मंजिल से दूर
मन व्याकुल है क्यों रह जाता कमजोर हमेशा पहुंच नहीं पाता मानवता के शिखरों तक टिमटिमा रहे जो महापुरुष दैदीप्यमान नक्षत्रों से क्यों दूर निरंतर होते जाते हैैं? चाहता हमेशा काम करूं ऐसे कि कर सकूं नाज स्वयं पर होता बेहद पीड़ादायक अपनी ही नजरों में गिरना फिर बार-बार क्यों पांव डगमगा जाते हैैं? जो गुजर चुके इन रस्तों से सदियों पहले खोते जाते पदचिह्न धुंधलके में उनके चलने की कोशिश में उनके आदर्शों पर ये पैर लड़खड़ा कर पीछे रह जाते हैैं भीतर के कूड़े-कचरे को करता रहता हंू साफ मगर पल भर को भी चूकते नजर ही मन मैला हो जाता है मानवता के उच्चतम शिखर धुंधलाते जाते हैैं मन व्याकुल है जिन आदर्शों को पाने को क्यों दूर निरंतर होते जाते हैैं?