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Showing posts from October, 2021

अच्छा लगता है

हो लाख बुरा पर मुझे जमाना अपना अच्छा लगता है है नहीं शिकायत कोई, इतना घना अंधेरा क्यों है मुझको दीप जलाकर तिमिर भगाना अच्छा लगता है हर युग में रावण होते थे, सच तो यह है बनने की खातिर राम जुटानी पड़ती है ताकत रावण से भी ज्यादा मेरे युग के भी रावण तो हैैं महाबली रख कर वे अपनी जान हथेली पर रचते आतंकवाद मैं कोशिश करता हूं कि बन सकूं उनसे भी ज्यादा निर्भय अपने लक्ष्यों की खातिर अपनी जान दांव पर रख कर वे लेते औरों की जान चाहता हूं कि दांव पर रखकर अपनी जान बचाऊं मैं औरों की जान मुझे गांधीजी में भी अक्स राम का दिखता है। मैं नहीं चाहता हूं कि पूजने वालों में शामिल होऊं जिन आदर्शों की खातिर पूूजे जाते हैं भगवान उन्हीं आदर्शों पर चलकर उनके जैसा ही बनना अच्छा लगता है। तैंतीस कोटि देवता कभी रहते थे दुनिया में जिनको हम याद आज करते हैैं पूरी श्रद्धा से इतनी ही श्रद्धा से आने वाले युग में कर सकें याद धरतीवासी इस धरती पर रहते थे मानव सात अरब इतना ऊंचा मैं उठा सकूं मानवता को यह लक्ष्य सामने रखकर चलना अच्छा लगता है। रचनाकाल : 30 अक्टूबर 2021

दर्द

खुश हूं मैं दर्द मुझे बेहद मिला बिना इसके कविता मैं लिख ही नहीं पाता हूं साथ रहती पीड़ा तो डर भी नहीं लगता भटक जाने का सारी कमियों की यह कर देती भरपाई। लज्जा पर होती है बेहद तब सह नहीं पाता जब कभी-कभी आह या कराह निकल जाती है समझते हैं लोग मुझको बेचारा राहें अनगिनती सुझाते हैं पाने की खातिर मुक्ति दर्द से। इसीलिये करता हूं ईश्वर से प्रार्थना दर्द जैसे दिया मनोवांछित सहने की शक्ति भी मत छीनना गरिमा के साथ उसको सह सकूं बनने न पाऊं कभी दुनिया की नजरों में बेचारा सबकुछ सह सकता हूं असहनीय लगता पर दर्द का अपमान मुझे। रचनाकाल : 27 अक्टूबर 2021

शिकायतों का अंत

पहले मैं विचलित रहता था ऐसा लगता था, नहीं मुझे मिलता प्रतिफल जितना हक मेरा बनता है नाराज हमेशा रहता था दुनिया से, सारे लोगों से अहसानफरामोशी ही मुझको सबके भीतर दिखती थी लेकिन जब ध्यान गया मेरा अपने भीतर तो सन्न रह गया जितना भी मुझको मिला जिस किसी से भी क्या मैंने उसका आभार जताया था! क्या नहीं बोल सकती धरती, पशु, पौधे-पेड़ इसलिये उनका शोषण करने का अधिकारी मैं बन जाता हूं! जिस प्रकृति ने दिया जीवन मुझको क्या उसका दम घोंट, प्रदूषण फैलाना ही मेरे भीतर की सच्ची मानवता है? इतना अपार हूं ऋणी समूची धरती का मेरे कि साथ जो होते हैं अन्याय सभी वे तुच्छ बहुत अब लगते हैं  शर्मिन्दा इतना ज्यादा हूं सिर नहीं उठा पाता हूं करने खातिर कभी शिकायत अद्भुत है कि नहीं अब दिखता कोई भी कृतघ्न सबका मुझ पर अहसान कोई ना कोई है मैं ही था नासमझ कि आधे भरे ग्लास की खुशी मनाने के बजाय, यह करता रहा शिकायत क्यों आधा गिलास खाली है! रचनाकाल : 21 अक्टूबर 2021

