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Showing posts from August, 2023

अनासक्ति योग

पहले मैं जो पाने की इच्छा रखता था जी-जान लगाकर उसके पीछे पड़ता था मिलने पर होती इतनी ज्यादा खुशी कि अनुशासन हो जाता ध्वस्त अराजक दिनचर्या हो जाती थी असफल रहने पर भी लेकिन इतना ज्यादा होता हताश अनुशासित जीवन छोड़ कई दिन गुमसुम जैसा रहता था। इसलिये नहीं अब फल के पीछे पड़ता हूं मेहनत तो करता खूब मगर परिणाम सदा ईश्वर पर छोड़ा करता हूं बस यही प्रार्थना करता हूं जो भी हो मेरे लिए उचित मेरे हिस्से वह दे देना सुख हो या हो दु:ख-कष्ट सफलता-असफलता ईश्वर का मान विधान सदा सिर-माथे पर वह रखता हूं अनुशासन भंग नहीं होता करता हूं जो भी काम हमेशा होता है वह अद्वितीय डरता था नीरस मान जिसे वह अनासक्ति का योग मधुर अब सबसे ज्यादा लगता है। रचनाकाल : 25 अगस्त 2023

विचारों की फसल

‘मैं नहीं छोड़ जाऊंगा धन-संपदा विरासत में कोई बीमा भी कोई नहीं कि मरने पर तुमको प्रतिदान मिले बच्चो, निराश पर मत होना ये लेखन, जो मिट्टी के लगता मोल अभी अनमोल किसी दिन साबित होने वाला है आने वाली पीढ़ियों को यही राह दिखाने वाला है।’ वह लेखक था आश्वस्त स्वयं, बच्चों को भी आश्वस्ति यही देने की कोशिश करता था निर्धन होकर भी मन से था समृद्ध नहीं चिंता भविष्य की अपनी या बच्चों की कोई करता था बोये थे उसने बीज विचारों के जो, था निश्चिंत बड़े होकर फल से वे पेड़ सभी लद जायेंगे दुनिया को वैचारिकता से समृद्ध खूब कर जायेंगे। जाने पर कैसी थी जमीन, या बीज बांझ थे! फसल नहीं लहलहा सकी, समृद्ध न मन हो सके नहीं सह पाया सदमा, लेखक वह मर गया समझ ही पाया नहीं अंत तक, गलती कहां हुई बंजर तो बीज न हर्गिज थे, क्यों नहीं उगे? सदियां बीतीं, वह पीढ़ी मर-खप गई, नई कोंपल फूटी लहलहा उठी दुनिया में फसल विचारों की बोये थे बीज विचारों के जो लेखक ने वे फलीभूत अब हुए नहीं दुनिया में वह सशरीर देख पाया यह सब पर कहते हैं बारिश की बूंदों, या कोयल की कूकों में उस लेखक की आवाज सुनाई देती है! रचनाकाल : 22 अगस्त 2023

जिजीविषा

बाबा मेरे थे अस्सी के जब गिरे, नहीं उठ पाये फिर वे बिस्तर से अंतिम क्षण तक उम्मीद उन्हें पर बनी रही फिर से अच्छे हो जायेंगे फिर घूम सकेंगे अपनी उसी साइकिल से! आजी को लगता था अपने अंतिम दिन तक बस किसी तरह हो जाय दूर यह जलन हाथ और पैरों की वे फिर से कर सकती हैं सारा काम पुरानी फुर्ती से। नानी तो मेरी शतक पूर्ति के बाद अभी भी जिजीविषा के बल पर अपनी जाकर मुख के पास मौत के, कई बार लौट आई है यह कैसा है दुर्दम्य हौसला अंतिम क्षण तक जो जीवन के उम्मीद बंधाता रहता है! जीवन का शायद सार यही है जिजीविषा यह नहीं अगर हो तो मानव जीते जी भी मुर्दा जैसा बन सकता है इसके बल पर ही लेकिन अंतिम क्षण तक भी वह जिंदादिल रह सकता है! रचनाकाल : 17 अगस्त 2023

