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Showing posts from December, 2020

शुभकामना!

   शुभ नया साल हो चाहता यही हूं दूं सबको शुभकामना पर भीतर जैसे कांटे-से उग आये हैैं क्षत-विक्षत स्वयं हूं औरों को भी करता ही जाता घायल मेरे भीतर यह किसकी आत्मा पैठ गई! संक्रमित देह को ही करता वायरस सुना था यही मगर मस्तिष्क और मन यह किसके वश में होता जाता है! कैसा है यह आक्रोश आत्मघाती तुला है करने पर जो सर्वनाश यह किसने अपने कब्जे में कर ली दुनिया! अन्याय सदा होते थे थोड़ा-बहुत मगर क्यों असहनीय अब होते जाते हैैं! जाने किस अनजाने भय से डरता हूं मैं मन ही मन में हे ईश्वर! सब कुछ हो शुभ-शुभ इस नये साल के अवसर पर शुभकामना यही दोहराता हूं। रचनाकाल : 1 जनवरी 2021

मुख्यधारा के खिलाफ

आरामदेह जरूर लगती है घाटियों की यात्रा फिसलते हुए ढलान की ओर होता है तीव्रगामी विकास का आभास पर अपूर्व है शिखर की यात्रा का आनंद इंच-इंच बढ़ना भी आगे जहां होती है वास्तविक प्रगति देना चाहता हूं यू-टर्न विकास की धारा को पर बहाव इतना तेज है कि पैर उखड़ जाते हैैं बार-बार सीमित हैैं बहुत मेरी शक्तियां लेकिन विकल्प नहीं दूसरा बढ़ता हूं ऊपर की ओर इंच-इंच रोज रोकता हूं लोगों को भागते ही जा रहे जो नीचे ढलान में ताकत है उनके पास जबर्दस्त फेंक दिया जाता हूं बार-बार हाशिये पर लेकिन उठता हूं हर बार धूल झाड़ कर सहकर भी उपहास लड़ता मुख्यधारा से समाज की। रचनाकाल : 27 दिसंबर 2020

शून्य से शून्य तक की यात्रा

जब मैं प्रवीण नहीं था लिखने में उमड़ते थे भाव घनघोर लेकिन दर्ज नहीं कर पाता था उनको सुंदरता से होती थी हसरत तब काश! बन पाता मैं जादूगर शब्दों का। आज मैं हूं सिद्धहस्त लिखने में चमत्कृत कर सकता हूं लेखन से राई का पहाड़  बना सकता हूं। सूख गये भाव लेकिन जाने कहां खो गई मासूमियत वो पहले की सीख गया देना जवाब अब ईंटों का पत्थर से हो गया मरुस्थल सा कठोर मन। नियति की यह कैसी विडंबना है मिल नहीं पाते दोनों छोर कहीं एक को पकड़ने की कोशिश में दूजा छूट जाता है! लेकिन नहीं चाहता हूं दोनों को पाने का संघर्ष छोड़ना पाने की खातिर वह पहले सा निर्दोष मन ठगा जाना चाहता हूं स्वेच्छा से सह लेना चाहता हूं चुपचाप ईंटों के वार को। पहले मैं शून्य था जानता था कुछ भी नहीं जानने के बाद सब कुछ फिर से अब शून्य वही बन जाना चाहता हूं। रचनाकाल : 26 दिसंबर 2020

धोखा मेरे साथ

धोखा हुआ भयानक मेरे साथ मोती मैंने बहुत चुने थे चकाचौंध में देते थे जो सूरज को भी मात लेकिन यह क्या हुआ कि सूरज जैसे डूबा चमक चली गई साथ! चुनता रहा जिन्हें जीवन भर क्या वे कांच के टुकड़े थे! जीवन के इस सांझ समय क्यों लगता ऐसा, रह गया खाली हाथ! रहा सजाता रूप-रंग इस काया का श्रृंगार किया बहुतेरा लेकिन अंतरतम को देख न पाया छूट गई जब आत्मा तन से मुट्ठी भर रह गई राख! कोशिश नहीं किया सुनने की बातें अपने अंतर्मन की जीता रहा दिखावे में ही फूट गया जब गुब्बारा तो कुछ भी बचा न पास! हुआ भयानक धोखा मेरे साथ। रचनाकाल : 26 दिसंबर 2020

