शिकायतों का अंत


पहले मैं विचलित रहता था
ऐसा लगता था, नहीं मुझे मिलता प्रतिफल
जितना हक मेरा बनता है
नाराज हमेशा रहता था दुनिया से, सारे लोगों से
अहसानफरामोशी ही मुझको सबके भीतर दिखती थी
लेकिन जब ध्यान गया मेरा अपने भीतर तो सन्न रह गया
जितना भी मुझको मिला जिस किसी से भी
क्या मैंने उसका आभार जताया था!
क्या नहीं बोल सकती धरती, पशु, पौधे-पेड़
इसलिये उनका शोषण करने का अधिकारी मैं बन जाता हूं!
जिस प्रकृति ने दिया जीवन मुझको
क्या उसका दम घोंट, प्रदूषण फैलाना ही
मेरे भीतर की सच्ची मानवता है?
इतना अपार हूं ऋणी समूची धरती का
मेरे कि साथ जो होते हैं अन्याय
सभी वे तुच्छ बहुत अब लगते हैं 
शर्मिन्दा इतना ज्यादा हूं
सिर नहीं उठा पाता हूं करने खातिर कभी शिकायत
अद्भुत है कि नहीं अब दिखता कोई भी कृतघ्न
सबका मुझ पर अहसान कोई ना कोई है
मैं ही था नासमझ कि आधे भरे ग्लास की
खुशी मनाने के बजाय, यह करता रहा शिकायत
क्यों आधा गिलास खाली है!
रचनाकाल : 21 अक्टूबर 2021

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