Posts

Showing posts from April, 2020

महँगा सौदा

  कारण तो कुछ भी नहीं खुश है पर आज मन. बैठता जब सोचने आता है याद आज घटी नहीं कोई दुर्घटना नींद में भी आया नहीं कोई दु:स्वप्न. जानता हूँ ऐसा तो था नहीं हमेशा से घोर अभावों में भी मिलती थी नींद भरपूर कभी. दूर अब अभाव सारे कर लिये सुविधाएँ हासिल सब हो गईं लेकिन जो पास था सुकून तब दूर वही हो गया जाना पड़ता है अब हँसने को लाफ्टर क्लब आती नहीं नींद गोलियों से भी तरक्की तो हो रही है रोज-रोज तेजी से भागता मैं जा रहा छूटता ही जा रहा पर सुख-चैन पीछे. सोचता हूँ कभी-कभी सौदा महँगा तो नहीं!

ग्लोबलाइजेशन

खुश होता था कभी ग्लोबलाइजेशन के नाम से इसी के तो देखता था सपने साहित्य में दुनिया सब एक हो सबमें हो भाई-चारा करें सब विकास मिल. लेकिन मैं ठगा गया नाम तो वही था पर छद्म वेश धारण कर कोई और आ गया. करता ही जा रहा यह हत्याएँ गाँवों की नष्ट कर सब संस्कृतियाँ अपने ही पैर यह फैलाए जा रहा अरे, कोई मारो इसे यह तो हत्यारा है! नष्ट करता जा रहा खेत-खलिहानों और गाँवों-जवारों को. सुनता पर कोई नहीं चीख मेरी शामिल हैं लोग उसके साथ सब लड़ते हैं गुरिल्ला जो लैस वे भी दीखते हैं उसी के हथियारों से.

अंतहीन यात्रा

जब भी लगता है सब ठीक-ठाक और नहीं घेरती मन को चिंता घबरा जाता हूँ अचानक टटोलता हूँ अपनी सम्वेदनाएँ कहीं मरीं तो नहीं वे! दरअसल समय इतना कठिन है कि चिंतामुक्त रहना भी अपराध है मिले हैं मुझे विरासत में प्रदूषित पृथ्वी और रुग्ण समाज खूब कमाना और खूब खाना ही है मेरे समकालीनों का जीवन लक्ष्य कि त्याग का मतलब अब तपस्या नहीं पागलपन है फिर कैसे रह सकता भला मैं चिंतामुक्त! इसीलिये आता जब कभी क्षण खुशी का होता भयभीत भी हूँ साथ ही कि पथरा तो गई नहीं सम्वेदनाएँ! टूटता है बदन और आँखें भी बोझिल हैं नींद से फिर भी लिखता कविता डरता हूँ सोने से कि नींद अगर रास्ते में आ गई तो शायद कभी न हो सवेरा.

कठिन विकल्प

गुजरता हूँ जब गहन पीड़ा से जन्म लेती हैं तभी, महान कविताएँ इसीलिये नहीं करता मन भागने का, अब कष्टों से चुनता हूँ वही विकल्प जो सर्वाधिक कठिन हो. हताशा लेकिन होती है शक्ति के अभाव में जब चिड़चिड़ा उठता है मन. होती महसूस तब प्रार्थना की जरूरत इसलिये नहीं कि कम हो जायँ दु:ख-कष्ट बल्कि शक्ति मिले उन्हें सहने की. इसीलिये बार-बार हार कर भी आता उसी जगह पर चुनता हूँ कठिन विकल्प स्वेच्छा से दु:ख-कष्ट. फीनिक्स पक्षी की तरह मरता हूँ बार बार जीता हूँ फिर-फिर अपनी ही राख से.

कविता के साथ-साथ

हो सकता है कि अच्छी न बने कविता क्योंकि आँखों में नींद और सिर में भरा है दर्द पर स्थगित नहीं हो सकता लिखना लिखा था कभी कि जीवन की लय को पाना ही कविता है लय तो अभी भी टूटी नहीं पर सराबोर है यह कष्टों और संघर्षों से नहीं रोकूँगा अब इन्हें कविता में आने से. ओढ़ूँगा-बिछाऊँगा रखूँगा अब साथ-साथ कविता को. जानता हूँ कठिन है इजाफा ही करेगी यह कष्टों-संघर्षों में लेकिन मंजूर है यह. साथ रही कविता तो भयानक लगेगी नहीं मौत भी कविता के बिना लेकिन रास नहीं आयेगा जीवन भी.

