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Showing posts from June, 2020

बहुरूपिये

रूप बदल आए हैं वे पहले आते थे रात के अंधेरे में और लूटपाट कर चले जाते थे अब वे सेवक बन कर आए हैं कई-कई दलों में आए हैं जाओगे कहाँ तुम जिसको भी वोट दो, चुनकर वही आएँगे अब तो घर भी नहीं आएँगे तुम्हें लूटने संसद भवन में बैठे-बैठे ही चट कर जाएँगे कितना बचोगे तुम? माहिर हैं वे रूप बदलने में जरूरत पड़ने पर कवि भी बन जाएँगे।

दु:स्वप्न

देखा था सपने में किसी को मरते हुए और जब नींद खुली रात के एक बजे रो रही थीं बिल्लियाँ। हैरान होकर सोचता हूँ इन्हें कैसे मालूम मेरे दु:स्वप्न के बारे में! तो क्या ये भी हैं उसी का हिस्सा और जारी है अभी स्वप्न? उठता हूँ जब सुबह स्मृतियाँ हो चुकती हैं गड्ड-मड्ड और निर्णय नहीं कर पाता। स्वप्नों पर मेरा कभी विश्वास नहीं रहा उनके फलों पर तो कदापि नहीं पर चीजें आजकल इसी तरह गड्ड-मड्ड होती हैं पता ही नहीं चलता कि स्वप्न चल रहा है या यथार्थ। दरअसल दोनों का रूप आजकल एक जैसा होता है आप निर्णय नहीं कर सकते कि कौन ज्यादा भयावह है और होती है आपके धैर्यबल की परीक्षा, इसी समय अगर आप बहादुर हैं तो कर लेते हैं आत्महत्या और हो जाते हैं एक ही झटके में सारे तनावों से मुक्त और अगर ज्यादा बहादुर हैं तो सहते जाते हैं सब कुछ और हद से गुजर जाने के बाद होकर पागल बड़बड़ाते रहते हैं अपने आप। महानगरों की जीवनशैली किसी तीसरे विकल्प की इजाजत नहीं देती। पर एक और विकल्प है अवश्य जिसे अपना सकें अगर आप तो जिंदगी हो सकती है बेहद आसान करना कुछ खास नहीं है आपको बस हो जाइए शामिल चोरी-डकैती-लूटपाट-बलात्कार की घटनाओं में और लीज

कोल्हू का बैल

आफिस में काम का पहाड निबटा पकड़ता हूँ जब दौड़ते-भागते अंतिम बस मन चिड़चिड़ाहट से भर जाता है नहीं आती ठीक से नींद पीछा करते हैं दु:स्वप्न और जब उठता हूँ सुबह नहीं होता ताजगी का अहसास जैसे परोस दिया गया हो आज जीने के  लिए बासी बचा दिन। सोचता हूँ कोई और विकल्प लेकिन कुछ नहीं सूझता कहाँ मिलती है आजकल नौकरी यहाँ कम से कम वेतन तो ठीकठाक मिल जाता है फिर भले ही लिया जाता हो काम कोल्हू के बैल की तरह। याद आते हैं पुराने दिन पढ़ी-सुनी बातें, कोल्हू के बैल की और गाँव के कोने में रखा भारी भरकम कोल्हू जिसे खींचते रहे होंगे बैल कभी, आँखों पर पट्टी बाँधे क्या सचमुच हम हकदार थे उस शोषण के! अपनी संवेदनाओं के पैर पर ऐसी अनगिनत कुल्हाड़ियाँ मारी हैं हमने दूसरों की मेहनत के बल पर खा-खाकर पथरा गई है हमारी देह फिर कैसे कर सकते हैं गिला-शिकवा! अगर नहीं उपलब्ध हैं आज बैल या खर्चीला हो गया है उन्हें पालना तो हममें से ही तो उनसे लिया जाएगा काम जो हैं आर्थिक रूप से कमजोर। इसी बहाने सही, अहसास तो हो हमें अपने अत्याचारों का, मूक प्राणियों के प्रति। अगर अपनी जरूरतें घटा, बन कर आत्मनिर्भर जाग्रत कर सके हम अपनी संवेदन

