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Showing posts from July, 2021

विषम से यात्रा सम की ओर

शुरू-शुरू में तो मैंने  तप किया बहुत घनघोर मगर अब थक जाता जब बुरी तरह  तो साथ छोड़ती है कविता मन कर्कश होने लगता है जब तार बहुत ढीले थे मन वीणा के तो  सुर नहीं निकलता था सुमधुर अब ज्यादा कस देता हूं तो  स्वर लहरी फटने लगती है हों महावीर या बुद्ध सभी की  नियति यही होती शायद घनघोर तपस्या से ही मिलता ज्ञान मगर  फिर सम पर आना पड़ता है होता है कोई बिंदु एक  जिसके आगे अति वर्जित होती है। मैं भी चलता हूं साध संतुलन  तनी हुई उस रस्सी पर जिसके है दोनों तरफ खुदी गहरी खाई है सरल बहुत चलना उस पर  हो सरल अगर मन तो लेकिन जो जितना होता जटिल, कठिन उसकी खातिर  चलना उस पर हो जाता है मैं अर्जित सभी जटिलताओं को छोड़  सरल फिर से होने की कोशिश करता हूं बीहड़, दुर्गम, गिरि-गहन मार्ग को छोड़  सहज सीधे पथ को अब चुनता हूं बेशक है सम का मार्ग बहुत संकरा जिस पर  एकाग्र चित्त से चलना पड़ता है यदि ध्यान जरा भी भटका तो  गहरी खाई मेंं गिरने का डर रहता है लेकिन उस चलने में है जो आनंद,  कहीं मिल पाता है वह और नहीं उसी के लालच में अब सहज-सरल तलवार सरीखी तेज धार पर चलता हूं संतुलना साध कर मृत्यु और जीवन की पतली रेखा पर अद्भुत

वंचितों के पक्ष में

मेहनत के अतिरिक्त जरा भी मिलता है जब कुछ मुझको मन भर जाता अपराध बोध से उन्हें याद कर जिन्हें नहीं मिल पाता फल अपनी मेहनत का भी। बेशक सबको फल मिल जाता तत्काल सभी कर्मों का दुनिया होती इतनी सरल कि जैसे दो और दो मिलकर होते हैैं चार कहीं होते न गिरि शिखर, होती कहीं न खाई दुनिया अंतहीन दिखती समतल मैदान तो शायद नीरस कुछ-कुछ हो जाती लेकिन जब पर्वत शिखरों के मन में, आ जाये यह अभिमान कि वे हैैं श्रेष्ठ घाटियों की तुलना में सुंदरता तब हो जाती है नष्ट विविधता की। मैं नहीं चाहता दुनिया को कर दूं समतल मैदान मिटाने खातिर लेकिन अहंकार गिरि शिखरों का लेता हूं पक्ष हमेशा गहरी खाई का गिरि शिखरों को हो जाये यह अहसास घाटियों के बल पर ही उनका है अस्तित्व नम्रता से सीखें वे झुकना मस्तक ऊंचा रहे हमेशा वंचित जन का करता इसीलिये मैं मेहनत का फल लेने से इंकार छिन गयी है गरिमा जो भाग्यहीन लोगों की जिनका सबसे नीचे होने से, होता आया है तिरस्कार उनके जैसा जीवन जीकर कोशिश करता हूं स्वाभिमान उनका लौटाने की।   रचनाकाल : 29 जुलाई 2021

ईश्वर और अनुशासन

मैं नहीं चाहता करूं खुशामद ईश्वर की मुझ पर वह कृपा विशेष करे, मंजूर नहीं ईश्वर मुझको अच्छा लगता है इसीलिये वह नियम तोड़ता नहीं कभी अनुशासन कायम रखता है मैं भी खुद को चाहता रखूं अनुशासित, तोडूं नियम नहीं आदर्श मुझे अपना ईश्वर बस इसीलिये ही लगता है फिर कैसे सह सकता मैं कोई भेदभाव ईश्वर यदि कोई पक्षपात करता है मेरे प्रति तो वह औरों के भी तो साथ वही कर सकता है! इसलिये प्रार्थना करता ईश्वर से बस यह नियमों से हट कर परे मुझे कुछ मत देना निष्पक्ष बने रहना सदैव सब के प्रति ही चाहूं मैं बनना सदा तुम्हारे जैसा ही आदर्श मेरा खण्डित न कभी होने देना। रचनाकाल : 27 जुलाई 2021

