कोल्हू का बैल


आफिस में काम का पहाड निबटा
पकड़ता हूँ जब दौड़ते-भागते अंतिम बस
मन चिड़चिड़ाहट से भर जाता है
नहीं आती ठीक से नींद
पीछा करते हैं दु:स्वप्न
और जब उठता हूँ सुबह
नहीं होता ताजगी का अहसास
जैसे परोस दिया गया हो आज जीने के  लिए
बासी बचा दिन।
सोचता हूँ कोई और विकल्प
लेकिन कुछ नहीं सूझता
कहाँ मिलती है आजकल नौकरी
यहाँ कम से कम वेतन तो ठीकठाक मिल जाता है
फिर भले ही लिया जाता हो काम
कोल्हू के बैल की तरह।
याद आते हैं पुराने दिन
पढ़ी-सुनी बातें, कोल्हू के बैल की
और गाँव के कोने में रखा भारी भरकम कोल्हू
जिसे खींचते रहे होंगे बैल कभी, आँखों पर पट्टी बाँधे
क्या सचमुच हम हकदार थे उस शोषण के!
अपनी संवेदनाओं के पैर पर
ऐसी अनगिनत कुल्हाड़ियाँ मारी हैं हमने
दूसरों की मेहनत के बल पर खा-खाकर
पथरा गई है हमारी देह
फिर कैसे कर सकते हैं गिला-शिकवा!
अगर नहीं उपलब्ध हैं आज बैल
या खर्चीला हो गया है उन्हें पालना
तो हममें से ही तो उनसे लिया जाएगा काम
जो हैं आर्थिक रूप से कमजोर।
इसी बहाने सही, अहसास तो हो हमें
अपने अत्याचारों का, मूक प्राणियों के प्रति।
अगर अपनी जरूरतें घटा, बन कर आत्मनिर्भर
जाग्रत कर सके हम अपनी संवेदनाएँ
तो समय अभी भी चुका नहीं है
प्रतीक्षा में हमारी, बांहें फैलाए खड़ी है प्रकृति।

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