ताकि सनद रहे

लिख रहा हूँ यह कविता ताकि सनद रहे निर्णायक मोड़ पर पहुँच चुकी है अग्निपरीक्षा नहीं जानता कल रहूँ न रहूँ असम्भव सा हो गया है पीठ के बल लेटना और जब लेटता हूँ पेट के बल दुखने लगता है सीना। यह तो हुई शारीरिक बात मानसिक अवस्था भी उत्साहजनक नहीं है कल फिर समझा रहे थे प्रतिष्ठित कवि शुक्लजी के पुत्र मेरा हठ देख गुस्सा भी हुए ‘जानते हैं पिताजी के तीन उपन्यासों की कितनी रायल्टी देता है प्रतिष्ठित प्रकाशन! साल भर में तीन-सवा तीन हजार रु पए सिर्फ’ कहा था उन्होंने और आगाह किया कि भाड़ में न झोंकूँ बच्चों का भविष्य। पर अब हाथ में कहाँ रहा यह सब मेरे! बीज तो बो चुका था बहुत पहले ही और अब फूलने-फलने को तैयार हरा-भरा पेड़ काटना, मेरे बस में नहीं क्या यह कठिन नहीं है अपने ही पुत्र की हत्या के समान? भले कड़वा लगे दुनिया को पर अब तो उसी पेड़ का फल बाँटना मेरा कर्तव्य है स्वादिष्ट भले न हो, पर स्वास्थ्यवर्धक यह अवश्य है हो सकता है सालों लग जाएँ दुनिया को यह समझने में और विदा ले चुका होऊँ मैं तब तक सीता की तरह देकर अग्निपरीक्षा। उसी दिन के लिये लिखे जा रहा हूँ मैं कि न डरे कोई आग से भस्म भी हो गया अगर मैं

जीवन गीत

दोनों सिरों से जला ली है मैंने अपने जीवन की मोमबत्ती अद्भुत प्रकाश है पर यह हमेशा नहीं रहेगा तेजी से खत्म हो रहा समय अब नहीं कोई अर्थ मृत्युभय जैसे शब्दों का जब वरण ही कर लिया। बेमानी हो गई हैं सारी पीड़ाएँ शिकवा-शिकायतों का समय नहीं जितनी जल्दी हो सके करना होगा काम खत्म खाक होने के पहले ले लेने होंगे सारे काम इस देह से। मौसम मनोहारी है आसमान में छाए हैं घने बादल और गूँज रहा है चिड़ियों का कलरव पर यह सब देखने-सुनने का समय नहीं अनसुनी करनी होंगी बच्चों की शिकायतें अनदेखा करना होगा घर का अभाव निजी चिंताओं का यह समय नहीं अर्जुन की तरह साधनी होगी दृष्टि कि दिखाई दे सिर्फ लक्ष्य। सुनाई दे रही है मृत्यु की आहट तेजी से चलाने होंगे हाथ प्रकाश बुझने के पहले लिपिबद्ध करना होगा सारा कुछ बाँटने होंगे अपने अनुभव नई पीढ़ी को देनी होगी सीख कि जीवन कभी खत्म नहीं होता बेशकीमती है यह, जीना जरूरी है पर इससे भी जरूरी होती हैं कई चीजें अनमोल होते हैं कई मूल्य जिन्हें बचाने खातिर दिया जा सकता है जीवन कि जीवन की सुंदरता सिर्फ जीने में नहीं इसके मूल्य बचाए रखने में है।