बढ़ती उम्र, ठहरता जीवन

गलतियां बहुत मुझसे पहले भी होती थीं एहसास मगर तब मरा नहीं था खुद को गलत समझने का कर सकूं भले न सुधार मगर कोशिश तो इसकी करता था अपनी अपूर्णता का रहता था भान नहीं होने पाता था अहंकार हावी मेरे मन के भीतर फुरसत ही मिलती थी न कभी इतनी कि दूसरों की गलतियां निकाल सकूं। ज्यों-ज्यों पर बढ़ती उम्र, भयानक ऐसा होता जाता है अपनी सारी गलतियों को सही ठहराने की खातिर मन अब गढ़ लेता है तर्क नये ही रोज-रोज अपराधी नहीं बल्कि अब खुद को पीड़ित लगने लगता हूं घटती जाती नम्रता, निरंतर होता जाता आक्रामक गलतियां दूसरों की निकालता ढूंढ़-ढूंढ़, धज्जियां उड़ाता उनकी खुद को बड़ा दिखाने की खातिर बाकी सबका कद छोटा करता जाता हूं जिन दुर्गुणों के लिये भय लगता था बचपन में कुछ बूढ़ों से हे ईश्वर, मैं भी वैसा खूसट बुड्ढा होता जाता हूं! रचनाकाल : 23 जुलाई 2021

मरुस्थलों की खोज

अच्छा लगता है मुझको भी रहना अच्छे लोगों के ही बीच जहां अच्छाई का बदला मिलता अच्छाई से सपने मैं देखा करता हूं ऐसे समाज के ही जिसमें द्विगुणित हो-होकर अच्छाई ऐसी मिसाल बन जाय, रहे जो याद हमेशा की खातिर। जाने पर क्यों मैं खिंचा चला आता हरदम ऐसे लोगों के बीच जिन्हें अहसान फरामोशी की आदत है अच्छाई कोई करता तो, उनको लगता वह डर के मारे करता है जो इतने कांटेदार बन चुके जाय कोई नजदीक अगर तो उसको घायल करते हैैं। होकर भी मैं क्षत-विक्षत, भलाई उन लोगों की करता हूं फोड़ता निरंतर पत्थर पानी लाने को, रखता मन में उम्मीद मरुस्थल हारेगा मेरे जीवन रस के आगे बंजर जमीन पर भी सुंदर उपवन मैं कर लूंगा तैयार कभी न कभी। जाने बैठा है कौन मेरे भीतर जो मुझको रुकने देता नहीं कभी अच्छे लोगों के बीच काटने देता मुझको फसल नहीं उर्वर जमीन पर खिंचा चला आता बरबस बंजर जमीन बंजर लोगों के बीच बहाता खून-पसीना अपना, उर्वरता लाने की खातिर लेकिन आते ही हरियाली चल पड़ता हूं फिर से आगे की ओर खोज में नये मरुस्थल की! रचनाकाल : 19 जुलाई 2021

आदमी और पेड़-पौधे

अक्सर मुझको मानव भी पेड़ों के जैसे लगते हैं  कुछ लदे फलों से होते हैं, कुछ कांटों से कुछ घास-फूस की तरह निरापद होते हैं। चिंता मुझको यह होती है फलदार पेड़ संख्या में कम होते जाते हैं लगातार  साम्राज्य निरंतर बढ़ता जाता  नागफनी के जंगल का। जो हरे-भरे पेड़ों-खेतों से घिरे हुए  दशकों पहले तक गांव मनोहर लगते थे  अब दिखती जगह-जगह पर कांटेदार बाड़ मन भी कांटों के जैसा सबका तीखा होता जाता है  बंजर होती जाती है जैसे भूमि निरंतर  मन भी सबका बंजर होता जाता है। सपना मेरी आंखों में है जो  हरे-भरे लोगों का, बाग-बगीचों का  पूरा करने की कोशिश में मैं उसको बंजर जमीन को देता हूं प्राकृतिक खाद बंजर लोगों को रक्त स्वयं का देता हूं  होता जाता हूं लथपथ खून-पसीने से कोशिश करता जी-तोड़  कि बढ़ने पाये नहीं मरुस्थल भीतर-बाहर का तन-मन कांटों से बिंधता जाता है लेकिन  सपने को पूरा करने की कोशिश में मैं  होकर भी लहूलुहान निरंतर आगे बढ़ता जाता हूं  रचनाकाल : 16 जुलाई 2021

