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Showing posts from April, 2024

बदलाव

  जब रुका हुआ था एक जगह दुनिया भी मुझको रुकी दिखाई पड़ती थी फोटो के केवल एक फ्रेम को देख लगा करता था यह सारी चीजों को जान लिया। अपनी जड़ता का लेकिन जब कुछ भान हुआ महसूस हुआ दुनिया तो आगे निकल गई जो फोटो मैंने अपने मन में खींची थी वह सच्चाई का मात्र एक टुकड़ा ही थी मैं भूल गया था दुनिया का आयाम समय भी होता है जीवंत बनाता है जो सारी चीजों को हर चीज बदलती है दुनिया में पल-पल में फिर कैसे मैं कर सकता हूं फैसला किसी का बीते पल को देख कि वैसा ही होगा वह आने वाले पल में भी! जब से मुझको अहसास हुआ है इस सच का अब नहीं किसी के बारे में कोई धारणा बनाता हूं जो अच्छे हैं, जैसे मैं उनको देख स्वयं भी अच्छा बन पाने की कोशिश करता हूं रखता हूं यह विश्वास कि यदि अच्छाई होगी मुझमें तो जो बुरे अगर होंगे भी तो वे देख मुझे अच्छा बनने की कोशिश करते जायेंगे इसलिये चाहता हूं लाना जो दुनिया में बदलाव उसे अपने ही भीतर लाता हूं मैं अच्छा बनता हूं, दुनिया भी अच्छी बनती जाती है। रचनाकाल : 22-24 अप्रैल 2024

कल्पना और यथार्थ

मैं अक्सर ही कल्पना लोक में कविता संग चला जाता फिर सहसा जैसे खुल जाती हो नींद, चौंक कर लौट आता जीवन के ठोस धरातल पर। ऐसा तो हर्गिज नहीं कि मुझको कवि कल्पना पसंद नहीं पर नहीं चाहता कविता मेरी कटे कठोर हकीकत से जो स्वप्न देखता उसे चाहता हूं यथार्थ में भी बदले आवाजाही दोनों लोकों में होती रहे निरंतर बिना कल्पना जीवन इतना ज्यादा नीरस होता जायेगा जीने के काबिल बहुत दिनों तक नहीं बना रह पायेगा कट कर यथार्थ से मगर कल्पना भी बेदम हो जायेगी हो जायेगी इतनी ज्यादा लिजलिजी कि जीवन से विरक्त हो जायेगी इसलिये चाहता पुल बनना मैं इन दोनों के बीच एक होकर दोनों सम्पूर्ण ताकि बन जायं जिंदगी दोनों बिना अधूरी है। रचनाकाल : 21-22 जुलाई 2023

राजनीति की गिरावट, चुल्लू-भर पानी, डर और जिम्मेदारी

चुनाव प्रचार चरम पर है और देश स्तब्ध है. राजनीति का स्तर इतना गिर जाएगा, क्या किसी ने कभी सोचा होगा? यह सच है कि किसी चीज को बनाने में समय लगता है, पर बिगाड़ने में कुछ पल भी नहीं लगते. तो क्या नकारात्मकता की इसी ताकत का इस्तेमाल हमारे नेता करना चाहते हैं? क्या सचमुच ही जनता विकास जैसे सकारात्मक मुद्दों पर वोट नहीं देती? अगर ऐसा नहीं है तो फिर नेताओं को हम नागरिकों के विवेक पर विश्वास क्यों नहीं हो रहा, गलीज आरोपों-प्रत्यारोपों के दलदल में वे क्यों धंसते जा रहे हैं? अगर वे हम मतदाताओं को बेवकूफ समझ कर इतना नीचे गिर रहे हैं तो क्या यह हमारे लिए चुल्लू-भर पानी में डूब मरने वाली बात नहीं है?  चुल्लू-भर पानी में तो तब भी डूब मरने को जी चाहता है जब हमारे नेता ‘निर्विरोध’ के अर्थ को सिर के बल खड़ा कर देते हैं. नेताओं के निर्विरोध निर्वाचित होने से बढ़कर आदर्श स्थिति तो लोकतंत्र में और कोई हो ही नहीं सकती, पर बिना जनता का मत जाने ही किसी को जनप्रतिनिधि घोषित कर दिया जाए तो जनता को हंसना चाहिए या रोना चाहिए! कहते हैं एक जमाने में देश के कुछ इलाकों में डकैतों का इतना आतंक था कि उनके प्रत्याशी के