जहाज का पंछी

घाटे में तो नहीं हूँ जानता हूँ कि नहीं दे पाएगा नौकरी का आधा भी लेखन फूलों की सेज नहीं, काँटों का पथ है वह फिर भी अगर छोड़ना चाहता हूँ नौकरी चाहता हूँ किताब छपे तो सिर्फ इसलिए कि वही मेरा देश है छह वर्ष के साथ के बाद भी अजनबी लगती है नौकरी। बर्दाश्त कर सकता हूँ अभाव सह सकता हूँ घर का असंतोष कठिनाई यह है पर तिकड़म नहीं जानता पैसे देकर किताब छपाना बेशर्मी मानता। इसीलिए रहा आया यहाँ भी फिसड्डी होता रहा आहत। कर रहा अंतिम प्रयास अब भेज रहा पाण्डुलिपि प्रतिष्ठित प्रतिष्ठान में छापा अगर उन्होंने तो छोड़ दूँगा नौकरी। सच तो पर यह है कि मानता हूँ हर प्रयास अंतिम मन नहीं मानता। जहाज के पंछी जैसा बार-बार उड़ता है लौटता है बार-बार। सब कुछ जहाज पर है खाने या पीने की किंचित असुविधा नहीं घर लेकिन नहीं वह। नौकरी भी ऐसी है। लौटना मैं चाहता घर कविता के पास रास्ते में बैठे पर कितने ही मठाधीश पहुँचने नहीं देते घर। व्याकुल पंछी की तरह उड़ता मैं बार-बार लगाता हूँ चक्कर दीखता न कोई ठाँव छूटता नहीं जहाज।

विश्वसनीयता का संकट

बहुत दिनों से कहीं कुछ भेजा नहीं रोज लिखता हूँ एक घण्टे अच्छी खासी तैयार हो गई हैं रचनाएँ सोचता हूँ फिर भेजूँ पर पलटता हूँ जब डायरी के पन्ने कि कहाँ-कहाँ भेज चुका हूँ कौन-कौन सी रचनाएँ तो सहसा ही दिल बैठ जाता है। छह महीने पहले ही भेज चुका हूँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अपनी सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ अगर वही नहीं छपीं तो किस मुँह से भेजूँ दुबारा? याद आती हैं प्रख्यात कवि शुक्लजी की बातें कि डरती हैं पत्रिकाएं नयों को छापने में चोरी-चकारी बहुत चलती है आजकल कि पता नहीं कौन किसकी भेज दे अपने नाम से रचनाएँ। हाँ, एक बार छप गए अगर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में तो आसान हो जाती है राह कि रचनाओं से ज्यादा मायने तुम्हारा परिचय रखता है। पर नहीं तोड़ पाता वही पहला चक्रव्यूह मैं और लगाता रह जाता चक्कर, बाहर ही बाहर। यद्यपि चाहूँ तो ले सकता हूँ प्रख्यात कवि की  सिफारिश और बना सकता हूँ राह आसान पर कविता के माथे यह धब्बा सा लगता है और चुल्लू भर पानी में मन डूब मरता है नहीं, झेलना ही होगा मुझे- विश्वसनीयता का संकट देनी ही होगी बलि, अपनी रचनाओं की ताकि दूर हो सके मैल, छँट सके कालिमा पाक साफ हो सके, कविता का दाम

महानगर में उदासी

अनथक श्रम के बावजूद जब पड़ती है आफिस में डाँट फुंकार उठता है मेरे भीतर का सर्प और बड़ी मुश्किल से रोक पाता हूँ उसे जहर उगलने से। नहीं आती देर रात तक नींद और बदलता रहता हूँ करवट। सुबह की सैर में होता है मन कुछ शांत कि बगल के अस्पताल से डेड बॉडी निकलते देख फिर हो जाता हूँ उदास। बच्चे बताते हैं कि जा रहे हैं उनके दोस्त कहाँ-कहाँ घूमने, गर्मी की छुट्टियों में समझते हुए भी उनका आशय चुप रहता हूँ, अनभिज्ञ बन क्योंकि जानता हूँ कि छुट्टी मिलेगी न बजट बनेगा कि जीना होगा इसी घुटन में घर से आफिस और आफिस से घर के बीच लगाते हुए चक्कर दिक्कत यह है कि आफिस तो आफिस ही होता है पर किराये के घर में जीवन गुजारना भी किसी चुनौती से कम नहीं होता। याद आता है गाँव, पर वह भी जीने लायक नहीं रहा आर्थिक अभावों ने उनके तन और ईर्ष्या-द्वेष ने मन को दूषित कर डाला है। जाने क्यों पुरानी फिल्मों की तरह बचपन के गाँव की स्मृतियाँ भी स्वप्नवत् लगती हैं। और बजाय उसके वर्तमान में लौटने के महानगर की उदासी ही बेहतर लगती है।