मनौती

हे गंगा मइया! व्याकुल है मन बेहद हरती हो पाप सबके हो सके तो मेरे मन की व्यथा को भी हर लेना बना देना पहले जैसा सरल हृदय बोझ नहीं सहा जाता ज्ञान का डराता है मुझको अब अपना ही पाण्डित्य। सचमुच ही शर्मिंदा हूं  हे गंगा मइया कि बुद्धि मेरी कहती है तुम भी अन्य नदियों सी नदी निर्जीव हो माता नहीं धरती भी मामा नहीं चंद्रमा देख आये वैज्ञानिक दूर अरबों मील तक बेजान सारा है आसमान कहीं नहीं स्वर्ग-नरक बच्चों जैसा हमको बहलाते रहे सदियों पुराने ऋषि-मुनि अब तक। सच है कि जानने को बाकी हैैं बहुत सारी चीजें हमको अभी भी जान चुके जितना पर वही अब डराता है छूटती ही जाती है सरलता जटिल होता जाता मन जलेबी सा खोकर के सारे विश्वासों को जिंदा हम कैसे रह पायेंगे! हे गंगा मइया मुझे शक्ति दो लौट सकूं उन्नति की राहों से मान सकूं माता तुमको फिर से मन में हो डर कि अगर किया तुमको गंदा तो दे दोगी शाप तुम पीपल और तुलसी के पौधे भी श्रद्धा संग भय यह उपजाते रहें काटा अगर उनको तो हो जायेगा सर्वनाश। सचमुच कहता हूं मां इतनी पूरी कर दो मनोकामना तो सवा किलो लड्डू चढ़ाऊंगा जानता हूं तुमसे यह कर रहा हूं सौदा मैं ऐसा जब करती थी मेरी मा

जिंदादिली

ऐसा नहीं कि समय भयावह मुझको नहीं डराता है ऊपर से लेकिन हरदम रहता शांत दिलासा देता सबको ‘बात नहीं चिंता की कोई जल्दी ही सब हो जायेगा ठीक’ असर अद्भुत होता है इसका चिंता रुक जाती है बढ़ना मुख पर देख मेरे मुस्कान सभी होने लगते आश्वस्त मगर इससे भी ज्यादा अद्भुत है यह देख-देख कर लोगों की आश्वस्ति मुझे भी मिलता बहुत सुकून दूर होने लगती है चिंता मन के भीतर छिपा रखी थी जो। इसलिये भयावह बातों, दुश्चिंताओं को मैं भरसक कोशिश करता रोकूं नहीं फैलने पायें वे जनमानस में अच्छी हो लेकिन छोटी-सी भी खबर अगर मैं पीट-पीट कर डंका उसका, फैलाता सब जगह सकारात्मकता आये ताकि सभी के भीतर भर जायें उमंग और ऊर्जा से जीवनदायी। प्रेरणा मुझे देते सदैव शिवशंकर सारा जहर स्वयं के भीतर सीमित रखते जो बनते हैैं माध्यम गंगा को जो धरती पर ले आने का मैं भी ऐसा संयंत्र चाहता हूं बनना जिसके भीतर से गुजर नकारात्मकता सब हो जाय खत्म थोड़ी सी भी हो मगर सकारात्मकता तो वह कई गुना होकर मेरे भीतर से बाहर निकले जिंदादिली सभी के जीवन में भर जाय। रचनाकाल : 11 अक्तूबर 2021

रावण

हर साल जलाता हूं बुराइयों के पुतले रावण को मैं हर साल मगर इसका कद पहले से भी बढ़ता जाता है अद्भुत है, मुझको होता तनिक न पछतावा खुश होता हूं हर बार, जलाऊंगा पहले से ज्यादा ऊंचे रावण को। फुरसत ही पाता नहीं, राम सा बनने की रावण के पुतले से लड़ने के चक्कर में दिन-रात मुझे बस ध्यान उसी का रहता है होता जाता हूं आदर्शों से दूर राम के रोज-रोज रावण की संस्कृति को अपनाता जाता हूं होकर भी रावण के खिलाफ, रावण जैसा ही बनता जाता हूं! रचनाकाल : 15 अक्तूबर 2021

