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Showing posts from December, 2023

बदलते मायने

पहले आता जब नया साल मैं बेहद खुश हो जाता था बंधती थी उम्मीद नया कुछ होने की संकल्प नया ले, उत्साहित होकर मैं जीवन नये सिरे से जीने में जुट जाता था। आता जब अगला साल नया टूटी उम्मीदों, संकल्पों से मायूसी तो होती थी पर जुटा हौसला, उनको पूरा करने में जुट जाता था। अब आता है जब साल नया बेहद व्याकुल हो जाता हूं लगता है फिर से बीत गया एक और साल दिन बचे हुए हैं गिने- चुने ही जीवन के बाकी है लेकिन काम बहुत सुस्ताने का है समय जरा भी नहीं अधूरे संकल्पों को जल्दी ही पूरा करने का लेता हूं संकल्प मायने बदल गये हैं नया साल अब आने के। रचनाकाल : 28-29 दिसंबर 2023

नया साल बनाम नया पल

जब नहीं जानता था कीमत हफ्तों या कई महीनों की तो कौन कहे बर्बाद साल मैंने अनेक कर डाले थे आता था तब भी साल नया हर बार मगर मैं धूम-धड़ाका करके, मदहोशी में उसे मनाकर अपने ढर्रे पर जल्दी ही चलने लगता था। पर जब से जाना मूल्य समय का साल नहीं मैं माह नया हर माह मनाया करता हूं रखता हूं लक्ष्य कि जल्दी ही हर रोज नया दिन मना सकूं जो भूल-गलतियां हों दिनभर में अगले दिन तत्काल पकड़ में आ जायें जमती जाती है धूल दरअसल जितनी ही चाहे वह घर हो या हो मन उतना ही करना साफ कठिन हो जाता है। मैं सपने देखा करता हूं जिस क्षण हो गलती कोई भी अगले क्षण ही आ जाय नजर परिमार्जन करता रहूं स्वयं का यदि हर पल जीवन जीना यह शायद होगा तभी सफल। जो साल हो चुके कई नष्ट होता तो है पछतावा उसका कभी-कभी पर करता हूं संतोष, सोच यह मैं तो फिर भी कुछ सालों में जाग गया कई लोगों का तो सोते-सोते ही अक्सर पूरा का पूरा जीवन बीता करता है जब आंखें खुलती होंगी मरते समय देख कर यह कि उन्होंने खोया क्या मर कर भी उनको चैन कभी मिलता होगा! रचनाकाल : 26-27 दिसंबर 2023

आत्म-संघर्ष

कोशिश तो करता पूरी मन में गुस्सा आये नहीं मगर यह आ ही जाता है। होती थी पहले खीझ स्वयं पर अपनी ही नजरों में लगने लगता था बेशरम ढीठ हूं कैसा, कैसे गलती अपनी बार-बार दुहराता हूं! उठता था मन में यह भी एक विचार मान लूं जायज अपना गुस्सा दे दूं उसे वैधता, टंटा सारा हो जायेगा खतम जिंदगी तो कम से कम होकर के निर्द्वंद्व सदा जी पाऊंगा! पर जैसे ही कोशिश की अपनी गलती वैध बनाने की महसूस हुआ मन में अनगिनती लगीं उठाने सिर अपना गलतियां बहस कर लगीं तर्क यह देने उनको भी आखिर क्यों नहीं मिले वैधता इसी पर आधारित? तब से अपनी कमियों को तर्कों के जरिये मैं ठहराता हूं सही नहीं जब तक दम में है दम अपने दोषों से लड़ता जाता हूं यह समझ चुका हूं जिस दिन भी हथियार डाल दूंगा अपनी कमजोरी के आगे यह मुझ पर हावी होती जायेगी दुर्गुण घर करते जायेंगे धीरे-धीरे सौ झूठ बोलने पड़ते हैैं इक झूठ छिपाने को जैसे इक गलती के आगे झुकना बेहद महंगा पड़ जायेगा सिलसिला पतन का शुरू तभी हो जायेगा। रचनाकाल : 1-22 दिसंबर 2023

