया का रुकेगा? जिस तरह कुछ माह में ही प्रकृति निखरी थी लगा था लॉकडाउन जब कोरोना-काल में लगता मुझे है डर कि धरती चाहती है खत्म हो जायें सभी हम आदमी इस जगत से! जिसको समझते थे प्रकृति में हम अभी तक उच्चतर इंसान हम इस सृष्टि में ही हैैं नहीं क्या निम्नतर? बनकर अवांछित चाहता मैं नहीं जीना धरा पर कोशिश सदा इसलिये करता ले रहा हूं प्रकृति से जितना उसे लौटा सकूं मय ब्याज के। रचनाकाल : 5 मई 2024

ख्वाहिश

ये जो दीखता है पहाड़-सा मैं हूं काम कर चुका ढेर-सा ये न सोचना कि थका नहीं कि हूं बैल मैं इंसां नहीं मुझे कुछ न बदले में चाहिये मैंने जो दिया सब मुफ्त है बस एक छोटी सी अर्ज है कभी जिक्र जब भी चले मेरा चेहरे में ला लेना चमक सम्मान से भर लेना मन मेरी जिंदगी भर की थकन उस वक्त दूर हो जायेगी मेहनत सफल हो जायेगी। मैं ये रहता व्याकुल देखकर कि जो पालती हमें धरती मां बर्ताव उसके ही साथ हमने ये क्या किया बर्बाद पर्यावरण सब क्यों कर दिया? नि:स्वार्थ भाव से फल हमें ये जो देते पौधे-पेड़ सब करते हमारा काम जो दुत्कारते उन्हें बैल कह! मैं नहीं अभी तक बन सका हूं सहनशील उनकी तरह इतनी उपेक्षा इसलिये शायद नहीं सह पाऊंगा कितनी भी कर लूं कोशिशें आखिर तो मैं इंसान हूं जो गुण प्रकृति के पास हैं हासिल उन्हें करने को मुझको जन्म लेने होंगे शायद सैकड़ों! रचनाकाल : 3 मई 2024

बदलाव

  जब रुका हुआ था एक जगह दुनिया भी मुझको रुकी दिखाई पड़ती थी फोटो के केवल एक फ्रेम को देख लगा करता था यह सारी चीजों को जान लिया। अपनी जड़ता का लेकिन जब कुछ भान हुआ महसूस हुआ दुनिया तो आगे निकल गई जो फोटो मैंने अपने मन में खींची थी वह सच्चाई का मात्र एक टुकड़ा ही थी मैं भूल गया था दुनिया का आयाम समय भी होता है जीवंत बनाता है जो सारी चीजों को हर चीज बदलती है दुनिया में पल-पल में फिर कैसे मैं कर सकता हूं फैसला किसी का बीते पल को देख कि वैसा ही होगा वह आने वाले पल में भी! जब से मुझको अहसास हुआ है इस सच का अब नहीं किसी के बारे में कोई धारणा बनाता हूं जो अच्छे हैं, जैसे मैं उनको देख स्वयं भी अच्छा बन पाने की कोशिश करता हूं रखता हूं यह विश्वास कि यदि अच्छाई होगी मुझमें तो जो बुरे अगर होंगे भी तो वे देख मुझे अच्छा बनने की कोशिश करते जायेंगे इसलिये चाहता हूं लाना जो दुनिया में बदलाव उसे अपने ही भीतर लाता हूं मैं अच्छा बनता हूं, दुनिया भी अच्छी बनती जाती है। रचनाकाल : 22-24 अप्रैल 2024

कल्पना और यथार्थ

मैं अक्सर ही कल्पना लोक में कविता संग चला जाता फिर सहसा जैसे खुल जाती हो नींद, चौंक कर लौट आता जीवन के ठोस धरातल पर। ऐसा तो हर्गिज नहीं कि मुझको कवि कल्पना पसंद नहीं पर नहीं चाहता कविता मेरी कटे कठोर हकीकत से जो स्वप्न देखता उसे चाहता हूं यथार्थ में भी बदले आवाजाही दोनों लोकों में होती रहे निरंतर बिना कल्पना जीवन इतना ज्यादा नीरस होता जायेगा जीने के काबिल बहुत दिनों तक नहीं बना रह पायेगा कट कर यथार्थ से मगर कल्पना भी बेदम हो जायेगी हो जायेगी इतनी ज्यादा लिजलिजी कि जीवन से विरक्त हो जायेगी इसलिये चाहता पुल बनना मैं इन दोनों के बीच एक होकर दोनों सम्पूर्ण ताकि बन जायं जिंदगी दोनों बिना अधूरी है। रचनाकाल : 21-22 जुलाई 2023