सपने

जब सपने मरने लगते हैं
लगता है तब
हम खुद भी मरने लगते हैं
सपने ही तो
जीवंत बनाते जीवन को
वरना तो जीवन
इतना नीरस हो जाता
वर्षों तक यूं ही निरुद्देश्य
जीते जाने की सोच मात्र से
मानव कितना डर जाता!

पर बीत जाय आधा जीवन
तब पता चले जिसके पीछे
यह जीवन सारा होम दिया
वह मृग-मरीचिका केवल था
तो नये सिरे से कोई कैसे
जीना फिर से शुरू करे?

पर जीवन तो ऐसा ही है
कितना भी कोई लुटे-पिटे
रुकने का कोई
यहां नहीं है प्रावधान
हो शेष जमा-पूंजी अपनी
चाहे कितनी भी अल्प
उसे ही लेकर आगे
बढ़ते रहना पड़ता है
सपनों के खण्डहरों से ही
टूटा-फूटा ही सही मगर
जीने की खातिर सपना फिर से
नया सजाना पड़ता है!
रचनाकाल : 16 अगस्त 2023

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