विविधता का अंत
जीवन तो रंग-बिरंगा था
तस्वीर बना सकता था इससे अतुलनीय
पर चिंताग्रस्त रहा आया हरदम ही
काला रंग देख डर जाता था
नीरस लगता था उज्ज्वल-धवल सफेद
हरा रंग मुसलमान का लगता था
नीला लगता था बहुजन का
केसरिया भर से बन पाती
तस्वीर भला कैसे अनुपम
ज्यादा प्रयोग से कभी-कभी वह
खून सरीखा लगता था।
अब जब ढलान पर हूं जीवन के, लगता है
सारे समाज को एक रंग में रंगने की जिद
कितनी महाविनाशक थी
सदियों की मेहनत से पनपीं जो संस्कृतियां
उनको तबाह कर, एक बनाकर राजमार्ग
कर देना पगडंडियां खत्म ही सब, क्या सचमुच
उन्नति का परिचायक थी?
‘ग्लोबल’ होने के चक्कर में लेकिन मैंने
‘लोकल’ तबाह सब कर डाला
सब मेरा ही प्रतिरूप बनें, इस अहंकार ने
रंग-बिरंगी दुनिया को सीधा-सपाट सा कर डाला
पर नहीं समझ पाया कि विविधता है पसंद धरती मां को
दम घुटता जाता देख एकरसता उसका
घुटती जाती हैैं सांसें भी मानवता की
हे ईश्वर मेरी पीढ़ी ने
देकर विकास का नाम, सभी कुछ नष्ट-भ्रष्ट कर
कैसा यह अपराध भयानक कर डाला!
रचनाकाल : 12-13 दिसंबर 2023
Comments
Post a Comment