जीवन अनमोल गंवाया माटीमोल
मैं भटकता रहा रत्नों की खोज में
मुझको बेचैनी हरदम बनी ही रही
रत्न पाने की सबसे जो अनमोल हो
छान डाली इसी धुन में मैंने धरा
पार बीहड़ गहन गिरि वनों को किया
कोई कोना नहीं ढूंढ़ने को बचा
तब अचानक हुआ मुझको अहसास यह
खोज में जिसकी मैं जिंदगी भर भटकता रहा
रत्न अनमोल तो मैं ही हूं वह स्वयं
कीमती जिससे बढ़कर है कुछ भी नहीं
वर्ष अरबों लगे हैैं परिष्कार में
ऐसा तन मुझको मानव का दुर्लभ मिला
जिसके बल पर नहीं था असम्भव कोई काम मेरे लिये!
देह अनगढ़ मिली जो मुझे उसको गढ़ लेता तो
मैं वो बन जाता हीरा दमक से चमक उठती जिसकी ये दुनिया सारी
साधने की जगह खुद को लेकिन भटकता रहा बाहरी खोज में
जिंदगी के अब इस आखिरी दौर में
मैं हूं व्याकुल कि आखिर नहीं क्यों तराशा खुद को
जो थी कस्तूरी मेरे ही भीतर उसे खोजने के लिये
मृग के जैसे गहन गिरि वनों में भटकता फिरा
हो के अनमोल हीरा भी खुद को नहीं गढ़ सका!
रचनाकाल : 21 अगस्त 2021
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