जार्ज बुश के सपनों का भारत

बेचैन हूँ कई दिनों से लिखना चाहता हूँ कविता बेहतरीन गद्य लिखा है मैंने पर यथार्थ पर तो मेरा बस नहीं! यहाँ से तो किया जा रहा दिनोंदिन बेदखल और लेना चाहता हूँ शरण कविता की ताकि पा सकूँ कुछ रस शुष्क होते जीवन में। पर सूख गया है अंतस भी मानो रेगिस्तानी अंधड़ में। नहीं फर्क पड़ता लोगों को कविता से बदल गई हैं रुचियाँ उनकी डिस्को करते झूमते हैं वे पश्चिमी संगीत पर पीते हुए पेप्सी कोला बातें करते हैं वे शाहरु ख के सिक्स पैक या ऐश्वर्या राय की। अगर नहीं हुए वे रसिया तो हो सकता है उनका प्रिय विषय सचिन तेंदुलकर या सानिया मिर्जा। प्रबुद्ध हुए अगर वे तो रम सकते हैं राजनीति में आए दिन होने वाले चुनाव और परिणामों के आँकड़े देते हैं रोमांच उन्हें क्रिकेट मैच के स्कोर जैसा। अगर अंतर्राष्ट्रीय रुचि के हुए तो जार्ज बुश हो सकते हैं बातचीत के उनके प्रिय विषय। हर तरफ से निराश होकर लीन हो जाना चाहता मैं खेतिहर कामों में धरतीपुत्रों के साथ। पर होते ही वहाँ लोडशेडिंग या पेट्रोलियम की किल्लत पहिये जब थमते हैं ट्रैक्टर के बंद होती है जुताई, सिंचाई या थ्रेशरिंग वहाँ खड़ा पाता जार्ज बुश को मनमुताबिक खींचते या ढीलत

काँटों वाले फूल

बड़े अरमानों से बोये थे मैंने फूल सदा से ही आकर्षित करते रहे हैं वे मुझे  नाच उठता है मन उन्हें देख इसीलिए उगाना चाहता था मैं भी। पर मैं दुनियादार न था नहीं खरीदे थे गमले मेरे लिए वे जीवन का हिस्सा थे शोभा की वस्तु नहीं इसीलिए लगाया था, आँगन के बीचोबीच। अपार खुशी हुई उन्हें उगते और बढ़ते देख अच्छी डीलडौल पाई है उन्होंने घेर लिया है धीरे-धीरे पूरा आँगन दी थी कुछ लोगों ने सलाह उन्हें काट-छाँट कर तराशने की कि इस तरह छेंकना पूरा आँगन (या जीवन) अच्छी बात नहीं। दिखाए थे उन्होंने अपने गमले कि किस खूबी से इस्तेमाल करते हैं सौंदर्य का पर जब भी उठाई मैंने कैंची कोशिश की छाँटने की मेरे शरीर पर ही लगते रहे घाव और होता रहा लहूलुहान बहुत दिनों बाद जाना यह कि नाभिनालबद्ध था वह मेरे ही साथ इसीलिये लगते रहे मुझे सारे घाव। जवान होने लगा वह बनने लगी हैं कलियाँ खिल उठेंगी फूल बन जो कुछ ही दिनों में। पर हुई है एक नई बात काँटे जो कोमल थे सहलाते थे अब तक होते जा रहे सख्त। वे तो सहलाते हैं आते-जाते वैसे ही खून निकल आता पर अब। जैसे-जैसे आता समय फूलों के खिलने का बढ़ती जाती है चुभन। चूँकि नाभिनालबद्ध हूँ समझता

