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Showing posts from February, 2024

तपस्या बनाम परिश्रम

कल देखी मैंने जब ‘बारहवीं फेल’ फिल्म याद आई मुझको रामायण की चौपाई जो रामचरितमानस में लिख गये बाबा तुलसीदास कि ‘तपबल रचइ प्रपंचु बिधाता, तपबल बिष्नु सकल जग त्राता तपबल संभु करहिं संघारा, तप तें अगम न कछु संसारा’ सहसा अर्थ समझ में आया किसको कहते लोग तपस्या थे। है ऐसी कोई चीज नहीं, हो जिसे असम्भव पाना श्रम के बल पर करके ही अपार तप देव-असुर सब शक्ति अलौकिक पाते थे गीताजी का तो अनासक्ति का योग सिखाता है यह जब निष्काम भाव से करते हैं हम काम प्राण-पण से तब ईश्वर भी ऐसे लोगों की इच्छा के अधीन हो जाता है इंसान उसी स्तर पर जाकर भगवानों का अवतार रूप बन पाता है। होता है दु:ख घनघोर देख कर यह कि शक्ति हम रखते हैं बन पाने की भगवान मगर कितनी आसानी से कर देते हैं जीवन बर्बाद कौन बन पाने की भगवान कहे इंसानों के भी स्तर से नीचे गिरकर क्यों कुछ लोग हमारे ही समाज के भीतर से शैतान रूप बन जाते हैं? रचनाकाल : 25 फरवरी 2024

अनगढ़ता और विनम्रता

जब कुशल नहीं था लिखने में मन रहता भाव-विभोर हुआ करती थी हसरत कितना अच्छा हो यदि कागज पर यह भाव उतार सकूं! पर सिद्धहस्त जितना ही होता गया भाव मन के कम होते गये सजा लेता हूं कविता को तो अब भरपूर मगर दिल को पहले की तरह नहीं छू पाती है! इसलिये चाहता हूं फिर से अब थोड़ी सी अनगढ़ता ताकि न आये पास कुटिलता बन पाना सम्पूर्ण कठिन तो है बेशक लेकिन उससे भी ज्यादा कठिन हुआ करता है मन को अहंकार से रहित बनाये रख पाना अपनी अपूर्णता का होने से भान उपजती है मन में जो विनम्रता होने पर भी परिपूर्ण सरल पहले जैसा ही रह पाना! रचनाकाल : 23 फरवरी 2024

साधन और साध्य

अर्जुन की तरह निगाहों में तो सिर्फ लक्ष्य ही रखा नहीं कुछ देखा इधर-उधर बस अंधाधुंध दौड़ता गया गलत फिर कहां हुआ ये मंजिल क्यों अनजानी जैसी लगती है? घर से निकला था लेकर लक्ष्य कमाने का ही पैसा इससे जैसे भी बन पड़ा संपदा मैंने हासिल कर ली तो फिर मन क्यों अब अपराधबोध से भरा दिखाई पड़ता है? जब पैसा पास नहीं था तब सहता था कष्ट अनेक आज पर धन है जब भरपूर रोग भी उतने ही बढ़ गये हजारों दोस्त-यार बन गये मित्र पर सच्चा कोई नहीं हमेशा मन क्यों विचलित रहता है? शायद मैंने साधन की अनदेखी करके बस नजर साध्य पर रख करके गलती कर दी होता यदि साधन सच्चा तो धन इतना कष्ट नहीं देता मुझको करके अपना गुलाम मालिक की जगह नहीं लेता! इसलिये लक्ष्य की चिंता को अब छोड़ साधनों की शुचिता का रखता हरदम ध्यान हमेशा रहता मन संतुष्ट समझ में आता जाता है रहस्य गीता में जो भगवान कृष्ण ने कर्मयोग का ज्ञान दिया। रचनाकाल : 21-22 फरवरी 2024

मेहनत का धन

पहले जब धन मिल जाता मेहनत बिना बहुत खुश मैं हो जाया करता था संतुष्टि नहीं पर मिल पाती थी उससे मेहनत से आता जो पैसा उससे पहले जैसी खुशी नहीं मिल पाती थी। इसलिये मिलावट करना मैंने छोड़ दिया यह समझ गया जो मिलता मेहनत बिना चुकानी पड़ती उसकी कीमत मेहनत के धन को है दुनिया में अतिरिक्त कहीं कुछ नहीं मुफ्त का माल समझ दरअसल उड़ाते हम जिसको उसकी भरपाई करता कोई अपने खून-पसीने से खाई बढ़ती जाती समाज में इससे होते हैं अमीर जब पहले से ज्यादा अमीर तब निर्धन भी पहले से ज्यादा निर्धन होते जाते हैं दिखते हैं दु:खी दरिद्र हमें बाहर से पर सच तो यह है जो निर्धन की कीमत पर बनते धनी सुखी मन से तो वे भी कहां कभी रह पाते हैं ! रचनाकाल : 12 फरवरी 2024

