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Showing posts from August, 2021

कोशिश

था समय कभी जब सरपट दौड़ा करता था ऊर्जा अथाह थी भीतर, थकता नहीं कभी फूलों के जैसा हल्का खुद को लगता था अब नहीं बची है शक्ति, देह पत्थर जैसी लगती भारी आगे बढ़ पाना पग दो पग भी दूभर होता जाता है लेकिन समेट कर मन की सारी शक्ति इंच दर इंच घिसट कर आगे बढ़ता जाता हूं है पता मुझे आयेगी जब यह घड़ी फैसला करने की कितनी कोशिश की थी कब आगे बढ़ने की यह इंच-इंच आगे बढ़ना उन सरपट चाल भरे दिन से भी साबित होगा मूल्यवान जैसे निर्धन का दान चंद पैसों का भी धनवानों के लाखों पर भारी पड़ता है। इसलिये मानता नहीं हार हो कठिन समय कितना भी देता नहीं ध्यान, कितना कर पाया काम सतत रखता निगाह बस इस पर कोशिश में तो कमी नहीं थी मेरे कोई मैंने कहीं निराशा में आकर मानकर हार हथियार तो नहीं दिये डाल! असफलताओं से तो घबराता मैं नहीं मगर थक कर रुक जाने से मुझको डर लगता है। रचनाकाल : 27 अगस्त 2021

खलनायक

बनना मैं चाहता हूं राम जैसा खुद को पर रावण के स्तर से भी नीचे गिरा पाता हूं सीता को उनकी जो इच्छा बिना छू भी नहीं सकता था। मंत्रमुग्ध करती है मुझको नैतिकता उन युद्धों की ढलते ही सूरज जब कोई भी वार नहीं करता था दुश्मन के शिविरों में जा करके मिलते थे एक-दूसरे से लोग प्रेम से। दशरथ से ले करके राजपूत राजों तक वचन पालन खातिर जान देने की अद्भुत मुझे लगती परम्परा मूल्यों की खातिर जो जीते थे दुर्लभ अब लगते हैैं लोग वह। गीता पर हाथ रख झूठ बोलते हैैं जब आज हम पूर्वजों की संचित नैतिकता को खत्म करते जाते हैंं  सोचते नहीं कि जब भविष्य में जरूरत पड़ेगी खुद को सही साबित करने की किसकी दुहाई देंगे खो देंगे सारा विश्वास जब! मूल्यों को करते हुए खोखला हम भी होते जाते हैैं खोखले राम के आदर्श तो अब स्वप्न जैसे लगते हैैं रेप-गैंगरेप जैसी खबरोंं से पटे पड़े देख कर अखबारों को होता नहीं होगा क्या रावण भी हमारे ऊपर शर्मिंदा! उसकी जगह खलनायक के स्थान पर हमको नहीं रखेंगी क्या आने वाली पीढ़ियां? रचनाकाल : 24 अगस्त 2021

जीवन अनमोल गंवाया माटीमोल

मैं भटकता रहा रत्नों की खोज में मुझको बेचैनी हरदम बनी ही रही रत्न पाने की सबसे जो अनमोल हो छान डाली इसी धुन में मैंने धरा पार बीहड़ गहन गिरि वनों को किया कोई कोना नहीं ढूंढ़ने को बचा तब अचानक हुआ मुझको अहसास यह खोज में जिसकी मैं जिंदगी भर भटकता रहा रत्न अनमोल तो मैं ही हूं वह स्वयं कीमती जिससे बढ़कर है कुछ भी नहीं वर्ष अरबों लगे हैैं परिष्कार में ऐसा तन मुझको मानव का दुर्लभ मिला जिसके बल पर नहीं था असम्भव कोई काम मेरे लिये! देह अनगढ़ मिली जो मुझे उसको गढ़ लेता तो मैं वो बन जाता हीरा दमक से चमक उठती जिसकी ये दुनिया सारी साधने की जगह खुद को लेकिन भटकता रहा बाहरी खोज में जिंदगी के अब इस आखिरी दौर में मैं हूं व्याकुल कि आखिर नहीं क्यों तराशा खुद को जो थी कस्तूरी मेरे ही भीतर उसे खोजने के लिये मृग के जैसे गहन गिरि वनों में भटकता फिरा हो के अनमोल हीरा भी खुद को नहीं गढ़ सका! रचनाकाल : 21 अगस्त 2021

