आदमी और पेड़-पौधे
अक्सर मुझको मानव भी पेड़ों के जैसे लगते हैं
कुछ लदे फलों से होते हैं, कुछ कांटों से
कुछ घास-फूस की तरह निरापद होते हैं।
चिंता मुझको यह होती है फलदार पेड़
संख्या में कम होते जाते हैं लगातार
साम्राज्य निरंतर बढ़ता जाता
नागफनी के जंगल का।
जो हरे-भरे पेड़ों-खेतों से घिरे हुए
दशकों पहले तक गांव मनोहर लगते थे
अब दिखती जगह-जगह पर कांटेदार बाड़
मन भी कांटों के जैसा सबका तीखा होता जाता है
बंजर होती जाती है जैसे भूमि निरंतर
मन भी सबका बंजर होता जाता है।
सपना मेरी आंखों में है जो
हरे-भरे लोगों का, बाग-बगीचों का
पूरा करने की कोशिश में मैं उसको
बंजर जमीन को देता हूं प्राकृतिक खाद
बंजर लोगों को रक्त स्वयं का देता हूं
होता जाता हूं लथपथ खून-पसीने से
कोशिश करता जी-तोड़
कि बढ़ने पाये नहीं मरुस्थल भीतर-बाहर का
तन-मन कांटों से बिंधता जाता है लेकिन
सपने को पूरा करने की कोशिश में मैं
होकर भी लहूलुहान निरंतर आगे बढ़ता जाता हूं
रचनाकाल : 16 जुलाई 2021
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