स्वाभिमान
मैं नहीं चाहता मुझे सजा दे मेरे कर्मों की कोई
इसलिये स्वयं पर रखता हरदम कड़ी नजर
अपराध अगर हो जाये तो खुद को दण्डित कर लेता हूं
ईश्वर का जितना है विधान
उससे थोड़ी ज्यादा ही सजा भुगतता हूं
उंगली न ताकि कोई भी उठा सके मुझ पर
जिस दिन भी हो अंतिम हिसाब
कोई न बकाया मेरे ऊपर निकले
लेनी पड़े न होकर ऋणी विदाई दुनिया से।
दरअसल रहा करता था जब तक कर्जग्रस्त
सिर पर हरदम महसूस बोझ सा होता था
आखिर में तो सब कर्ज चुकाना पड़ता ही
जो बोझ उठाता चिंता का
अतिरिक्त ब्याज वह भारी भरकम लगता था
इससे मैंने महसूस किया
मैं नहीं स्वयं को दूंगा तब भी
कर्मों की तो सब सजा मुझे मजबूरी में सहनी ही है
इसलिये स्वयं ही सह लूं तो इज्जत मेरी रह जायेगी
अतिरिक्त ब्याज की तरह ताकि शर्मिंदा होना पड़े नहीं
सच कहूं अगर तो दु:ख सहने से भी ज्यादा
बेइज्जत होने से मुझको डर लगता है।
रचनाकाल : 7 अप्रैल 2024
Comments
Post a Comment