अनगढ़ता और विनम्रता


जब कुशल नहीं था लिखने में
मन रहता भाव-विभोर
हुआ करती थी हसरत
कितना अच्छा हो यदि
कागज पर यह भाव उतार सकूं!
पर सिद्धहस्त जितना ही होता गया
भाव मन के कम होते गये
सजा लेता हूं कविता को तो अब भरपूर
मगर दिल को पहले की तरह नहीं छू पाती है!
इसलिये चाहता हूं फिर से
अब थोड़ी सी अनगढ़ता
ताकि न आये पास कुटिलता
बन पाना सम्पूर्ण कठिन तो है बेशक लेकिन
उससे भी ज्यादा कठिन हुआ करता है
मन को अहंकार से रहित बनाये रख पाना
अपनी अपूर्णता का होने से भान
उपजती है मन में जो विनम्रता
होने पर भी परिपूर्ण
सरल पहले जैसा ही रह पाना!
रचनाकाल : 23 फरवरी 2024

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