धरतीपकड़

अच्छा लग रहा है पेज इन दिनों कोई भी बड़ी घटना-दुर्घटना देख आँखें चमक उठती हैं अच्छी लीड, अच्छा एंकर और एक-दो बाक्स आइटम मिल जाय और क्या चाहिए एक उपसंपादक को! सोचता हूँ अगर मर जाएँ मेरे प्रियजन भी कभी किसी हादसे में तो ऐसी ही निर्लिप्तता से लगा सकूँगा उसे लीड! कह सकूँगा वरिष्ठों से कि आई है एक अच्छी (बड़ी) खबर! याद आता है अपने बचाव में तब डाक्टरों का उदाहरण काँपते हैं जिनके हाथ प्रियजनों के आपरेशन में कि जरूरी होती है तटस्थता, इलाज के लिये पर इसका मतलब संवेदनहीनता तो नहीं! इसीलिए अब दबा देता हूँ खबरें जब करती है कोई बेटी अपने बाप की हत्या बच्चियों पर करते हैं नाबालिग दुराचार या फेंकती है माँ अपने बच्चों को कुएँ में ..और कच्चा रह जाता हूँ, वरिष्ठों की नजरों में। पाते हैं मेरे सहयोगी तरक्की-दर-तरक्की और सनसनी दबाने का मिलता है मुझे कुछ इस तरह पुरस्कार कि हर साल इंक्रीमेंट की घोषणा पर जमा रह जाता हूँ अपनी सीट पर अंगद के पाँव की तरह। अब तो साथियों ने मेरा नाम ही धरतीपकड़ रख दिया है।

विनाश के बाद

समय, धीरे चलो धीरे चलो समय इतनी जल्दी भी क्या है! तुम्हारी रफ्तार तो इतनी तेज है कि हफ्तों लग जाते हैं कभी-कभी तुम्हें पाने में, भागते-भागते। कुछ नहीं रखा आगे बल्कि अगर मैं कहूँ कि विनाश ही है वहाँ तो चौंक मत उठना तुम। नहीं समय- डालकर हम पर सम्पूर्ण भार दोषमुक्त नहीं हो सकते तुम। हम तो झाँकते हैं जितना भी सुदूर अतीत में गलत ही नजर आती है तुम्हारी दिशा। हमने तो बस हासिल था जो केवल राजों-महाराजों को सर्वसुलभ कर दिया उसे प्रजा को भी राजा बना दिया। सच कहना समय क्या हमारी नीयत खराब थी? शायद तुम कहो कि राजा को ही मिटा देना चाहिये था हमें उसकी निरंकुशता के साथ-साथ उसके ऐशो-आराम पर भी विराम चिह्न् लगा देना चाहिये था। पर यह तो हमारा- जीवन लक्ष्य था समय, इसे भला हम कैसे मिटा देते! बल्कि निकाल कर एकाधिकार से हमने इसे सर्वसुलभ किया तो क्या यह क्रांति नहीं थी? नहीं समय, यह सर्वग्रासी विकास दस-बीस या सौ-दो सौ साल का नहीं इसकी नींव तो बहुत पहले ही पड़ चुकी थी तुम्हारी कोख में। (कौन जाने, तुम्हारा वह आदर्श वैदिक युग कभी था भी अथवा कल्पना ही था) फिर अकेले हमें कैसे दोषी ठहरा सकते हो तुम! नहीं, हम भाग न

