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Showing posts from March, 2022

क्रूरता का बोलबाला

पहले मुझे लगता था व्यक्ति या कि संगठन ही होते हैैं आतंकवादी होती थी चिंतित जब दुनिया कि लग न जायें कहीं परमाणु बम हाथ में आतंकियों के मैं भी उनकी चिंता में शामिल था। सभ्य लेकिन दुनिया जब कर रही हो खात्मा एक पूरे देश का तब फर्क नहीं दीखता है तथाकथित सभ्यता और आतंकवाद में लगता है मुझको तो बेमानी सारा विकास यह अंत में तो पाशविक बल कर देता है सबकुछ तहस-नहस! जीतने मैं देना नहीं चाहता आतंकवाद को व्यक्तियों का हो या फिर देश का भरोसा यह पूरा है स्वेच्छा से आ गया जो निडर हो आतंकवादियों के सामने अहिंसा से करने को मुकाबला साथ में आ जायेंगे लोग मेरे अनगिनती शर्त है बस इतनी सी कमजोर पड़ने न पाये कहीं झुकने न पाये किसी शर्त पर हिंसा के सामने अहिंसा। पूछता हूं प्रश्न अपने आप से जैसे हिंसक लोग रखते जान को हथेली पर अहिंसा की खातिर मैं जान देने को भी क्या तैयार हूं? उत्तर लेकिन मिलता नहीं साफ-साफ दुविधा में दीखते हैैं मेरे जैसे सारे शरीफ लोग सोचते हैैं उनको बचाने कोई आयेगा मसीहा आसमान से क्रूरता का नाच नंगा जारी है कब्जे में करते ही जाते हैैं हिंसा के पुजारी सारी दुनिया को। रचनाकाल : 21 मार्च 2022

पावनता की ओर

दुश्मनी की न हो उम्र ज्यादा बड़ी साल भर में ही मिट जायें शिकवे-गिले इसलिये पर्व नायाब उनने रचा वे जलाते थे अपने अहंकार को होलिका नाम दुर्गुण का अपने रखा। हम मनाते रहे पर्व उत्साह से उसका मन्तव्य पर भूलते ही गये रस्म मिलने की सबसे निभाते रहे दुश्मनी भी मगर मन में पलती रही कद अहंकार का नित्य बढ़ता रहा लकड़ियों को जला करके उसकी जगह औपचारिकता हम बस निभाते रहे जीनियस अपने पुरखों की जीवंतता भूल कर बस प्रतीकों को ढोते रहे जाने कितनी ही सदियों में तय फासला कर कहां आ गये चलते-चलते ये हम? उस महापर्व के जो था पावन कभी आज उपलक्ष्य में चाहता हूं करूं एक शुरुआत धोने की फिर से कलुष केमिकल से रहित, रंग हों प्राकृतिक दुश्मनी खत्म सचमुच ही भीतर से हो मन को दूषित न कर पाये कोई नशा भस्म हो सब अहंकार बन होलिका लौट आये धुलेंडी की फिर सारी पवित्रता। रचनाकाल : 18 मार्च 2022

फिर एक नई शुरुआत

उद्देश्य गलत तो नहीं लगे थे मुझको उनको पाने खातिर लेकिन मैंने नहीं दिया साधन पर ज्यादा ध्यान सही या गलत सामने आया जो भी हाथ तरीका उसको तर्कों से ठहराकर जायज रखा हमेशा सिर्फ लक्ष्य पर ध्यान पहुंच ही गया एक दिन आखिर अपनी मंजिल पर। लेकिन ये भारी खेल हो गया कैसा मेरे साथ दूर से समझा था जिसको मैं सोना खरा पास से खोटा कैसे निकल गया? जिसके पीछे मैं मंत्रमुग्ध सा भागा आया नियम-कायदे-अनुशासन सब तोड़ अंत में मृग मरीचिका बन करके वह मुझको ही छल गया! नहीं है वक्त जरा भी मगर ठहर कर करने को पछतावा इतनी ज्यादा चाहे जीभ निरंकुश हुई कि उससे ‘राम’ नाम भी लेते बनता नहीं ‘मरा’ का लेकिन करके जाप साधना होगा मुझको अनुशासन कुख्यात लुटेरे रत्नाकर से जगप्रसिद्ध बन वाल्मीकि ऋषि करना ही होगा अपने सब दोषों का परिमार्जन ऐसे जाने कितने महापुरुष बनकर उदाहरण खड़े सामने मेरे जब भी हो जाये अपने दोषों का भान तनिक भी देर न हम तब करें लौट कर सही मार्ग पर चलने में लौटे हैैं कितनी बार ‘हिमालय’ जैसी करके भूल महात्मा गांधी जीवन आधा हो जाने पर भी बर्बाद विलासीपन से उबरे थे जब टालस्टाय उम्र आधी हो जाने पर भी कर सकता हूं मैं क्यों न

कायर

जब भी छिड़ता है युद्ध कहीं कांप उठता हूं मैं मन ही मन गोलियों-मिसाइलों का धमाका महसूस होता मुझे भीतर तक और मरता है जब किसी भी पक्ष से कोई तो दहल जाता हूं बेतरह। कुछ लोगों की तरह मुझे भी शक होता है कभी-कभी कि मैं कायर तो नहीं हूं! पर बहुतेरे तर्कों के बाद भी मैं नहीं कर पाता खुद को लड़ने के लिए तैयार गांधीजी का अहिंसक सत्याग्रह ही लगता है मुझे अपने अनुकूल माना था लोहा जिसका दुनिया ने भी। लेकिन जब देखता हूं हथेली पर जान रखे लोगों को लड़ते हुए युद्ध में पूछता हूं प्रश्न अपने आप से इतनी ही क्या शिद्दत से अहिंसा की खातिर मैं भी खुद को लगा पाता हूं दांव पर! रोकने की खातिर युद्ध दुनिया में जुल्मी तानाशाहों के विरोध में रखता हूं मैं जान क्या हथेली पर? युद्धों का दुनिया में होना ही करता है यह साबित कि मैं सच्चा नहीं बन पाया अनुयायी गांधी का झंडा बुलंद नहीं कर पाया अहिंसा का। होता हूं तब शर्मिंदा लगता है भीतर से सचमुच मैं कायर हूं। रचनाकाल : 28 फरवरी 2022