विदाई गीत

पूरी दुनिया में मचा रखा है कोरोना ने कोहराम डरे हुए हैं सारे लोग कि अगली बारी उनकी तो नहीं! खत्म हो चुकी है शायद प्रकृति की सहन सीमा और उतर आई है वह बदला लेने पर। निश्चित रूप से हम मनुष्य साबित नहीं हुए हैं उसकी अच्छी संतान सारे मनुष्येतर जीवों से हमने किया है गुलामों जैसा व्यवहार अपनी आरामतलबी के साधनों को ही देते आए हैं सभ्यता और विकास का नाम जिन्होंने सामंजस्य रखा अन्य जीवों से और पूजते आए प्रकृति को दुत्कारते रहे हम उन्हें जंगली कहकर उजाड़ते रहे जंगल। चरम सीमा पर पहुंच चुका है शायद हम मनुष्यों का उत्पात धरती चाहती है कुछ युगों का आराम! इसलिये नहीं है शिकायत महामारियों से अलविदा होना ही अगर नियति है तो यही सही फिर जन्म लेंगे हम, कुछ युगों बाद जब पूरी हो जायेगी धरती की नींद और कोशिश करेंगे बसाने की एक नई सभ्यता जिसमें रह सकें सारे जीव सामंजस्यपूर्ण सहअस्तित्व के साथ। रचनाकाल : 18 मार्च 2020 

प्रकृति का अट्टहास

अद्भुत लय-ताल के साथ नृत्य कर रही है प्रकृति समझे थे लोग जिसे निर्जीव दिखा रही है पूरी प्रचण्डता से वह कि कूट-कूट कर भरी है उसमें जीवंतता हम ही नादान थे जो बेजान समझकर करते रहे उससे खिलवाड़ विजय पताका फहराकर रौंदते रहे धरती-आकाश बजाते रहे अपनी विजय दुंदुभि अब गूंज रहा है चहुंओर प्रकृति का अट्टहास कर रही है भय से विस्मित वह अपनी भयानक छटा से। रचनाकाल : 25 अप्रैल 2020

मृत्यु का उत्सव

क्या हुआ अगर फैल रही है दुनिया में महामारी निश्चित रूप से यह सिर्फ हमारी पीढ़ी के कर्मो का फल नहीं है पर ठुकरा भी तो नहीं सकते हम अपनी विरासत को! अच्छा-बुरा जो भी मिला है स्वीकार है हमें सहर्ष नहीं छोड़ना चाहते अपनी जिंदादिली मनाना चाहते हैं मृत्यु का भी उत्सव रचनाकाल : 26 मार्च 2020

निर्भय

शर्मिंदा हूं कि भयभीत होता रहा मृत्यु की भयावहता से और खुलकर नहीं जी सका जीवन मेरे भले के लिए ही रचे थे ईश्वर ने सारे विधान पर निकालता ही रहा हरदम उनमें मीनमेख कि ऐसा नहीं वैसा होना चाहिए था समझ पा रहा हूं आज कि जिसे विनाश समझता रहा उसमें भी छिपी थी मेरी ही भलाई कि मेरी बार-बार की नादानियों के बाद भी करता रहा ईश्वर मुझे  सही राह पर लाने की कोशिश आजमाता रहा सारे तरीके और मैं अभागा देता रहा उसी को दोष! सौंपता हूं आज खुद को उसी के हाथों स्वीकारता हूं उसके सारे विधानों को होता हूं निर्भय सारे भयों से रचनाकाल : 13 अप्रैल 2020

मृत्यु और सौंदर्य

इतने करीब से तो कभी नहीं देखा था मौत को पर जिंदगी भी कहां लगी थी कभी इतनी खूबसूरत! मरते जा रहे हैं लोग कोरोना वायरस से और निखरती जा रही है प्रकृति लॉकडाउन से समझ नहीं आ रहा कि भयभीत होऊं मौतों से या अभिभूत होऊं प्रकृति के सौंदर्य से! कहीं अभिशाप तो नहीं बन गए थे हम मनुष्य मनुष्येतर जीव-जंतुओं के लिये! इतनी सुंदर दुनिया को,  नरक तो नहीं बनाते जा रहे थे हम! नाजायज नहीं है प्रकृति का प्रकोप पर इतना रौद्र रूप दिखाने के बाद चाहता हूं कि एक बार फिर से वह हम मनुष्यों को मौका दे सुधरने का शायद समझने लगे हैं इस बात को हम कि प्रकृति के साथ सहयोग से ही संभव है जीवन! रचनाकाल : 12 अप्रैल 2020