अमीर-गरीब

मैंने सपना सुंदर देखा है कोशिश करता हूं उसे उतारूं कागज पर अद्भुत जो मैंने देखा है। उस सपने जैसी दुनिया को रचने की कोशिश करता हूं जीवन में सबकुछ बना सकूं जादुई उसी के जैसा ही दिन-रात यही धुन मन में चलती रहती है नुकसान-नफे का गणित परे रख लुटने को तैयार हमेशा रहता हूं। जितना ज्यादा पर लुटता हूं इस दुनिया में उस दुनिया में इससे भी ज्यादा मुझको मिलता जाता है बाहर से भले न हो पाऊं समृद्ध मगर भीतर से मैं सबसे अमीर दुनिया में बनता जाता हूं संगीत-गीत, कविताओं का अनमोल खजाना मिलता जो मुझे अदृश्य शक्ति से उसको सबके बीच लुटाता जाता हूं। पीड़ा लेकिन मन में होती यह सोच कि दुनियादारी में जो निपुण समझते हैैं खुद को लगता है उनको ठगते हैैं औरों को, लेकिन स्वयं ठगे जाते हैैं धन-दौलत से सुख पाने की मृग-मरीचिका के चक्कर में सपनों की अद्भुत दुनिया में कितने गरीब वे होते जाते हैैं! रचनाकाल : 11-17 अगस्त 2021

मध्यम मार्ग

बहुत सताता था पहले अपने शरीर को नहीं मानता था जब यह कहना मेरा जिद थी मेरी मैं नहीं चलूंगा इसकी मनमर्जी से इसको ही चलना होगा मेरे आदेशों पर। था बहुत भयानक भीतर का संग्राम जर्जरित था मैं भी, मेरा शरीर भी पहुंच गया था मरणासन्न अवस्था में तब अनायास ही ना जाने क्यों मुझको याद आये थे गौतम बुद्ध और जिन महावीर सहसा ही तब अहसास हुआ जो मानव देह मिली मुझको, यह तो है साधन मात्र अगर यह छूट गई वश में करते-करते ही तो दुनिया को बेहतर करने का, अपने हिस्से का फर्ज अदा आखिर कैसे कर पाऊंगा! तब से मैंने कर ली है सुलह स्वयं से अपना लिया है मध्यम मार्ग नजर तो अब भी रखता हूं खुद पर लेकिन शरीर को भी रखता हूं पुष्ट ताकि मनचाहा इससे काम ले सकूं दुनिया में। तब से ही मैंने छोड़ दिया नफरत करना आधुनिक तरक्की वाली तकनीकों से बेशक है मेरा परमाणु बमों पर कोई भी वश नहीं मगर मैं उन्हीं विनाशक अस्त्रों की तकनीकों से चाहता सृजन करना, दुनिया को बेहतरीन बनाने वाली चीजों का। छोड़ी थी मैंने खेती, मुझको लगता था बैलों को भी रखना गुलाम मानवता के अनुकूल नहीं हो सकता है हर्गिज लेकिन जब देखा मैंने, करते ही बेदखल खेत से बैलों को खेती क

कर्जमुक्ति

पंद्रह अगस्त का पर्व दिलाता है मुझको अहसास कि मैं जो खुली हवा में आज ले रहा सांस हमारे पुरखों ने इसकी खातिर अपने जीवन का मोल चुकाया है। मैं कर्जदार पाता हूं खुद को उनका, मुझको मिले खुला आकाश सभी अच्छाई मेरे भीतर की फल-फूल सके, इसकी खातिर जो नहीं झुके जुल्मी शासन के आगे, फांसी के फंदे पर झूल गये। अपराध मुझे लगता है जीना बस अपनी ही खातिर देती है मुझको आजादी जिम्मेदारी का अहसास कि मुझको गढ़ने में जाने कितनी पीढ़ियों का रहा हाथ सभी से कट कर मेरा अलग-थलग है कोई भी अस्तित्व नहीं। मानवता की जो अंतहीन श्रृंखला चली आई है उसका हिस्सा बन अपने हिस्से का सर्वश्रेष्ठ देने की कोशिश करता हूं स्वेच्छा से अनुशासित होकर, मानवता को समृद्ध बना अगली पीढ़ी को देकर के बेहतर भविष्य मैं कर्ज अदा पिछली पीढ़ी का करता हूं। रचनाकाल : 15 अगस्त 2021

दूसरी आजादी

घनघोर लड़ाई लड़ता हूं मैं खुद से खुद को दिला सकूं आजादी सारे ताकि दुर्गुणों से। अंग्रेजों से जो लड़े हमारे पूर्वज, वह था प्रथम चरण अपना कर्तव्य निभाया पूरी निष्ठा से उन लोगों ने अब लड़ना होगा हमें स्वयं से, रखना होगा ध्यान कहीं हम भी तो बनते नहीं जा रहे अंग्रेजों के जैसे ही? दुश्मन जब बाहर होता है तो लड़ना कठिन नहीं होता दुश्मन के जैसे ही लेकिन खुद हम भी यदि बन जायें तो खुद से ही लड़ पाना आसान नहीं होता प्रेरणा मुझे देता है अपने पुरखों का संग्राम गुलामों जैसा करने की खातिर व्यवहार लड़े थे वे विरोध में अंग्रेजों के शासन से अहसानमंद हैैं उनके हम, बाहरी शत्रु से मुक्ति दिलाकर मौका दिया उन्होंने हमको होकर के निर्विघ्न निहित अपने भीतर मानवी गुणों को विकसित करने का। आजादी का यह पर्व दिलाता मुझको हरदम ध्यान कि जिम्मेदारी अपनी भूल कहीं हो जाऊं ना स्वच्छंद डाल दूं कहीं न भीतर बैठे दुश्मन के आगे हथियार लड़ाई का है अब यह चरण दूसरा बदल गये हैैं दुश्मन, बदला लड़ने का मैदान निरंतर रहना होगा सजग मुझे अब खुद से ही। रचनाकाल : 9-10 अगस्त 2021