अपने हिस्से का काम

सब कहते हैं मैं किसी फैक्टरी के जैसे कविताओं का उत्पादन करता जाता हूं मुझको तो लेकिन कम ही फिर भी लगती हैं होता है यह अफसोस कि आखिर रोज-रोज नित नयी नहीं क्यों कविताएं लिख पाता हूं। लगता है सबको कोई मैंने खोज लिया है राजमार्ग जिसके ऊपर से बड़े मजे से सरपट भागा जाता हूं मुझको पर लीक पकड़कर चलना आता ही है नहीं निकल पड़ता अज्ञात दिशा में राहें नई स्वयं ही पदचिन्हों से बनती जाती हैं। है समय नहीं इतना भी मेरे पास कि मुड़कर देखूं पीछे कितना सारा काम किया करती बैठेंगी मूल्यांकन आगे आने वाली सदियां मैं तो बस चिरनिद्रा में हो जाने से पहले लीन काम अपने हिस्से का ज्यादा से ज्यादा निपटाता जाता हूं। रचनाकाल : 18 अप्रैल 2024

कसौटी

सुख भरे दिनों में अनायास ही चेहरे से भी खुशी झलकने लगती है घनघोर मगर पीड़ा में भी खुश लोगों को दिख सकूं चुनौती मुझको यह लेने के लायक लगती है। वैसे तो मैं ईश्वर से कुछ भी कभी मांगता नहीं मगर जब मौत खड़ी दीखे कगार पर इच्छा है तब भी बस इतनी ही करूं प्रार्थना मेरी इच्छा पूरी करने की बजाय हे ईश्वर तू अपनी इच्छा पूरी करना। सुख मिलता मुझको जब भी छप्परफाड़ परम सौभाग्यवान सब मुझे समझने लगते हैं मैं लेकिन तब बेहद व्याकुल हो जाता हूं लगता है ईश्वर का यह ऋण किस तरह चुकाऊंगा! रचनाकाल : 17 अप्रैल 2024

मेहरबानी, विडंबना, बदनामी, हैरानी और बदनसीबी

 सैकड़ों साल पहले रहीमदास जी ने कहा था- ‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुस चून।।’ हम मनुष्यों ने अपना पानी बचाकर रखा हो या नहीं, लेकिन प्रकृति ने जरूर बचा रखा है. खबर है कि मानसून इस बार भी खुशनुमा रहेगा यानी सामान्य से अधिक बारिश होगी. कोरोना काल से ही प्रकृति किसानों का साथ देती आ रही है, जिससे सरकार अस्सी करोड़ लोगों का मुफ्त में पेट भरने में सक्षम हो पा रही है. इस साल भी अनाज की बंपर पैदावार से महंगाई नियंत्रित रहने की उम्मीद है. कहा जा सकता है कि प्रकृति हम पर मेहरबान है.  लेकिन हम मनुष्य भी क्या प्रकृति पर मेहरबान हैं? रूस की यूक्रेन और इजराइल की गाजापट्टी पर बम-गोलों की बरसात में मानो कोई कसर रह गई थी कि ईरान ने इजराइल पर धुआंधार मिसाइलें दाग दीं! सबके पास अपने-अपने तर्क हैं, सब अपनी-अपनी रक्षा करना चाहते हैं, लेकिन पर्यावरण की रक्षा कौन करेगा? यह कितनी बड़ी विडंबना है कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से आने वाली प्राकृतिक आपदाओं और कोरोना जैसी महामारियों का डर भी हम मनुष्यों को भयावह युद्धों का नंगा नाच खेलने से रोक नहीं पाता! विडंबना तो हम मतदाताओं की चुन

हिमालय की 188 ग्लेशियर झीलें अगर फूट गईं तो...?