रफ्तार

जब भी चढ़ता हूं पहाड़ पर हो जाती चाल धीमी भय लगने लगता है जिंदगी की सुस्त रफ्तार से। जब भी ढलान में उतरता था दौड़ता था सरपट तीव्र वेग से होती थी खुशी रफ्तार देख लगता था उन्नति खूब करता हूं। लेकिन अब जानता हूं भागते ही जाना तीव्र वेग से होता नहीं उन्नति का पैमाना दिशा सही हो न अगर लाती है तबाही रफ्तार तेज। भागती ही जा रही है दुनिया ढलान पर खुश हैैं सब तेज रफ्तार देख कोशिश करता मैं ऊपर चढ़ने की चाल मगर धीमी है लगने लगता है डर कभी-कभी टूट तो न जायेगा दम मार्ग में! करता हूं लेकिन विश्वास उन पर पहुंच चुके पर्वत शिखरों पर जो पूर्वज उनके पदचिह्नों पर चलता ही जाता हूं  मिलते हैैं रास्ते में कुछ ऐसे लोग भी लगता है जिनको दिशा गलत है विकास की दीखते हैैं लोग इक्का-दुक्का मुझे आगे और पीछे भी कुछ आते जाते हैैं बंधता है ढाढ़स कि सर्वथा अकेला नहीं हूं मैं कोशिश करता हूं मगर चाल थोड़ी तेज हो ताकि और लोग भी आकर्षित हों समाने के पहले समुद्र में उलट सके धारा विकास की। राह बेशक कठिन है और शक्तियां भी अल्प हैैं धारा पर बदलने को विकास की पूरी ताकत से कोशिश करता हूं लोग लेकिन तेज गति से कई गुना नीचे को भागते ही जात

आजादी और गुलामी

पराधीन था जब तक मैं सपने देखा करता था आजादी के थी नहीं मुझे मंजूर गुलामी की बेड़ी संघर्ष किया घनघोर मुक्ति पाने खातिर। मिलते ही लेकिन स्वतंत्रता त्रासदी हुई यह बड़ी हो गया आवारा स्वच्छंद अराजकता ने सबकुछ तहस-नहस ही कर डाला मैं समझ ही नहीं पाया बहुत दिनों तक आजादी का असली मतलब दुर्गति देख, यहां तक लगने लगा कि इससे तो वह पराधीनता अच्छी थी! अब फिर से मैं कर रहा घोर संघर्ष लड़ाई लेकिन यह खुद से ही है तोड़ी थी पहले पराधीनता की बेड़ी अब कठिन चुनौती खुद को अनुशासन में रख पाने की है दिखते हों भले दूर से दोनों एक-दूसरे जैसे पर बाहर से थोपा जाय जिसे, वह पराधीनता होती हैै अंदर से उसको अपनाने पर अनुशासन कहलाता है मैं अब भी पहले जैसा ही पाबंद चाहता हूं बनना हैै फर्क मगर बस इतना, वह पाबंदी मेरी खुद की हो खुद को अंकुश में रखकर ही सच्चे अर्थों में मैं स्वतंत्र बन सकता हूं रचनाकाल : 6 अक्टूबर 2021