यात्रा

चल रहा हूं तलवार की धार पर जहां जरा सा भी असंतुलन खत्म कर देगा जीवन पर इसके बिना कोई उपाय भी तो नहीं! उतरना ही था नदी के तेज प्रवाह में वरना किनारे पर बैठे-बैठे बीत जाती जिंदगी। अच्छी तरह मालूम था शुरू करते हुए रेगिस्तान की यात्रा कि जीवन भी ले सकता है, अंतहीन बंजर पर पहुंचने के लिए लक्ष्य तक इसे पार किये बिना कोई चारा भी तो नहीं! वापस लौटने का तो सवाल ही नहीं बढ़ते ही जाना है आगे अब साधते हुए संतुलन हिस्से में आये चाहे मौत या जीवन रचनाकाल : 23 अप्रैल 2020

सहअस्तित्व

कहां गायब हो गया है जीवन का उल्लास क्यों छाया है यह मरघट सा सन्नाटा इतिहास में वर्णित हैं युगों पुरानी सभ्यताएं क्या इसी तरह हुआ था उनका अंत? कितना पीड़ादायक होता है किसी सभ्यता को मरते हुए देखना पर हकीकत यह है कि गर्व करने लायक भी तो नहीं थे हम! भविष्य में कभी जब लिखा जायेगा हमारी सभ्यता का इतिहास तो कौन सी उपलब्धियां होंगी हमारी प्रकृति और मनुष्येतर जीवों के नाम पर? क्या यह सच नहीं है कि हमारा मरना ही सृष्टि के लिए कल्याणकारी है? बेहद पीड़ादायक है यह सोचना पर नहीं है इससे बचने का कोई उपाय कामना बस यही है कि जब कभी हो भविष्य में नई सभ्यता की शुरुआत तो न बन बैठे वह अपनी ही जन्मदात्री प्रकृति की प्रतिद्वंद्वी बल्कि सहअस्तित्व के साथ करे समूची सृष्टि का विकास रचनाकाल : 19 अप्रैल 2020

खुदगर्ज इंसान

कर तो बहुत कुछ सकता था पर नहीं कर पाया उतना ही मुझे भी मिला था जितना सबको मिलता है जीवन पर शामिल रहा मैं भी कथित विकास की अंधी दौड़ में ही जो ऐशो-आराम देने के सिवा कहीं नहीं ले जाती थी दुह कर प्रकृति के संसाधनों को मैं भी भोगता रहा सुख और पर्यावरण की तबाही में बंटाता रहा दुनिया का हाथ फिर क्यों व्याकुल हूं विनाश की बेला में?  क्यों चाहता हूं कि मिले एक मौका सब कुछ सुधारने का! तूफान यह गुजर जाने के बाद क्या फिर से चूसने नहीं लगेंगे हम प्रकृति का खून? जानता हूं कि प्रकृति नहीं है इतनी कठोर मौका तो वह हमें अवश्य देगी पर इतने सीधे-सरल नहीं हैं हम मनुष्य  भयभीत हूं यह सोच कर कि फिर से शामिल हो जाऊंगा मैं भी उसी अंधी दौड़ में अपने ऐशो-आराम के लिए फिर से बन जाऊंगा, खुदगर्ज इंसान. रचनाकाल : 21 अप्रैल 2020

मेहनतकश

वे होंगे कोई और जिन्होंने भोगी हैं  सुख-सुविधाएं मैंने तो किया है वरण सदा बाधाओं का जो खून चूसकर धरती का अपने आराम की खातिर ही करते गये सब कुछ तबाह मैं कभी नहीं था शामिल ऐसे लोगों में। चलता ही रहा तपते पथ पर करते ही रहे राहों के कांटे लहूलुहान सींचा है इस धरती को मैंने सदैव अपने ही खून पसीने से। मैं कभी नहीं हूं हार मानने वालों में डर लगता मुझको कभी नहीं इस धरती मां के गुस्से से मैं वरण मृत्यु का भी कर लूंगा खुशी-खुशी अपनी इस मां के आंचल में विश्वास मुझे है पूरा यह वह कभी नहीं मरने देगी मर कर भी देगी जनम मुझे वह बार-बार पर रह न सकेगी अपनी ही संतान बिना                                                       रचनाकाल : 21 अप्रैल 2020

अंधेरे की ओर

छाया हुआ है उजाड़ सन्नाटा भीतर भी और बाहर भी इतनी वीरान तो कभी नहीं थी दुनिया! कहां खत्म हो गया सारा जीवन रस? क्या शुरू हो चुकी है रेगिस्तान की यात्रा? तप रहा है सूरज आसमान में और जल रहे हैं पैर धरती पर चले जा रहे हैं सभी, बियाबान में नज़र नहीं आ रहा इस बंजर का कोई ओर-छोर कारवां इतना शांत तो कभी न था! तो क्या यह मौत की घाटी की यात्रा है? भय और मायूसी से भरे हुए चले जा रहे हैं लोग, अनजान दिशा में इस घनघोर अंधेरी रात की पता नहीं कब होगी सुबह!                                रचनाकाल : 20 अप्रैल 2020