 जहां के लोग अपने पर्यावरण के प्रति इतने सजग हों कि जरा सा प्रदूषण करने से भी बचते हों और अगर किसी ने पॉलिथीन या पर्यावरण के लिए घातक अन्य कोई  कचरा फैलाया है तो उसे बीन कर उसका सुरक्षित निपटान करते हों; जहां वन्य जीवों को भी लोग अपने परिवार का सदस्य मानते हों और दुर्लभ हो चले हिम तेंदुए के किसी राह भटके शावक को जंगली कुत्तों या बाहरी पर्यटकों से बचाने के लिए गांववाले 17 घंटे पहरेदारी कर उसकी मां से उसे मिलवाते हों, कितनी बड़ी विडंबना है कि उसी लेह-लद्दाख के लोगों को अपने यहां के पर्यावरण को कथित विकास से बचाने के लिए अनशन-आंदोलन करने को मजबूर होना पड़ रहा है. यहां का पारिस्थतिकी तंत्र कितना नाजुक हो चुका है, उसका उदाहरण यह है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय के डिजास्टर मैनेजमेंट डिवीजन और हिमालय पर्यावरण एक्सपर्ट की टीम द्वारा किए गए एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि यदि हिमालयी राज्यों में सात रिक्टर पैमाने का भूकंप आ गया तो 188 ग्लेशियर झीलें फूट जाएंगी और इससे आने वाली बाढ़ से भयानक तबाही मचेगी. सरकारें तो हम विकास लाने के लिए ही चुनते हैं, पर ऐसा अंधाधुंध विकास भी किस काम का कि सबकुछ ल

हृदय परिवर्तन, शर्म, ठगी, भरोसा और हंसी

हृदय परिवर्तन बुरी बात नहीं है. प्राचीन काल में बड़े-बड़े ऋषि-मुनि अपनी तपस्या के बल पर बड़े-बड़े पापियों का हृदय परिवर्तन करने में सक्षम होते थे. शास्त्रार्थ में हारने वाले का सचमुच ही हृदय परिवर्तन होने की कहानियां हमने प्राचीन ग्रंथों में पढ़ी हैं. फिर आज जब कोई कहता है कि ‘अब हम इधर-उधर नहीं जाएंगे’ या ‘सुबह उठने पर लगा कि मैं गलत जगह हूं, इसलिए सही जगह आ गया’ तो उसके हृदय परिवर्तन पर विश्वास होने के बजाय सिर शर्म से झुकने क्यों लगता है?  शर्म तो तब भी आती है जब सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने की सरकार की योजना के तहत कोई अपने घर की छत पर सोलर रूफटॉप लगवाता है और  जब बिजली उत्पादन के लिए अधिकारियों द्वारा उसे शुरू करने की बारी आती है तब पता चलता है कि सोलर रूफटॉप से जुड़े एप्प तो चीनी हैं! अब इसमें उस बेचारे ग्राहक की क्या गलती जिसने चीनी एप्प वाली कंपनी से सोलर रूफटॉप लगवाया, क्योंकि सरकार ने उसे बैन तो किया नहीं था! पर्यावरण संरक्षण की नेक भावना रखते हुए डेढ़-दो लाख रुपए खर्च करने के बाद उसे तो यही लगता है कि वह ठगा गया! ठगा हुआ तो लोग तब भी महसूस करते हैं जब पता चलता है कि पर्यावरण संर

आप ठगे सुख ऊपजै...