सुख-दु:ख

अक्सर सुख के क्षण में मुझको यह डर लगने लगता है मैं कहीं समय तो नहीं व्यर्थ ही अपना करता जाता हूं! दु:ख-कष्टों के बीच अगर कुछ सार्थक नहीं किया तो भी भय नहीं सताता अर्थहीन ही समय बीतते जाने का सुख के दिन में पर काम नहीं लेता शरीर से उसकी अंतिम हद तक तो अपराधबोध मन में भर जाता नष्ट समय को करने का। इसलिये नहीं डरता दु:ख से, निश्चिंत भाव से सहता हूं  आते ही लेकिन सुख के हो जाता सतर्क अक्सर सुख ने ही मुझको अपने पथ से भरमाया है निर्मम इसीलिये हो जाता हूं मैं अपने प्रति जब तक सुख के दिन रहते हैैं, मैं खुद पर अंकुश रखता हूं। रचनाकाल : 3 अक्तूबर 2021

बचपन

बचपन में, जब मैं छोटा था, कई बातों से डर लगता था भइया जब देर से घर आयें, मां कहीं अंधेरे में जाये दिल धक्-धक् करता रहता था। ननिहाल में जब पढ़ता था, अक्सर लगता था क्यों दूर कर दिया मां ने मुझको अपने से जब बड़े डराने को कहते थे कोई बात भयानक मुझको सबकुछ सच्चा लगता था मैं छुप कर, सोते समय रात में घण्टों रोया करता था। जब बड़ा हुआ थोड़ा तो पहुंचा बाबूजी के पास रात को पर जब वे ड्यूटी पर जाते थे तो मन करता था रुक जायें वे कहीं न जायें आज की रात अकेले घर में आधी रात का सन्नाटा भय भरता था कुछ अनहोनी हो जाने का डर लगता था। कोई भी जान नहीं पाता था बचपन के उस भय को अनगिनती थे जो, लगते थे पर तुच्छ बड़ों की नजरों में तब मुझको लगता था होगा कुछ खास सयाना बनने में पर बड़ा हुआ तो जाना वह सब मृग-मरीचिका जैसा था बचपन में ऐसा लगता था हो जाऊं कितनी जल्द बड़ा होने के लेकिन बाद बड़ा, अब लगता है बचपन ही सबसे निर्मल था! त्रासदी मगर जो सहते हैैं हम बचपन में होते ही बड़े भूल जाते हैैं क्यों उन सभी अनुभवों को क्यों नहीं सोचते यह कि सोचते होंगे क्या बच्चे चीजों के बारे में जो बचपन हमको होकर बड़ा सुनहरा लगने लगता है क्या सचमु

दांव

मैं नहीं खेलता जुआ, मगर कई बार दांव पर जान लगा देता हूं अपनी अच्छे कामों की खातिर। मैं नहीं चाहता मिल जाये धन मुझको छप्परफाड़ कमाई मेहनत की बस देती मुझे सुकून पराया पैसा जहर सरीखा लगता है। रोमांच मगर जो होता है सट्टे में करता मुझको वह आकर्षित होता फिफ्टी-फिफ्टी चांस, नहीं तय रहता पहले से कुछ भी कंगाल और होने की मालामाल बराबर रहती संभावना बहुत बारीक वहां पर हो जाती है रेखा जीवन और मृत्यु के बीच विभाजन करती जो। बेशक मुझको भी लगता ईश्वर नहीं खेलता जुआ कहा करते थे जैसा अल्बर्ट आइंस्टीन भले ही दिखें न हमको कारण कुछ घटनाओं के पर होता नहीं अकारण कुछ भी दुनिया में अपवाद कहीं हो तो वह भी नियमों के भीतर होता है। सबकुछ लेकिन चल जाय पता यदि हमको पहले से ही तो जीवन नीरस हो जायेगा, रोमांच बिना जीना मुश्किल हो जायेगा। इसलिये राह जो दिखा गये हैैं पूर्वज अच्छे कामों की चलता हूं उस पर, नहीं उठाने से जोखिम भी डरता हूं  सर्वस्व दांव पर रखता हूं बच गया अगर जिंदा तो होगी अच्छाई की जीत मृत्यु ही मिली अगर तो होगी वह भी भव्य यही बस सोच, हमेशा भिड़ता अच्छाई की खातिर नि:संकोच जुआ-सट्टे से भी रोमांच मुझे मिलता है ज