हमला

अखबार में छपी थी खबर सचित्र मूक मोर्चा निकाला था बुद्धिजीवियों ने हमला हुआ था नामी संपादक के घर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ। लेखक होने के नाते उसे भी मिला था आमंत्रण प्रदर्शन में शामिल होने का विचित्र थे किन्तु उसके तर्क हमले को भी वह मानता था अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता यह और बात है कि तरीका यह असभ्य था। इसीलिये वह शामिल नहीं हुआ था मोर्चे में। ..और फिर आया वह दिन भी जब उसके घर हमला हुआ पर नहीं आया समर्थन में कोई आगे क्योंकि नहीं शामिल हुआ था वह किसी के मोर्चे में समूची मानवता का पक्ष लेने के चक्कर में वह सबसे अलग हो गया था किसी को नहीं हुई थी उस पर हमले में आपत्ति क्योंकि वह उनके गुट का नहीं था और मानवता नाम का कोई गुट नहीं था।

सपने में आतंकवादी

पता नहीं वे नक्सली थे या आतंकवादी मेरी पाण्डुलिपियों से भरी पेटी की तलाशी ले रहे थे। वे खुद नहीं ले रहे थे बंदूकें भी उनके हाथ में नहीं थीं पर कंधे के पीछे झुकी आँखें उस देश के सम्माननीय कवि के नाते मेरे प्रति बरते जा रहे उनके सम्मान को ढोंग साबित कर रही थीं। अब याद आया- वह ईराक था और वे अमेरिकी सैनिक। मेरी पेटी में वे किसी ईनामी आतंकवादी का कोई ऐतिहासिक वक्तव्य ढूँढ़ रहे थे। बड़ा बवाल उठाया था उन्होंने उस वक्तव्य पर लेकिन शर्मनाक था यह कि पूरे देश की तलाशी के बावजूद वे उसकी एक भी प्रति ढूँढ़ नहीं पाये थे। मैं उस आतंकवादी से इत्तफाक नहीं रखता था और जानता था कि ऐसी कोई बरामदगी मेरी पेटी से असंभव है पर उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था मेरे हाथों से झपटते हुए करीब-करीब सारी पाण्डुलिपियाँ वे तार-तार किये दे रहे थे। आखिर जब झल्ला कर पेटी ही सौंप दी मैंने उन्हें तो उतर आए वे असली रूप पर और गुर्राते हुए बंदूक उठा ली। उस आतंकवादी की बनिस्बत इन सफेदपोश रक्षकों को देख मेरी कँपकँपी छूट रही थी और नींद खुलने के बाद यह जानते हुए भी कि वह स्वप्न था मैं अपनी कविताओं की चिंदियों को चारों तरफ टटोल रहा था।

मशीनों का शहर

हफ्ते में सिर्फ एक दिन मिलती है छुट्टी लेकिन उस छुट्टी के बाद, जब आता हूँ ड्यूटी आफिस पराया लगने लगता है। ऐसा ही दिन है आज बाहर आसमान पर बादल छाये हैं रेडियो पर संगीत बज रहा है और कम्प्यूटर के सामने बैठे हुए मुझे रुलाई आ रही है। अजनबी लगता है संस्थान मेरे सपने दूसरे देश में बसते हैं। मैं नहीं बनना चाहता मशीन करना चाहता हूँ खुली हवा में काम खेतों में, खलिहानों में और जब हो जाऊँ थक कर चूर रचना चाहता हूँ कविता सुनना चाहता हूँ कहानियाँ बड़े-बूढ़ों की अनुभवी जुबान से गाँव की चौपाल में। भूलता नहीं मुझे अपना गाँव लौटना चाहता हूँ बार-बार उसकी गोद में लेकिन हर बार थाम लेता है मेरा कदम भूखों मरने का भय हावी हो जाता है दिमाग पर। वह बचपन वाला गाँव भी तो नहीं रहा अब जाऊँ भी अगर कभी तो, उजाड़ सा लगता है लील गए हैं सारे युवकों को देश के महानगर और जो बच गए हैं जाने से उनकी दशा देखी नहीं जाती। जानता हूँ कि मेरे गाँव में रहने का यह सर्वाधिक जरूरी समय है कि सबसे महत्वपूर्ण कविता वहाँ देख रही है मेरी राह लेकिन चाहने पर भी बार-बार नहीं जुटा पाता साहस अपने साथ पत्नी-बच्चों को भाड़ में झोंकने का। तिल-तिल कर मरते