निंदा रस

जब दूषित था मन मेरा, सारी दुनिया को मैं अपने जैसा समझा करता था मौकापरस्त था जब तक, सबसे चौकन्ना ही रहता था अच्छे लोगों को भी मैं तब देता था यह उपदेश अकेले क्या कर लोगे अच्छाई से दुनिया में भेड़िये सभी हैं बाकी, यदि नाखून नहीं अपने पैने रक्खोगे तो वे तुम्हें नोंच कर खायेंगे। तब एक-दूसरे की निंदा मैं सबसे करता फिरता था कहता था सबसे यही, छोड़ कर तुम्हें एक बाकी सब तो नालायक ही हैं दुनिया में। लेकिन जब से अहसास हुआ है यह कि सभी से बढ़कर तो नालायक मैं ही हूं इस सारी दुनिया में इतना ज्यादा शर्मिंदा हूं, सिर नहीं उठा पाता हूं हरदम अपने मन की साफ-सफाई में ही समय बिताता हूं। धीरे-धीरे लाती जाती है रंग अथक कोशिश मेरी जैसे-जैसे मन निर्मल होता जाता है अद्भुत लगती है दुनिया सारे लोग किसी न किसी गुण में अब मुझको बेमिसाल से लगते हैं  थकता हूं नहीं प्रशंसा से लोगों की निंदा रस अब मुझको जहर सरीखा लगता है। रचनाकाल : 5 अगस्त 2021

चिंता और चिंतन

मन की चिंताएं देख बहुत मैं परेशान होता था पहले जब तक दूर न हो जायें चिंताएं मुझको चैन नहीं मिल पाता था होते ही चिंता दूर एक, तैयार दूसरी लेकिन मिलती थी दुष्चक्र सदा ही जारी मन में रहता था चिंताओं का। इससे भी ज्यादा बात भयानक पर थी यह कुछ क्षण को भी जब होता चिंतामुक्त कभी, मन बेलगाम हो जाता था लगता था तब इससे अच्छा तो था चिंतातुर रहना ही! इसलिये नहीं होने देता हूं मन को मैं अब पूरा चिंतामुक्त कभी निर्लिप्त जरा सा खुद को मन से रखता हूं अपने अनुकूल तर्क गढ़ने की कोशिश करता वह हरदम इसलिये हमेशा मापदण्ड कुछ निर्धारित कर रखता हूं मन को देता निर्देश कि उन नियमों पर उतरे खरा सदा मनमानी पर अपने मन की अब कड़ी नजर खुद रखता हूं। अद्भुत है, चिंतित रहने का अब समय नहीं मिल पाता है हो स्वयं परिष्कृत मन अब करता जाता है चिंताओं का भी परिष्कार दुनिया से खुद को जोड़, दृष्टि व्यापक कर वह चिंतन में समय बिताता है। रचनाकाल : 1 अगस्त 2021

अनुशासन की शक्ति

विषम परिस्थितियां ही अनुशासन की असल परीक्षा लेती हैैं कई बार टालना चाहा मैंने काम व्यस्तताओं के डर से सोचा सुकून से लिखूं-पढूंगा, काम निपट जायेंगे जब सारे लेकिन फुरसत के क्षण में मैंने पाया मन भी ठण्डा था लिखने को जो आवेग चाहिये था अदम्य वह तो व्यस्त क्षणों में ही बस सम्भव था! इसलिये नहीं अब करता कोई काम स्थगित निर्धारित है जिसकी खातिर जो वक्त उसी में उसको पूरा करता हूं होता जाता हूं धरती के जितना विशाल मन आसमान के जितना व्यापक होता जाता है सागर जितनी गहराई अपने भीतर अनुभव करता हूं। जितनी ज्यादा बढ़ती जाती है शक्ति, जरूरत उतनी ही जिम्मेदारी से रहने की बढ़ जाती है धरती को नहीं इजाजत होती अंगड़ाई भी लेने की ले सकते हैैं विश्राम नहीं सूरज या चांद सितारे पल दो पल को भी डर रहता है अनुशासनहीन जरा-सा भी हो गये अगर आ जाये ना भूकम्प कहीं, फट पड़े कहीं ना आसमान दुनिया को लील न जाये कहीं सुनामी क्रुद्ध समंदर की। अनुशासन मुझको लगातार व्याकता देता जाता है धरती-सूरज और चांद-सितारों जितना ही मैं शक्तिमान और धैर्यवान भी बनता जाता हूं। रचनाकाल : 21 जुलाई-4 अगस्त 2021