पावनता की ओर


दुश्मनी की न हो उम्र ज्यादा बड़ी
साल भर में ही मिट जायें शिकवे-गिले
इसलिये पर्व नायाब उनने रचा
वे जलाते थे अपने अहंकार को
होलिका नाम दुर्गुण का अपने रखा।

हम मनाते रहे पर्व उत्साह से
उसका मन्तव्य पर भूलते ही गये
रस्म मिलने की सबसे निभाते रहे
दुश्मनी भी मगर मन में पलती रही
कद अहंकार का नित्य बढ़ता रहा
लकड़ियों को जला करके उसकी जगह
औपचारिकता हम बस निभाते रहे
जीनियस अपने पुरखों की जीवंतता
भूल कर बस प्रतीकों को ढोते रहे
जाने कितनी ही सदियों में तय फासला
कर कहां आ गये चलते-चलते ये हम?

उस महापर्व के जो था पावन कभी
आज उपलक्ष्य में चाहता हूं करूं
एक शुरुआत धोने की फिर से कलुष
केमिकल से रहित, रंग हों प्राकृतिक
दुश्मनी खत्म सचमुच ही भीतर से हो
मन को दूषित न कर पाये कोई नशा
भस्म हो सब अहंकार बन होलिका
लौट आये धुलेंडी की फिर सारी पवित्रता।
रचनाकाल : 18 मार्च 2022

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