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Showing posts from August, 2022

असफलता की चाह

पहले डर लगता था मुझको असफलता से अब बिना हुए असफल मिल जाय सफलता तो डर लगता है। दरअसल हुआ महसूस मुझे कई बार बिना असफलता के जब हुआ सफल तो बिना नींव के घर जैसा गिर जाने का डर लगता था जितना होता असफल उतनी होती जातीं मजबूत जड़ें आकाश चूमने से भय लगता नहीं भरभरा कर न कहीं गिर जाऊं अति ऊंचाई से। इसलिये लक्ष्य जितना ज्यादा होता ऊंचा कोशिश करता हूं उतना असफल होने की निश्चिंत भाव से फिर बिल्डिंग बनाता हूं सह सकती है जो भूकम्पों के झटके भी। रचनाकाल : 25 अगस्त 2022

शब्दों की खेती

खेती करता हूं शब्दों की, कविता की फसल उगाता हूं सुख मिलता है अनुपम जब होती बम्पर पैदावार। कई बार मगर पड़ जाता है दुष्काल बाढ़ या सूखे की जब चढ़ जाती हैं भेंट कई कविताएं तब मर जाती हैैं बेमौत निराशा मन में छाने लगती है। कोशिश करता हूं इसीलिये आये न परिस्थिति फिर घनघोर गरीबी की डर लेकिन लगता इससे भी हो जाऊं न अति सम्पन्न कहीं दुख-कष्ट सहन सीमा के भीतर रहें तभी अच्छी कविता बन पाती है। फसलों से भी ज्यादा लेकिन रखना पड़ता है ध्यान खेत की बनी रहे उर्वरता होने पाये कहीं न बंजर वह केमिकलयुक्त उर्वरकों से इसलिये साधता हूं शरीर को यम-नियमों का पालन कर बचता हूं चमक-दमक से नकलीपन की हो माहौल प्राकृतिक सहज तभी पौष्टिक कविता बन पाती है जो दुनियाभर को पोषण दे, मुझको भी कर दे मंत्रमुग्ध। रचनाकाल : 23 अगस्त 2022

उम्मीदों के दीप

जब हार मान जाता था मैं आसानी से प्रतिकूल प्रकृति भी रहती थी मुझसे हरदम लगता था मुझको, दोष नहीं मेरा कोई जब सारी चीजें हों खिलाफ तो मैं ही क्या, कोई भी क्या कर सकता है! नदियों की बहती धारा को पर्वत शिखरों की ओर भला कौन मोड़ फिर सकता है? लेकिन जब से ठाना हूं दीपक की लौ सा उम्मीदों को हर हाल में ऊपर रक्खूंगा कितनी भी आ जाये प्रतिकूल परिस्थिति पर जब तक जीवित हूं, हार न हर्गिज मानूंगा अद्भुत है घोर अंधेरे में भी राह सूझती जाती है बाधाएं पैदा करती थी जो प्रकृति कभी अब खुद ही वह रौशनी दिखाती जाती है। रचनाकाल : 21 अगस्त 2022

कविता बनता जीवन

दिनचर्या जब व्यस्त हुई तब अक्सर ऐसा होता था कविता लिखने की खातिर मुझको समय नहीं मिल पाता था मन रहता था दिनभर अशांत, चिड़चिड़-चिड़चिड़ सा करता था सुर-ताल बिगड़ जाते थे मैं बेसुरा स्वयं को लगता था। सहसा ही फिर यह लगा कि जो भी करता हंू उन सारे कामों को कविता जैसा ही क्यों न बना डालूं जो भी हिस्से में काम आये, बेमन से करने के बजाय सम्पूर्ण प्राणपण से होकर तल्लीन क्यों न वह पूर्ण करूं! अद्भुत इसका यह हुआ असर, जो भी अब करता हूं लयबद्ध सभी कुछ लगता है सच कहूं अगर तो व्यस्त रहा निर्माण कार्य में जिसके कई महीनों से, अपना वह घर मुझको अब सुंदर कविता जैसा लगता है। रचनाकाल : 17 अगस्त 2022

आजादी और अनुशासन

पुरखों ने दी थी आजादी मैंने होकर स्वच्छंद निरंकुशता में उसे बदल डाला होकर अनुशासनहीन तोड़ कर नियम-कायदे सारे मुझको लगा कि मैंने हासिल कर ली स्वतंत्रता! शर्मिंदा हूं अपने ऊपर सम्मान नहीं कर पाया अपने पुरखों के बलिदानों का बाहर से हूं आजाद मगर भीतर से होना बाकी है जिसके अभाव में आजादी बन जाती आवारागर्दी अपने भीतर अब तक वैसा अनुशासन लाना बाकी है रचनाकाल : 15 अगस्त 2022

आजादी

खुशनसीब थे पूर्वज जिनके आगे था सुस्पष्ट लक्ष्य आजादी हासिल करने का मैं अक्सर जाता भूल सभी सुख-सुविधाओं के आगे आखिर मकसद क्या है जीवन का? डरता हूं लक्ष्यविहीन जिंदगी कहीं न बन जाये शोषण का कारण मुझसे पाने खातिर आजादी करना न पड़े संग्राम किसी को अक्स न आ जाये मेरे भीतर भी अंग्रेजों का! रचनाकाल : 14 अगस्त 2022