अलौकिक शक्ति

जैसे-जैसे ढलता दिन चुकती ही जाती हैैं शक्तियां होते-होते रात, मृतप्राय सा हो जाता हूं रात भर की नींद लेकिन लबालब फिर कर देती शक्तियों से होते ही भोर जुट जाता हूं फिर से अपने काम में। चाहता हूं चलता रहे यही क्रम निरंतर चिरकाल तक लेकिन अब रोज सुबह होती जाती हैैं कम शक्तियां थकता ही जाता हूं जल्दी अब रोज-रोज तो क्या यह आहट है मौत की! जीते-जी लेकिन नहीं रुक सकता देने पर भी जवाब देह के चलता हूं बल पर आत्मशक्ति के खुलता ही जाता है द्वार नया अलौकिक शक्तियों से भरी दुनिया का! रचनाकाल : 25 दिसंबर 2020

म्यूटेशन

सिर्फ वायरसों का ही नहीं होता म्यूटेशन अच्छाइयां और बुराइयां भी होती हैैं परिष्कृत करोड़ों वर्षों के परिष्कार के बाद ही मिल सका है हमें आज का रूप करते हुए सभ्यताओं को परिष्कृत राम को माना था हमने अच्छाई का शिखर बिंदु और रावण को बुराई का राम तो पर बन नहीं पाये हम रावण के स्तर को भी गिरा दिया! सिर्फ वायरस ही नहीं हो रहे अधिक क्रूर हम मनुष्यों ने भी गिरा दिया है दर्जा अपनी मनुष्यता का महाभारत में टूटे थे सिर्फ युद्ध के नियम हमने तो तहस-नहस कर डाला प्रकृति को! और अब प्रकृति भी बदल रही है रूप लेने को बदला अपने विध्वंस का हमारे विनाशक अस्त्र-शस्त्र के जवाब में प्रकृति ने भी कर लिया है विकसित घातक हथियारों को होता ही जाता है म्यूटेशन भयावह प्रकृति और मानव का भयभीत हूं कि कहां जाकर थमेगा दौर यह क्रूरता का! रचनाकाल : 24 दिसंबर 2020

प्रार्थना

मैं नहीं जानता क्या मांगूं प्रार्थना अकारण है मेरी लेकिन जब गिरूं कभी अपने आदर्शों से हे ईश्वर! मुझको आकर जरा बचा लेना। जब स्वार्थ भावना के हो जाऊं वशीभूत सिर झुक न सके जब अहंकार बढ़ जाने से जब बनने लगूं किसी के भी दुख का कारण हे ईश्वर! मुझको दारुण दुख से भर देना जब जलूं क्रोध की ज्वाला में बदले की हो भावना प्रबल जब हावी हो जाये मन पर तामसी वृत्ति हे ईश्वर! मेरी सारी ताकत हर लेना जब भला किसी का भी मुझसे यदि हो न सके जब उदरपूर्ति ही जीवन का बन जाय ध्येय धरती पर बनने लगूं बोझ उसके पहले हे ईश्वर! मुझको अपने पास बुला लेना। रचनाकाल : 22 दिसंबर

समूह यात्रा

यात्रा की थी अकेले भी कठिन रेगिस्तानों की आनंद लेकिन यह अद्भुत है आ रहा जो चलने में मानव समूह में। जानता हूं झेल नहीं पायेंगे तकलीफें सारे लोग देर तक छोटा होता जायेगा काफिला रह जाऊं शायद अकेला ही अंत में चाहता हूं लेकिन चले हर कोई अपनी चरम सीमा तक स्वेच्छा से हर कोई झेले जितना झेल सके दुख-कष्ट इसीलिये कठिन बीहड़ रास्तों पर चलता हूं सबसे आगे प्रोत्साहन ताकि मिले लोगों को मुझको भी आनंद अपूर्व मिले करने में यात्रा समूह की। रचनाकाल : 20 दिसंबर 2020

अंतहीन यात्रा

चलते चलते थककर बैठता हूं सुस्ताने जब लम्बा लगने लगता है विश्रांतिकाल दूर किये बिना ही थकान फिर से चल पड़ता हूं गंतव्य की ओर थकी हुई देह में पर भरता ही जाता है चिड़चिड़ापन होती जाती है गायब ताजगी नींद में ही मानो चलता जाता हूं। गलती तो आती नहीं नजर कहीं मार्ग भी सही है चलता जिस पर सूखता ही जाता पर जीवन रस डरता हूं बन न जाऊं रेत कहीं कैसी है कठिन यह परीक्षा? लौटने का लेकिन सवाल नहीं राह जो दिखाई है पूर्वजों ने चलता ही जाता उस पर निरंतर छोड़ करके चिंता परिणामों की। रचनाकाल : 18 दिसंबर 2020