अधूरा सच

वे लोग बहुत ही भोले थे जो कर लेते थे भूत-प्रेत या जिन्नों पर विश्वास उन्हें समझाता था कह इसे अंधविश्वास मगर यह सन्न रह गया देख कि जो हैं पढ़े-लिखे जिनको लगता कोई है नहीं अदृश्य शक्ति वे बुरी तरह करते हैं दोहन धरती के संसाधन का। मैं नहीं चाहता लोग रहें अज्ञानी लेकिन अधकचरा यह ज्ञान कर रहा है इतना नुकसान कि इससे बेहतर तो अज्ञानीपन ही लगता है! है मुझे पता क्यों ऋषि-मुनियों ने पर्वत शिखरों पर ही सारे देवस्थान बनाये थे तुलसी-पीपल को पूजनीय माना कि बहाने इसके पर्यावरण हो सके संरक्षित नदियों को पावन कहा कि कोई करे प्रदूषित नहीं उन्हें जो नहीं पहुंच पायें विचार के उच्च शिखर पर वे भी पर्वत-जंगल सबको देव मान कर सकें प्रकृति का संवर्धन। इसलिये बहाने चाहे जिस जो पर्यावरण बचाते हैं करते हैं पत्थर की पूजा उनके मन का विश्वास तोड़ता नहीं जिन्हें है पता कि ईश्वर का दैहिक अस्तित्व नहीं उनको कोशिश करता हूं पूरी सच्चाई बतलाने की। जो नहीं जानते कुछ भी या फिर जिन्हें पता है सबकुछ उनसे तो रहता निश्चिंत मगर जिनको है पता अधूरा सच, मुझको उनसे डर लगता है। रचनाकाल : 5-6  फरवरी 2024

भय जहं होय न प्रीति - 2

लगता था पहले मुझे कि पशुबल ही करता है राज समूची दुनिया में जंगल का हो कानून लड़ाई या हो हम इंसानों की ताकतवर ही तो सदा जीतता दिखता है! पर जब से चलना शुरू किया उन लोगों के आदर्शों पर मानवता को जिन लोगों ने उच्चतम शिखर पर पहुंचाया अहसास हुआ भय जहां कहीं भी होता है हो सकती हर्गिज प्रीति वहां पर नहीं कभी। तब से ही डरना छोड़ दिया निर्भय रहता हर हालत में लोगों से भी निर्भय होने को कहता हूं जो डर के मारे आदर पहले करते थे पर गाली अपने आगे देते रहते थे तारीफ पीठ के पीछे अब वे करते हैं ताकतवर हैं जो बाहर से वे भी अब मेरे मन की शक्ति समझते हैं पशुबल करता है राज समूची दुनिया में पर मन का बल ही सब लोगों के मन पर शासन करता है। रचनाकाल : 1  फरवरी 2024

भय बिनु होय न प्रीति! - 1

बलहीन व्यक्ति हो अगर अहिंसक भी तो कायर उसको सभी समझते हैं इसलिये चाहता हूं मैं सारी चीज सीखना क्षमता हासिल करना फिर भी जीना सरल तरीके से। आती थी जब तक नहीं चलानी मुझे कार या बाइक सबको लगता था मजबूरी में ही मैं साइकिल चलाता हूं मैं तो हूं अब भी वही, साइकिल भी है मेरी वही नजरिया लोगों का पर बदल गया ले लिया, चलाना सीख गया जब कार साइकिल का मेरी सम्मान सभी अब करते हैं! जब तक आती थी नहीं मुझे अंग्रेजी हिंदी के प्रति मेरा प्रेम सभी को ढोंग सरीखा लगता था अब भी मैं करता हूं प्रचार वैसा ही अपनी हिंदी का पर जान गये सब जबसे आती है मुझको अंगरेजी मेरी हिंदी भी अब उन्हें प्रतिष्ठित लगती है! है अजब त्रासदी जब तक था विषहीन मारते थे सब पत्थर मुझे निरापद जान किसी को डसता तो हूं नहीं अभी भी लेकिन जब से किया इकट्ठा जहर सभी अब मेरा आदर करते हैं! रचनाकाल : 30-31 जनवरी 2024