घनघोर परिश्रम करके भी जब मिलती नहीं सफलता मन तब भी निराश तो होता है पर बिना किये कुछ मेहनत ही हो जाता हूं जब कामयाब तब ज्यादा ही मन शर्मिंदा हो उठता है जो मिलता है महसूस नहीं होता उस पर अधिकार मुझे। इसलिये प्रार्थना करता हूं यह ईश्वर से चाहे तो मुझको मेहनत का फल मत देना पर बिना किसी मेहनत के मुझको हर्गिज कभी न फल देना जैसा कि कह गये साल सैकड़ों पहले संत कबीर कि ‘कबिरा आप ठगाइये, और न ठगिये कोय आप ठगे सुख ऊपजै, और ठगे दु:ख होय’ मुझे बिन मेहनत का फल जाने किसको ठगने जैसा लगता है! रचनाकाल : 9 अप्रैल 2024

स्वाभिमान

मैं नहीं चाहता मुझे सजा दे मेरे कर्मों की कोई इसलिये स्वयं पर रखता हरदम कड़ी नजर अपराध अगर हो जाये तो खुद को दण्डित कर लेता हूं ईश्वर का जितना है विधान उससे थोड़ी ज्यादा ही सजा भुगतता हूं उंगली न ताकि कोई भी उठा सके मुझ पर जिस दिन भी हो अंतिम हिसाब कोई न बकाया मेरे ऊपर निकले लेनी पड़े न होकर ऋणी विदाई दुनिया से। दरअसल रहा करता था जब तक कर्जग्रस्त सिर पर हरदम महसूस बोझ सा होता था आखिर में तो सब कर्ज चुकाना पड़ता ही जो बोझ उठाता चिंता का अतिरिक्त ब्याज वह भारी भरकम लगता था इससे मैंने महसूस किया मैं नहीं स्वयं को दूंगा तब भी कर्मों की तो सब सजा मुझे मजबूरी में सहनी ही है इसलिये स्वयं ही सह लूं तो इज्जत मेरी रह जायेगी अतिरिक्त ब्याज की तरह ताकि शर्मिंदा होना पड़े नहीं सच कहूं अगर तो दु:ख सहने से भी ज्यादा बेइज्जत होने से मुझको डर लगता है। रचनाकाल : 7 अप्रैल 2024

दर्द और सृजन

जब दर्द तेज होने लगता है सीने में मैं लिखना करके बंद शीघ्र  करने लगता आराम ताकि जा सकूं जरा सा दूर  मौत की घाटी से।  दरअसल दर्द के बिना नहीं मैं कविता लिख पाता हूं डरता तो हूं यदि यह  हुआ जरा सा भी ज्यादा   तो ले सकता है जान मगर जब-जब इससे मैं जाने लगता दूर  खत्म होने लगती है उर्वरता सुख करने लगता है बंजर इसलिए स्वयं ही जानबूझकर  लेता हूं मैं मोल दर्द  जिस तरह तार ढीला हो तो सुर नहीं निकलता मधुर  टूट जाता है ज्यादा कसने पर मैं भी रहकर कुछ दूर मृत्यु के ही कगार पर अच्छी-अच्छी कविताएं लिख पाता हूं। रचनाकाल : 3 अप्रैल 2024

सहनशक्ति और नम्रता

ईश्वर से जब मैं जिद करके जबरन अपनी इच्छा पूरी करवाता था पछताना पड़ता था आगे कई बार नहीं परिणाम सहज-स्वाभाविक उसका आता था। इसलिये कठिन से कठिन परिस्थिति में भी अब पहले सी नहीं मनौती माना करता हूं करता हूं यही प्रार्थना बस मैं हे ईश्वर जिसमें भी लगे भलाई तुमको मेरी मेरे हिस्से में निर्धारित वह करते जाना बस इतना करना, जब भी देना कष्ट कभी घनघोर उसे सहने की क्षमता भी देना सुख देना जब कुछ ज्यादा ही नम्रता साथ में इतनी कर देना प्रदान अभिमान न आने पाये मन में यह न समझने लगूं कि यह सब है मेरा अधिकार सदा ही बना रहे यह भान कि सुख के बाद हमेशा दु:ख या दु:ख के बाद हमेशा सुख आता और जाता है। रचनाकाल : 2 अप्रैल 2024