मील के पत्थर

सघन बीहड़ जंगलों से गुजर कर बढ़ता गहन गिरि के शिखर की ओर जब मील के पत्थर वहां पर दीखते हैैं आ चुके हैैं लोग मुझसे कई पहले मैं अकेला ही नहीं हूं सांत्वना देता मुझे अहसास यह सम्बल नया मिलता कि हो विश्वास मन में गहन तो राह कोई रोक सकती है नहीं बाधा बहुत से लोग पहले पहुंच कर गिरि शिखर तक यह कर चुके साबित ऋणी हूं पूर्वजों का राह जो मुझको दिखाते कठिन मौकों पर मील के पत्थर नये मैं भी लगाकर छोड़ जाना चाहता हूं नयी पीढ़ी के लिये अपनी विरासत कर्ज जो है पूर्वजों का इस तरह से ताकि हो जाये अदा।

स्वैच्छिक दुख-कष्ट

पहले मैं मानता था खुद को सौभाग्यशाली नहीं सहने पड़े मुझे दारुण दुख स्वेच्छा से सहते हुए छोटे-छोटे दुख-कष्ट छोटी-छोटी चोटियों के शिखरों तक पहुंच कर मन ही मन होता खुश कर लेता अपने को संतुष्ट लेकिन देखा जब से दारुण दुख की अंतहीन चोटियों पर चढ़ते हुए लोगों को मजबूरी से बेहद व्याकुल है मन भूल नहीं पाता हूं असहनीय पीड़ा से उपजी हुई मर्मांतक चीखों को अपना सौभाग्य मुझे लगता है दुर्भाग्य चाहता हूं स्वेच्छा से बिना चीखे-चिल्लाए सहन करूं असहनीय दुखों को ईसा की तरह लाद कांधे पर कांटेदार सूली को चढ़ूं उन शिखरों पर दारुण दुखों के पहाड़ की दीखती है चोटी जिसकी अंतहीन असहनीय दुख सहने वालों को मिल सके ताकि थोड़ी सांत्वना स्वेच्छा से अपने दुख सहने की।

संभावनाओं का दोहन

पहले मैं डरता था सबसे अधिक मानवों से सबसे अधिक लगता था क्रूर वह तोड़ता था नियमों को प्रकृति के तुला था जो सर्वनाश करने को धरती का पा ली है लेकिन मैंने थाह उसके भीतर की नीचे वह जितना गिर सकता है ऊंचा भी उठ सकता उतना ही छिपी हैैं अपार उसके भीतर संभावनाएं जुट गया हूूं अब मैं निखारने को उसके भीतर की उज्ज्वलता को बुद्धिमान प्राणी वह बेशक है दुनिया का चाहता हूं लाभ मिले उसकी बुद्धिमानी का सचराचर जगत को बिना किसी का भी विनाश किये करे वह समृद्ध सारी दुनिया को।

चुनौतियों का खजाना

कांपती है नाव मेरी प्रबल लहरों के थपेड़े से पहुंचता हूं बीच जब मझधार में मन नहीं करता मगर तट पर खड़े रहकर नजारा देखने का। जानता हूं है कठिन बेहद शिखर  पर घर बनाना सतत लेकिन घिरा रहना चाहता हूं आपदाओं से रोमांचकारी जिंदगी का लग चुका चस्का कि डर लगता चुनौतीहीन जीवन से। है परम यह सौभाग्य पग-पग पर चुनौती के सुअवसर पड़े मिलते हैैं कि दुनिया भागती है छोड़ कर जिस खजाने को सफलता, सुरक्षा की चाह में मैं भागकर उल्टी दिशा में कठिन अवसर की अतुल उस संपदा से हो लबालब बना लेता हूं स्वयं को धनी सबसे व्यक्ति दुनिया का।  

शब्दों की खेती

किसान हूं मैं शब्दों का करता हूं खेती कविताओं की तोड़ता हूं नई जमीन फसल ताकि अच्छी हो फलें-फूलें कविताएं पेट भरें लोगों का मानसिक। मैं भी गरीब हूं किसानों सा मुझको भी लूटते हैैं किताबों के व्यापारी रहता हूं हाशिये पर ही सदा। हो रही हैैं इन दिनों जो साजिशें खेतों से बेदखल कर किसानों को बनाने की मजदूर चाहते हैैं वैसे ही सत्ताधीश मैं भी गुणगान करूं उनका देते हैैं लालच सुविधाओं का बन सकूं उनका अगर गुलाम। खोना लेकिन स्वाभिमान मुझको मंजूर नहीं हाशिये पर रह कर भी कलम से हिलाऊंगा सत्ता को झेलूंगा प्रताड़ना फूट डालने की समाज में कुत्सित चालों को सरकार की होने नहीं दूंगा सफल दूषित नहीं होने दूंगा लोगों की मनोवृत्ति नहीं फैलने दूंगा जहर समाज में।