प्रार्थना की जरूरत

प्रार्थना की जरूरत उस समय नहीं होती जब आप करते रहें  सबकी भलाई बदले में मिलती रहे सबकी तारीफ और पाकर उससे प्रोत्साहन बनाते रहें आप दुनिया को निरंतर और भी बेहतर। उस समय होती है प्रार्थना की जरूरत जब किसी बेहतरीन काम के बदले में कर रहे हों आप भारी प्रशंसा की अपेक्षा और बदले में सुननी पड़े जबर्दस्त आलोचना तब मांगनी पड़ती है ईश्वर की सहायता कि ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति में भी आने न पाये मन में कटुता। उस समय नहीं होती प्रार्थना की जरूरत जब आप कर रहे हों किसी की मदद लेकिन मदद पाने वाला ही जब करने लगे आप पर प्रहार तो मांगनी पड़ती है मदद ईश्वर की कि ऐसे कठिन मौके पर भी साथ छोड़ने न पाये न्याय-बुद्धि अपने दुश्मनों के प्रति भी होने न पाये अन्याय कोई बेशक अंजाम इसका कारुणिक भुगतना पड़ता आपको कि होता बंटवारा जब तो दुश्मन बन जाता छोटा भाई भी ऐसे में जिद जब पकड़ते हैं आप यह कि अपने दुश्मन भाई के साथ भी होने न पाये अन्याय कोई तो त्यागने पड़ते हैं प्राण आपको स्वजनों के हाथों ही कि स्वार्थी समाज में जब भी हठ पकड़ता यह गांधी कोई हिस्सा मिले हक का पाकिस्तान को तो अपनों की गोली ही जान उसकी लेती है हमेशा । रच

घुसपैठिया

मैं क्रोधानल के चक्रव्यूह में सिर्फ जानता घुसना कैसे निकलूं बाहर बिना क्षत-विक्षत हुए मुझे मालूम नहीं। हर बार यही होता है जब मैं गुस्से में आपे से बाहर होता हूं चाहूं कितना भी करना खुद को शांत नियंत्रण ही रह जाता नहीं स्वयं पर अहंकार जाने कैसा मुझ पर हावी हो जाता है। उन चंद क्षणों में इतना ज्यादा मैं कठोर हो जाता हूं चाहे हो जाये सर्वनाश पर लेता हूं जिद पकड़, झुकूंगा नहीं इधर से उधर समूची दुनिया चाहे हो जाये। कुछ देर बाद जब गुस्सा होता शांत समूची दुनिया तो रहती है अपनी जगह मगर मेरे भीतर सब उलट-पुलट हो जाता है क्रोधानल से कोमल भाव सभी जल जाते हैैं जो अहंकार हावी था वह पाकर खुराक अपनी, फिर से सो जाता है पर मीलों पीछे कर देता है, मेरी मानवता को बरसों पहले चला जहां से था फिर वहीं दुबारा खड़ा स्वयं को पाता हूं। लड़ता हूं अपने भीतर पैठे दानव से मैं लगातार जो हावी हो मेरे शरीर पर मुझे पराजित करता है घुसपैठिया कोई कब्जा कर ले मेरे घर पर तो उसे निकाले बिना, चैन से कैसे मैं रह सकता हूं! रचनाकाल : 6 जुलाई 2021

सही राह पर चलने का अभ्यास

कभी-कभी जिंदगी पकड़ लेती है इतनी ज्यादा रफ्तार कि भागते हुए उसके साथ बहुत आसान होता है फिसल जाना अनीति की राहों पर। इतना भी समय नहीं होता कि तनिक देर रुक कर लगाई जा सके मन को फटकार और इसी का फायदा उठा लेते हैैं दुर्विचार। इसलिये शांतिकाल में करता हूं कोशिश साध सकूं मन को कि क्षण जब भी आये कसौटी का तो चल सकूं सहज, सही राह पर परिस्थिति हो कठिन चाहे जितनी भी प्रलोभन हों चाहे जितने चलने की खातिर गलत मार्ग पर कि जिंदगी भर के सतत अभ्यास बिना होता नहीं सम्भव सहसा छोड़ पाना राजा हरिश्चंद्र जैसे, सर्वस्व अपना टिके रहने खातिर सत्य मार्ग पर त्याग पाना सीता को, राजधर्म मानकर झेल पाना गांधी जैसी, त्रासदी हरिलाल की। रचनाकाल : 9 जुलाई 2021