नौकरी

आफिस की व्यस्तताओं के बीच सहसा महसूस होती है प्यास डिब्बे का पानी गरम देख चला जाता हूँ नल पर और नजर आती हैं वहाँ डूबते सूरज की अंतिम किरणें अनजाने ही बेचैन हो उठता है मन इस भय से, कि घरवाले खीझ रहे होंगे कि कहाँ घूम रहा हूँ अब तक हालाँकि अगले ही पल समझ जाता हूँ वास्तविकता कि अब मैं आवारा नहीं, नौकरीपेशा हूँ कि घर वाले चिंतित नहीं होंगे (मुझे अनुपस्थित देख) कि अब मैं काम से लग गया हूँ। पर मन अवसादग्रस्त हो जाता है यह सोचकर- कि लोग जब समझते थे मुझे आवारा क्या नहीं रहता था तल्लीन मैं इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण कामों में! फर्क सिर्फ इतना है कि उसके पैसे नहीं मिलते थे। अब क्लर्की करता हूँ और आठ हजार पाता हूँ घर वाले खुश हैं लोगों की नजरों में सम्मानित हूँ क्योंकि कमाता हूँ। कब दिन बीत जाता है मुझे भी पता नहीं चलता यह सोच कर मन कभी-कभी उदास जरूर हो जाता है- कि पहले वाले कामों के पैसे भले नहीं मिलते थे पर उससे दुनिया थोड़ी बेहतर जरूर हो सकती थी मनुष्यता थोड़ी बची जरूर रह सकती थी।

अंधेरे में

तनी हुई रस्सी है दोनों ओर खाई है चलना ही जीवन है रुकना ही मृत्यु। जानता है आदमी वह चलता ही जाता है इस छोर से उस छोर उस छोर से इस छोर। कहीं कोई पड़ाव नहीं न ही कोई लक्ष्य दीखती हैं चारों ओर खाइयाँ ही खाइयाँ अंधकार ही अंधकार। सोचता भयभीत वह यहाँ कहाँ आ गया दीखता न कोई कहीं सुनसान बियाबान। सहसा करता है याद साथ में तो भीड़ थी रास्ता वह भटका नहीं छूटे फिर लोग कहाँ? आता है उसे याद छूटते गए थे लोग लेते हुए शार्टकट, सामने तो उसके पर सीधा पथ यही था। इतना भी याद नहीं हो गया अकेला कब धुन में ही अब तक तो चला आया यहाँ तक। क्या करे कहाँ जाय आगे पथ दुर्गम है पीछे भी कहीं कोई दीखता न दूर तक। चक्कर लगाते हुए इस छोर उस छोर बीतती है जिंदगी मरता है तिल-तिल। जानता है यह भी वह काटते ही रस्सी पहुँच तो वह जायेगा इस पार या उस पार पुल मगर टूटेगा। क्या करे कहाँ जाय बढ़ जाय आगे या खींच ले पीछे पैर सूझता ही नहीं कुछ। इसी कशमकश में वह चलता ही जाता है इस छोर, उस छोर। मन में तो लेकिन पर बढ़ता ही जाता है क्षण-क्षण, पल-पल घमासान-घमासान। लगता है जल्दी ही सुबह होने वाली है।