पथराती संवेदना

ऐसा तो नहीं है कि आ गई है दुनिया में खुशहाली आजकल बढ़ती ही जा रही समाज में असमानता बढ़ रहा है लोगों में आक्रोश भी सूझते फिर क्यों नहीं हैैं शब्द मुझे व्यक्त करने इस भयावह मंजर को? पथराता जा रहा मन खत्म होती जाती संवेदना वैचारिक लड़ाई में भी बढ़ती ही जाती है क्रूरता बनते ही जाते हैैं पत्थर दिल लोग सब खत्म होती जाती है मानवता। ऐसा भयानक समय आया है मेरे जो हिस्से में हाथों में हाथ रख एक क्षण भी बैठना भयानक अपराध है सूझता ही नहीं पर कैसे लड़ाई लडूं बनता ही जाता हूं हिस्सा इसी सिस्टम का सुन्न होती जाती संवेदना पथराती दुनिया में मैं भी पथराता ही जा रहा।

मशीनी दुनिया में

रास्ता तो सही है, पर थक चुका हूं पांव बोझिल, कर रहे इंकार चलने से नींद लेती जा रही आगोश में समय पर यह नहीं है विश्राम का हो गई है खत्म सारी जमा-पूंजी सूख कर पथरा रहा मन भी नजर जाती जहां तक दीखती है रेत ही चहुंओर कांटेदार कैक्टस राज करते हैैं मरुस्थल पर कि मैं भी बन न जाऊं सूखकर कांटा इसी डर से शरण लेता मधुर संगीत की सुर-ताल-लय से बद्ध रचता छंद कट जाये समय घनघोर दुपहर का कि ठण्डी छांह पाऊंगा कभी तो ले तनिक विश्राम फिर से चल सकूंगा खुरदरी उस राह पर जो भरी कांटों से मगर गंतव्य का जो है निकटतम मार्ग सबसे इस समय तो प्राथमिकता है यही खुद को बचा लूं रेत बनने से कि बंजर भूमि का मंजर भयावह सोख ही ना ले कहीं रस खत्म हो जाये न सब संवेदना मशीनीकृत न हो जाये सभी कुछ भीतर भी पसर जाये न रेगिस्तान इससे छोड़ नीरस मार्ग रचता हूं सरस कविता।

नई जमीन

चूर हो गया हूं थककर चला जा रहा हूं नीम बेहोशी में अपनी डगर पर मन लेकिन बेचैन है कि नहीं तोड़ पा रहा नई जमीन नहीं जुटा पा रहा हिम्मत अनजानी राहों पर चलने की जानता हूं कि अपनी-अपनी कक्षा में चलना ही सबकी नियति है पर नहीं चलना चाहता मैं घिसी-पिटी लकीर पर अज्ञात में छलांग को ही बना लेना चाहता हूं दायरा भले ही जवाब दे शरीर पर   रुकना नहीं चाहता हूं थककर मानसिक शक्तियों के बल पर जारी रखना चाहता हूं यात्रा अज्ञात की।

भीतर छिपा खजाना

देखकर अवाक हूं खजाने को सोचा ही नहीं था कभी छिपी होगी संपदा इतनी अपार अपने ही अंतस में! यूं ही चला आया था पार करके बीहड़ पथ खोज में अज्ञात की। हासिल पर हुआ जो अकल्पनीय बढ़ गई है बेचैनी कैसे इसे बांटूं सारी दुनिया को! लेकर नहीं जा सकता बीहड़ पथ के उस पार लाना होगा लोगों को ही कांटों भरे रास्ते के इस पार पाने को अपार यह धन संपदा। सूझता ही नहीं लेकिन कैसे तैयार करूं लोगों को दुर्गम पथ पर चलने को पार किये बिना जिसे मिल ही नहीं सकता वह खजाना बेशकीमती!

निखरते निखारते शब्द

पहले मैं खेलता था शब्दों से स्तब्ध रह गया लेकिन जान कर कि मेरी लापरवाही से बदलते ही जाते हैैं उनके अर्थ इसीलिये बरतता अब सावधानी बनाने को अर्थपूर्ण शब्दों को करता हूं घोर मेहनत व्यर्थ नहीं खर्च करता एक भी अब शब्द को जीता हूं लिखने से पहले उन्हें दमकते ही जाते हैैं अर्थ मेरे सुंदर अर्थवत्ता से शब्दों को चमकाने की खातिर खुद को तपाता हूं आग में शब्द मुझे आगे बढ़ाते हैैं मैं भी बढ़ाता हूं शब्दों को चाहता हूं इसी तरह करके परिमार्जित कविता निखारती रहे मुझे मैं भी निखारता रहूं कविता को प्रेरित जो करे सबको तप कर निखरने को