Posts

Showing posts from November, 2020

मंजिल से दूर

मन व्याकुल है क्यों रह जाता कमजोर हमेशा पहुंच नहीं पाता मानवता के शिखरों तक टिमटिमा रहे जो महापुरुष दैदीप्यमान नक्षत्रों से क्यों दूर निरंतर होते जाते हैैं? चाहता हमेशा काम करूं ऐसे कि कर सकूं नाज स्वयं पर होता बेहद पीड़ादायक अपनी ही नजरों में गिरना फिर बार-बार क्यों पांव डगमगा जाते हैैं? जो गुजर चुके इन रस्तों से सदियों पहले खोते जाते पदचिह्न धुंधलके में उनके चलने की कोशिश में उनके आदर्शों पर ये पैर लड़खड़ा कर पीछे रह जाते हैैं भीतर के कूड़े-कचरे को करता रहता हंू साफ मगर पल भर को भी चूकते नजर ही मन मैला हो जाता है मानवता के उच्चतम शिखर धुंधलाते जाते हैैं मन व्याकुल है जिन आदर्शों को पाने को क्यों दूर निरंतर होते जाते हैैं?

दुनिया उस पार की

हर आदमी के भीतर होते हैैं जैसे कई आदमी ऐसे ही इस एक दुनिया में समाये हैैं अनंत विश्व जैसे ही बदलती मनोदशा बदल जाती दुनिया को देखने की दृष्टि भी देख कर अभिभूत हूं कि बढ़ता हूूं जितना ही आगे शिखर की ओर आते ही जाते हैैं सामने अद्भुत दुनिया के रंग चाहता हूं सबको दिखाना दुनिया अद्भुत दीखती जो गहन गिरि शिखरों से रास्ता तो बेशक दुरूह है कांटे पग-पग पर हैैं चारों तरफ भरे हिंस्र जानवर लेकिन सपनीली है दुनिया उस पार की इसीलिये चाहता हूं पार करना सारी कठिनाइयां लेकर सबको चलना कांटों भरी राह से उस अद्भुत लोक में।

खुद्दारी

ऐसा नहीं कि मुझे अपने परिश्रम का फल मिल ही जाता है तुरंत अब तो बड़ी से बड़ी क्षति को भी सह लेता हूं मैं धैर्य के साथ पर अनायास ही जब कुछ मिल जाता है छप्पर फाड़ कर हो जाता हूं तब अशांत बेहद सह नहीं पाता एक पाई भी बिना मेहनत की कमाई की इसीलिये होता है हासिल जब मेहनत की तुलना में ज्यादा फल करता हूं परिश्रम और घनघोर बन सकूं ताकि उस फल के योग्य भारी मुझे लगता है बोझ अहसानों का बनना नहीं चाहता हूं कर्जदार ईश्वर का।

रात और दिन

संकट जितना ही गहराता है लड़ाई भीषण होती है उतनी ही मजा भी पर आ रहा है उतना ही! इतना रोमांच तो कभी न था जीवन में! व्यर्थ ही डरता रहा तकलीफों से अनदेखी रह जाती एक अद्भुत दुनिया नहीं कूदता अज्ञात में तो घूमता रह जाता गोल दायरे में अदा करना चाहता हूं शुक्रिया दुख-तकलीफों का नीरस रह जाता जीवन इनके बिना वंचित रह जाता देख पाने से मौत की विकरालता में छिपा है जो प्रलयंकारी सौंदर्य अनुपम है शिव का ताण्डव नृत्य जीवन अधूरा है जिसके बिना मिट्टी में गहरी जमी जड़ों से ही होता है वजूद जैसे गगनचुंबी वृक्षों का गहरी काली रात की ही कोख से उदय होगा जीवनदायी सूर्य का।

दीप पर्व

वे सरल हृदय थे लोग नहीं था जिनके भीतर तमस भरा वे दीप जला दीवाली में तम दूर भगाया करते थे छुप कर जा बैठा अंधियारा अब भीतर मन के कोने में मैं कैसे उसको दीप जला कर दूर करूं? हर रोज परिश्रम करता हूं तम छंटता है कुछ, रोज जरा जैसे ही गाफिल होता पर छा लेता यह अंतर्मन को लगता हैै मुझको महाकठिन संग्राम जीतना भीतर बैठे रावण से। देती हैैं पर हौसला दीप पंक्तियां कि हासिल होगी विजय कभी न कभी जब हारेगा तम भीतर का जब विगलित होगा अहंकार जब सरल हृदय बन जायेंगे सब लोग उजाला छायेगा जब बाहर भी और भीतर भी उस रोज मनाना हो जायेगा सफल दिवाली भी।

युद्ध और शांति काल

घनघोर अंधकार से रात भर के संघर्ष के बाद जब दीखने लगता है भोर का उजाला थक कर सो जाता हूं और जब खुलती है आंख तो ढल रही होती है सांझ और फिर शुरू हो जाती है लड़ाई अंधेरे के साम्राज्य से। सोचता हूं बार-बार कि दिन के सुनहरे उजाले में तेजी से बढ़ूंगा मंजिल की ओर पर खत्म होते ही सारे संघर्ष घेर लेती है नींद, हर बार। इसी तरह सोते हुए बीतता है शांतिकाल घिरते ही रात काली लड़ता हूं लड़ाई भीषण टूटता ही नहीं यह क्रम चला आ रहा जो सहस्राब्दियों से।

मूल्यांकन

कच्चा रह जाता हूं कई बार पढ़ने में लोगों के मन की बात होती हैैं ध्वस्त अक्सर धारणाएं बनाता जो लोगों के बारे में रह जाता दंग यह देखकर कि मेरे दृष्टिकोण से लगते जो गलत पूरी तरह थे अपने नजरिये से सही हैैं वे एकदम। चाहता हूं इसीलिये छोड़ना लोगों का मूल्यांकन करना अपनी सीमित दृष्टि से ठीक ही कहा है निदा फ़ाज़ली ने रहते समाये हैैं भीतर हर एक आदमी में दस-बीस आदमी करता हूं भरोसा हर आदमी के सबसे अच्छे रूप पर होती है क्षमता जिसके भीतर दुनिया बदलने की।

नाजुक और कठोर

बेशक मैं चाहता हूं कविताएं कोमल हों लेकिन नहीं सह सकता जीवन की कठोरता से कटी हों फूलों सी नाजुक जरूर हों लेकिन हों इतनी मजबूत भी कि चूर-चूर कर सकें चट्टानों को। इसीलिये सहता प्रहार भीषण झेलता हूं सारी कठोरता उतनी ही भीषण पर लड़ता हूं लड़ाई अपने भीतर भी कि झुलस कर भी बंजर रेगिस्तान में बन न सकूं कांटेदार कैक्टस अपने जीवन रस से सींच कर हर लूं सारी बंजरता फूलों सी नाजुक और पत्थर से भी मजबूत लिख सकूं कविता।