दु:ख-सुख

जब संकट आता था मुझ पर मैं बेहद घबरा जाता था लगता था कितनी जल्दी इससे मुक्ति मिले। पर टल जाने पर संकट सुख जब बहुत दिनों तक पास रुका रह जाता था धीरे-धीरे वह भी सुख सा महसूस नहीं हो पाता था। इसलिये नहीं अब संकट को तत्काल विदा करने की कोशिश करता हूं दु:ख-कष्टों को अपनी क्षमता भर सहता हूं। जब से जाना दु:ख सहने से ही सुख जैसा सुख लगता है दु:ख भी मुझको सुख लगता है सुख-दु:ख सहने में मिलता जो आनंद अनिर्वचनीय नहीं उसका विलोम कुछ दिखता है। रचनाकाल : 14 दिसंबर 2023

विविधता का अंत

जीवन तो रंग-बिरंगा था तस्वीर बना सकता था इससे अतुलनीय पर चिंताग्रस्त रहा आया हरदम ही काला रंग देख डर जाता था नीरस लगता था उज्ज्वल-धवल सफेद हरा रंग मुसलमान का लगता था नीला लगता था बहुजन का केसरिया भर से बन पाती तस्वीर भला कैसे अनुपम ज्यादा प्रयोग से कभी-कभी वह खून सरीखा लगता था। अब जब ढलान पर हूं जीवन के, लगता है सारे समाज को एक रंग में रंगने की जिद कितनी महाविनाशक थी सदियों की मेहनत से पनपीं जो संस्कृतियां उनको तबाह कर, एक बनाकर राजमार्ग कर देना पगडंडियां खत्म ही सब, क्या सचमुच उन्नति का परिचायक थी? ‘ग्लोबल’ होने के चक्कर में लेकिन मैंने ‘लोकल’ तबाह सब कर डाला सब मेरा ही प्रतिरूप बनें, इस अहंकार ने रंग-बिरंगी दुनिया को सीधा-सपाट सा कर डाला पर नहीं समझ पाया कि विविधता है पसंद धरती मां को दम घुटता जाता देख एकरसता उसका घुटती जाती हैैं सांसें भी मानवता की हे ईश्वर मेरी पीढ़ी ने देकर विकास का नाम, सभी कुछ नष्ट-भ्रष्ट कर कैसा यह अपराध भयानक कर डाला! रचनाकाल : 12-13 दिसंबर 2023

दु:ख में सुख

जब भी मुझ पर दु:ख आता है मैं खुद से ज्यादा दु:खी व्यक्ति से तुलना करने लगता हूं अपना दु:ख मुझको हल्का लगने लगता है। सुखी व्यक्ति मैं सब लोगों को लगता हूं है नहीं किसी को पता कि मन ही मन में मैं कितना ज्यादा दु:ख सहता हूं टूटे चाहे जिस पर भी कष्टों का पहाड़ सहने में होती मेरी भी हिस्सेदारी बस साथ मात्र होने से मेरे दु:खी व्यक्ति का दु:ख हल्का हो जाता है अद्भुत है इससे मेरे भी व्यक्तिगत दु:खों का कोटा कम हो जाता है। दुनिया में सबको सुखी दिखाई पड़ता हूं दुनियाभर का दु:ख सहता हूं दु:ख लेकिन मुझको सुख जैसा ही लगता है! रचनाकाल : 10 दिसंबर 2023

एनिमल

मैं सन्न रह गया फिल्म समीक्षा देख एनिमल की कविताई करने वाले क्या सचमुच इतने ही निर्बल होते हैं? होता न मुझे एतराज अगर पशुबल से ही हो पाता मानव का विकास कोशिश पर करते रहे हजारों सालों से हम बनने की इंसान छोड़कर उसको, फिर से पशुता अपनाना क्या श्रेयस्कर होगा? बेशक वे हैं एनिमल, बनाते हैं जो पैसों खातिर ऐसी फिल्मों को पर अगर उमड़ता इन्हें देखने युवा वर्ग, रह जाना पड़ता स्तब्ध हजारों सालों से मानव बनने की कोशिश का क्या यही हमारा हासिल है? अब नहीं रह गया इन तर्कों का अर्थ कि पशुबल दिखता है तत्काल, मगर अच्छे कामों का असर दिखाई पड़ता है धीरे-धीरे जब तहस-नहस कर डालेगा एनिमल समूची मानवता तब असर दिखाई देगा भी तो किस पर आखिर कविता का? हो जाय असंभव काबू पाना पशुबल पर, इसके पहले कायम रखकर भी कोमलता, बनना ही होगा कविता को इतना ज्यादा मजबूत एनिमल को भी वह मानव बनने पर कर डाले मजबूर कि जैसे जान हथेली पर रखकर चलता वह, हिंसा की खातिर कवि को रखनी होगी अपनी आहुति देने की तैयारी, अपनी कविताओं की खातिर। रचनाकाल : 7-8 दिसंबर 2023