डरा हुआ आदमी

घूरती हैं उसकी लाल, बड़ी-बड़ी आंखें और मैं हँस पड़ता हूँ डर कर। बड़े ऊटपटांग सपने आ रहे हैं इन दिनों यथा, परसों ही देखा था अपने ढाई वर्षीय पुत्र को मेरी चिता को अग्नि देते। ‘कितनी गहन त्रासदी है’ सोचा था मैंने और निश्चय किया था अभी जीने का बजाय इस तरह उसे छोड़ जाने अबोध। इन दिनों ढूँढ़ रहा हूँ जीने के बहाने। कहीं डर तो नहीं रहा मैं अपने उस संकल्प से किया था जो कभी तीस-पैंतीस के बीच चल देने का? रोज ही निकल रहे हैं नये-नये निष्कर्ष इन दिनों यथा, उस दिन निकाला था हमने (मैंने और कुमार ने) कि पत्थर सबसे जीवंत होते हैं और सबसे जड़ मनुष्य नहीं, यह अतिशयोक्ति नहीं थी हमें खुद भी आश्चर्य हुआ था पर तार्किक रूप से ही पहुँचे थे हम इस निष्कर्ष पर कि शुरू में एकदम आदमी भी रहा होगा मौलिक कि भिन्न होता रहा होगा दूसरों से सारा कुछ, उसका अपने आप में अनूठा पर धीरे-धीरे विकसित कर सम्प्रेषण का माध्यम काट-छाँट कर मनोभावों को देता गया आकार वह। इसी तरह ढाल कर साँचे में सारा कुछ होता गया जड़ और इतना हुआ जड़ कि खोता गया प्रकृति प्रदत्त सारी संवेदनाएँ चूँकि थोड़ा-बहुत सम्प्रेषण कर लेते हैं पशु-पक्षी भी अस्तु वे भी साबित ह

गर्म हवा-2

हम एक हैं सुना तुमने पाकिस्तान! बड़ी भूल की तुमने भेज कर सैनिक अपने। इसलिए नहीं हारे तुम कि सैनिक कमजोर थे तुम्हारे बल्कि हम सब पीछे थे सैनिकों के हमारे। देखा नहीं तुमने पहुँच गई थी हमारी समूची फिल्म इंडस्ट्री सैनिकों के पास हमारे! बजाय क्रिकेट के खेली थी फुटबाल खिलाड़ियों ने हमारे। माना कि जोशीले हो तुम बर्दाश्त नहीं कर सकते हार पर क्यों नहीं समझ पाए तुम कि हम सब एक हैं संकट में हमारे! बहुत सहनशील हैं हम क्या हुआ जो काफिर हैं नजरों में तुम्हारे। पर सच कहें पाकिस्तान! सारी खुशियों के बाद भी कहीं कोई टीस सी उठती है मन में कि काश! तुम भी हो सकते हमारे। क्या नहीं समझ पाए तुम कि सारे कोलाहल के बावजूद हमारा जो बुद्धिजीवी था चुप क्यों था!

गर्म हवा-1

बज उठता है लाउडस्पीकर जब देशभक्ति का गीत सुन काँप उठता है मन सहसा कहीं छिड़ तो नहीं गई लड़ाई! अभी-अभी तो सुना था दोपहर का समाचार पर घबरा कर चालू कर देता हूँ फिर से रेडियो और करता हूँ प्रतीक्षा धड़कते हुए दिल से अगले समाचार की। समय बड़ा कठिन है रोज मर रहे हैं लोग सीमा पर- आकाशवाणी पर पचासों और बीबीसी पर सैकड़ों। अभी-अभी घटी है पिछले समाचारों में मुद्रा स्फीति दर दो दशमलव शून्य पर और मैं हँस पड़ा था खिलखिलाकर अचरज की बात पर भूल कर इस समय को। जाने कहाँ खो गये इन दिनों समाचार कारगिल के आगे। एकजुट है सारा देश घोषणा की है पार्टिर्यों ने। रंगे हुए हैं इन दिनों अखबार के अखबार नेताओं-अभिनेताओं या फिर खिलाड़ियों के जोशीले बयानों से। पर जो बुद्धिजीवी हैं चुप क्यों हैं इन दिनों! क्यों नहीं कहते कुछ पक्ष या विपक्ष में? मौसम उतार पर है जून का आरंभ है पर हवा बड़ी गरम है।