सपने

जब सपने मरने लगते हैं लगता है तब हम खुद भी मरने लगते हैं सपने ही तो जीवंत बनाते जीवन को वरना तो जीवन इतना नीरस हो जाता वर्षों तक यूं ही निरुद्देश्य जीते जाने की सोच मात्र से मानव कितना डर जाता! पर बीत जाय आधा जीवन तब पता चले जिसके पीछे यह जीवन सारा होम दिया वह मृग-मरीचिका केवल था तो नये सिरे से कोई कैसे जीना फिर से शुरू करे? पर जीवन तो ऐसा ही है कितना भी कोई लुटे-पिटे रुकने का कोई यहां नहीं है प्रावधान हो शेष जमा-पूंजी अपनी चाहे कितनी भी अल्प उसे ही लेकर आगे बढ़ते रहना पड़ता है सपनों के खण्डहरों से ही टूटा-फूटा ही सही मगर जीने की खातिर सपना फिर से नया सजाना पड़ता है! रचनाकाल : 16 अगस्त 2023

आजादी और जिम्मेदारी

खुद्दारी मेरी झुकने देती नहीं किसी के आगे दे सकता हूं अपनी जान मगर अपमान जरा भी नहीं सहन कर सकता मुझको फ़ख्र है कि मैं भगत सिंह का वंशज हूं। आती है लेकिन बारी जब खुद अपने से ही लड़ने की मन में बैठे हैं दुश्मन जो उन काम, क्रोध, मद लोभ सभी से अपरिग्रह, अस्तेय सरीखे हथियारों से लड़ता हूं पाता हूं तब गांधीजी मेरे पूर्वज हैं। पुरखों ने होम दिया अपना जीवन सारा जिस आजादी को पाने को तन-मन से उसकी रक्षा करने की खातिर मैं अपने ऊपर कड़ा नियंत्रण रखता हूं बनना गुलाम मंजूर नहीं पर कोई हो मेरा गुलाम यह भी मैं हर्गिज सहन नहीं कर सकता हूं  स्वच्छंद न होने पाये मेरी स्वतंत्रता मैं आजादी का जश्न मनाते हुए ध्यान यह रखता हूं। रचनाकाल 15 अगस्त 2023

गूंगे का गुड़

जब नहीं जानता था कुछ मैं चुप रहता था जब जाना कुछ चिल्ला-चिल्ला कर कहता था अब सबकुछ जान गया जब तो फिर से हरदम चुप रहता हूं जिस जगह से चला था, फिर से अब उसी जगह जा पहुंचा हूं कहते हैं शायद इसीलिये होते हैं एक सरीखे बच्चे और बूढ़े सबको लगता मैं लौट के बुद्धू घर आया! अधजल थी जब तक गागर खूब छलकती थी अब भरी हुई है उसी तरह से शांत कि जैसे खाली हो दिखते समान हैं दोनों कौन बताये क्या है फर्क कि गूंगा तो गुड़ खाकर भी बस चुप ही रहता है! रचनाकाल : 2-3 अगस्त 2023

खजाने की खोज

परसों मैंने खबर पढ़ी खरबों का छिपा खजाना है छोटे से पुच्छल तारे में ला सकें अगर धरती पर तो हर व्यक्ति अरबपति बन जायेगा! तब से मन में यही समाई थी धुन कैसे ला सकते हैं धरती पर उस आकाशीय खजाने को। कल रात मगर सपना देखा ईश्वर उदास कह रहे कि लाखों युग पहले जब जनम दिया था मैंने तुम इंसानों को मन में थी यह उम्मीद कि करके अपना चरम विकास सभी अनमोल रत्न बन जाओगे धरती मां ने जो दूध पिला तुमको पाला हर माता को होती है यह उम्मीद कि बेटा होकर बड़ा कमायेगा धरती मां ने भी सोचा था जब बन जायेंगे रत्न सभी उसके बेटे अनमोल खजाने से तब वह भर जायेगी पर तुम तो जितना बनते जाते बुद्धिमान उतना ही खून चूसते हो धरती मां का! कोयला करोड़ों वर्षों का सह दाब बन गया हीरा, पर तुमसे जो पाल रखी मैंने उम्मीद करोड़ों वर्षों से परजीवी बन रह गये कि सबसे बुद्धिमान मेरे बेटे का यही हश्र क्या होना था! सुनकर उलाहना ईश्वर की मैं शर्मिंदा हूं मन ही मन बाहरी खजाने की चिंता को छोड़ खोज पर निकल पड़ा हूं भीतर छिपे खजाने की बन सकूं ताकि अनमोल रत्न ख्वाहिश पूरी हो ईश्वर की हो सके दूध का कर्ज अदा धरती मां का। रचनाकाल : 1 अगस्त 2023