आपदा में अवसर

देख आपदाएं पहले मैं अक्सर घबरा जाता था होता था नष्ट समय चिंता में तन-मन की ताकत भी घटती जाती थी। इसलिये सीख ली है मैंने अब कला कीमियागर को जैसे सोना दिखता लोहे में अवसर दिखता है मुझको भी हर संकट में मेहनत करके घनघोर बदलना भर बाकी रह जाता है। जितनी होती आपदा बड़ी उतना ही आता नजर सुअवसर बड़ा बदलने में जिसको जुट जाता हूं चिंता के बदले समय बीतता चिंतन में रहता हूं सदा प्रफुल्लित जिससे तकलीफें, दु:ख-कष्ट मधुर सब लगते हैं। होने पर भी सब लक्षण अशुभ अगर शिवशंकर तप करके घनघोर, जहर पीकर सारा बन सकते हैं अंतत: शुभंकर दुनिया में तो हो सकती है भला आपदा ऐसी क्या जिसको न बदल पा सकते हों हम अवसर में! रचनाकाल : 5 दिसंबर 2023

अपरिग्रह की ओर

एक रात से ज्यादा रुकते थे न कहीं संन्यासी जो प्राचीनकाल में पढ़कर उनके बारे में डर-मिश्रित विस्मय होता था अपरिग्रह का वह चरम बिंदु सा लगता था। मैं इतना ज्यादा परिग्रही था कभी सुरक्षित करने की अपना भविष्य कोशिश में हरदम रहता था जब पूरी होती थीं न कभी  दैनंदिन की आवश्यकता तब तो चिंता होती ही थी पूरी होते ही मगर, दूसरे दिन की चिंता मन में उठने लगती थी हद तो यह हो गई कि जब बच्चे भी लगे कमाने चिंता लगी, खर्च हो जाता सब बढ़ने ही पाता नहीं बैंक-बैलेंस कभी! सहसा ही तब अहसास हुआ रुकने वाली है नहीं परिग्रह की यह दौड़ कभी भी तब से शुरू कर दिया अपरिग्रह को अपनाना दिनभर से ज्यादा की चीजों के बारे में अब नहीं सोचता कभी सतत कोशिश करता, अच्छे से अच्छा सदुपयोग कर पाऊं पूरे दिनभर का चिंता में बीता करता था जो समय रोज चिंतन में बीता करता है मैं खुश रहता हूं वर्तमान में ही हरदम आने वाले कल की चिंता अब मेरा ईश्वर करता है। रचनाकाल : 4 दिसंबर 2023

मरुस्थल में फूल

डरता हूं मैं फूलों को हाथ लगाने से वे इतने नाजुक होते हैैं हल्का सा भी मेरे हाथों का स्पर्श उन्हें पहुंचा सकता है चोट पेड़ पर ही नैसर्गिक लगते हैैं खुशबू सबको मिल सकती है। मैं नहीं किसी से कहता फॉलो करें या कि कविताएं मेरी पढ़ें कि इससे कविता की मर्यादा कम हो जाती है इतनी ताकत हो कविता में वह खुद आकर्षित करे ढूंढ़ कर उसको लोग पढ़ें गरिमा तो तभी बनी रह सकती है। अक्सर मैं करके काम, ठगा जाता हूं पर लड़ कर हासिल करना अपना अधिकार मुझे बेशर्मी जैसी लगती है कर्तव्य निभाता हूं इतनी तन्मयता से फल खुद ही चल कर आये मेरे पास मधुरता तभी बनी रह सकती है। बेशक बेहद है कठिन बनाना चीजों को रसपूर्ण कि सूखा इतना है विकराल हृदय तक सूख गये हैैं लोगों के पर अगर खिलाना है दुनिया में मानवता का फूल नहीं है और दूसरी राह मरुस्थल को यदि बाग बनाना है आहुति तो देनी ही ! रचनाकाल : 3 दिसंबर 2023