सौभाग्य और दुर्भाग्य

जब भी मैं अनहोनी से बच जाता हूं सौभाग्य साथ देता मेरा खुद को पाता हूं ऋणी दूसरों का। जिन दुर्घटनाओं में होती सम्भावना मात्र आधे लोगों के बचने की सिर झुकता मेरा मरने वालों के आगे बचने वाले आधे लोगों में रखने की खातिर मुझको मरने वाले आधे लोगों में नाम उन्होंने लिखा लिया! सौभाग्य से मुझे मिलती है जब चीज कोई खुद को पाता हूं कर्जदार मैं उनका मेरे जैसे ही जो योग्य, सक्षम थे लेकिन मौका मिल पाया नहीं उन्हें वह, क्योंकि अभागे थे! हर चीज संतुलित होती है जितना सुख होता धरती पर, उतना ही दु:ख भी होता है सौभाग्य अभागों की कीमत पर मिलता है लॉटरी जिसे लगती है वह पैसा हार चुके लाखों लोगों का होता है जिनकी कीमत पर लाखों में कोई बस एक जीतता है। हर जीत मुझे इसलिये, हारने वालों के दु:ख से भर देती है कोशिश करता, फल मुझको मिलता है जो बस सौभाग्य से, उसे सभी अभागे लोगों से मिल बांट सकूं लॉटरी मुझे जो लगती है उससे सारे हारे लोगों को उनका हिस्सा चुका सकूंं मुझे बचाने की खातिर जो मारे गए दुर्घटना में कर्ज चुकाने खातिर उनका, दुनिया बेहतर बना सकूं रचनाकाल : 1-2 जुलाई 2021

सुख-दु:ख मन के भाव

अच्छा लगता है हमको सम्पन्न घरों में रहना सोना नरम बिस्तरों पर, खाना स्वादिष्ट चीज स्वेच्छा से लेकिन धरती को जो बना बिछौना छत आसमान को मान खुले में सोते हैैं आनंद नहीं कम मिलता उनको आलीशान मकानों से। डरते हैं हम, भिखमंगों जैसा जीवन त्रासद लगता है स्वेच्छा से पर घर-बार छोड़ जो बन जाते हैं संन्यासी उनको वह घोर अभावों का भी जीवन सुंदर लगता है। कष्टों से हम डरते हैं कोशिश करते हैैं जीवन में ज्यादा से ज्यादा हों सुविधाएं पर घोर तपस्या करने वाले ऋषियों को अपने शरीर को ज्यादा से ज्यादा कष्टों के बीच तपाने में अनुपम सुख मिलता है। है मृत्यु डराती हमको, आती है नजदीक कभी तो हम अधमरे, मौत के पहले ही हो जाते हैैं पर भगत सिंह के जैसे भी होते हैैं लोग कई जो अपने सिद्धांतों की खातिर हंसते-हंसते ही फांसी के फंदे को भी गले लगाते हैैं। दरअसल नहीं है सुख-दु:ख का अस्तित्व स्वयं में कोई भी मजबूरी में जो चीज पड़े सहनी, है दु:ख बस वही हमारे मन को जो भी रुचता है, सुखकर वह हमको लगता है। इसलिये साधता हूं मन को, होने देता हूं नहीं निरंकुश उसको पानी जैसा नीचे बहते जाने की बजाय दीपक की लौ सा, जीवन की प्रत्येक परिस्थित

आस्तिक और नास्तिक

मैं नहीं अंधविश्वासी हूं पुरखों का संचित ज्ञान मगर मैं बिना विचारे त्याग नहीं पाता हूं जीवंत मुझे लगते हैैं पौधे पेड़ सभी उनके आगे सिर को झुकने से रोक नहीं पाता हूं मुझको लगता है जड़-चेतन जो कुछ भी है, ईश्वरमय है इसलिये सभी पूजा-पद्धतियां मुझको सच्ची लगती हैैं ईश्वर को पर हथियार बना, शोषण करते जो लोगों का जो बन जाते मध्यस्थ, पहुंचने देते लोगों को ईश्वर तक नहीं मुझे वे सबसे ज्यादा खतरनाक और ईश्वरद्रोही लगते हैैं अच्छे लगते हैैं मुझको वे, जो नहीं मानते ईश्वर को अपने सारे कर्मों की जिम्मेदारी लेते हैैं खुद जो   है मुझे गर्व ज्ञानी-विज्ञानी लोगों पर होता है आविष्कार कहीं जब नया मुझे वह खुशियों से भर देता है ऋषियों के जैसे ही मुझको अपने वैज्ञानिक लगते हैैं। यह मान मगर जो हो जाते हैं उच्छृंखल ईश्वर का दुनिया में कोई अस्तित्व नहीं रूढ़िवादियों के जैसे ही खतरनाक मुझको वे लगते हैैं। ईश्वर को कोई माने या ना माने पर तोड़े अनुशासन, मुझे भयानक लगता है दरअसल सृष्टि चलती सारी अनुशासित हो धरती-सूरज या चांद सितारे सब अपनी-अपनी कक्षा में चलते हैैं अनुशासन ही मुझको तो ईश्वर लगता है। आंख मूंद कर करता मैं विश्