सुख-दु:ख

मैं नहीं चाहता था दु:ख मजबूरी में हर्गिज सहना लेकिन बिना सहे दु:ख, सुख कैसे आ सकता था! इसलिये कहीं घटना-दुर्घटना होने के ही पूर्व लगा लेता हूं सारी स्थितियों का अनुमान स्वयं को कर लेता तैयार बुरी से बुरी परिस्थिति खातिर भी रखता हूं नहीं अपेक्षा कोई चूंकि, इसलिये थोड़ी सी भी हो अगर परिस्थिति अच्छी मुझको बोनस जैसी सुखदायक वह लगती है। तन-मन से मैं ज्यादा से ज्यादा दु:ख सहने की कोशिश करता रहता हूं ईश्वर मुझको ज्यादा से ज्यादा सुख देने की कोशिश करता रहता है करता जाता महसूस मन:स्थिति अपने पूर्वज ऋषियों की लगती थी कठिन-कठोर तपस्या लोगों को जो बाहर से सुख कितना अनुपम उनको वह करने में हरदम मिलता था! रचनाकाल : 2 दिसंबर 2023

जाहि विधि राखे राम...

जब नहीं भरी थी मेरे मन में चतुराई बचपन में था निर्दोष हुआ करती थी हसरत निपुण व्यक्ति बनने की, दुनियादारी में पर होते-होते निपुण, घाघ बन गया अनाड़ीपन बचपन का अब आकर्षित करता है। खतरों का जब तक भान नहीं था पूरा तब तक बड़े-बड़े दुस्साहस करता रहता था रोमांचक लगती हैैं अब वे सब यादें खेला करता था जब आंख-मिचौनी यम से बच्चों को पर देख उठाते वैसा खतरा डर जाता हूं, लेकिन बिना उठाये जोखिम जीवन को कैसे जीवंत बना वे पायेंगे? जब नहीं जानता था भविष्य आने वाले खतरों से बेपरवाह जिंदगी जीता था निष्फिक्र मगर जब से यह सीखी कला जानने की भविष्य रह पाता हूं निश्चिंत नहीं पहले जैसा अज्ञानीपन पहले का बेहतर लगता है। है नहीं पता मेरी खातिर, क्या अच्छा है क्या बुरा छोड़ सब इसीलिये ईश्वर पर जिम्मेदारी चाहे जैसी मिले परिस्थिति रहकर अपने प्रति ईमानदार जीने की कोशिश करता हूं सुख-दु:ख, यश-अपयश, हानि-लाभ ईश्वर का सदा प्रसाद मान सिर-माथे पर सब रखता हूं। रचनाकाल : 28 नवंबर 2023

अनासक्ति

जब नहीं समझता था पहले मैं गूढ़ रहस्य प्रकृति के तब रहता था हरदम परेशान-हैरान दोष ईश्वर पर सारा मढ़ता था। अब इच्छा होती है जब सुख पाने की दु:ख कष्टों को सहने लगता हूं जब भवन बनाना हो ऊंचा मजबूत नींव अधिकाधिक करने लगता हूं। पाने को धन-संपदा दान करने लगता हूं खूब चाहता हूं जो उसका उल्टा करने लगता हूं। भागा करता था जब तक मैं पीछे-पीछे परछाईं के वह मुझसे भागा करती थी अब भागा करता उससे जब वह मेरे पीछे-पीछे भागा करती है। सिक्के के दो पहलू जैसी सारी चीजें हैं जुड़ी हुई अस्तित्व नहीं हो सकता दिन का रात बिना दु:ख बिना नहीं सुख का अनुभव हो सकता है। रचनाकाल : 26 नवंबर 2023