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Showing posts from December, 2021

सृजन की शुरुआत

क्या हुआ जो नहीं शक्ति पहले सी है हौसला तो वही है मगर दोस्तो हो गये हों भले थोड़ा कमजोर पर आग में तप के निखरे हैैं हम दोस्तो। जिंदगी सबको मिलती नहीं इस तरह आती सदियों में है ये महाआपदा ऐतिहासिक समय के इस साक्षी हैैं हम जश्न इसका मना लें न क्यों दोस्तो! जिसको मिलता है सबकुछ बनाया हुआ सुख सृजन का कहां जान पाता है वह खण्डहर से बनाने का सुंदर महल भव्य मौका मिला है हमें दोस्तो। बीते वर्षों में दो जो हुआ है विध्वंस उसको फिर से बनाने को सुंदर-सुगढ़ इस नये साल के पहले दिन से भला और सुहाना क्या होगा समय दोस्तो! रचनाकाल 1 जनवरी 2022

दु:स्वप्नों का अंत

दु:स्वप्नों जैसे बीत गये दो साल डराती हैैं स्मृतियां हम सबको अपने परिजन-प्रियजन खोने की। सपने में कोई मर जाये अपना तो खुल जाती है सहसा नींद हकीकत में आकर राहत मिल जाती है सचमुच में लेकिन खोता जो अपनों को राहत सपनों में उसको थोड़ी सी भले मिले पर नींद टूटते ही उसको जीवन अपना दु:स्वप्न सरीखा क्या न सदा लगता होगा! अनगिनत घाव दो वर्षों में दे चुका सभी को कोरोना अब किसी भयानक स्मृति सा वह सपनों में ही रह जाय लगे हम सबको ऐसा नये साल में जाग उठे हैैं देख भयानक स्वप्न कि फिर से मिल जायें हम सबको अपने वही पुराने दिन दो वर्षों का यह बीता काल एक सपना जैसा बन जाय हकीकत में न कहीं रह जाय निशानी कोरोना की! रचनाकाल 1 जनवरी 2022

आदत बने न जीवन

गाफिल होते ही थोड़ा सा आदत बन जाता है जीवन यंत्रवत सभी कुछ चलने लगता लगता जैसे बीत रहे हों सपने में दिन-रात, महीने, साल! डरता हूं बेहोशी में ही बीत न जाये जीवन मौका मिलता है जब इसीलिये करने की खातिर नई कोई शुरुआत लपक लेता हूं उसको तुरत तोड़ता हूं दैनंदिन चक्र मचे कुछ जीवन में हलचल कि आदत बनकर ही रह जाय न जीवन अंत समय में लगे न ऐसा बीत गया सोते-सोते ही सारा जीवनकाल! रचनाकाल 28 दिसंबर 2021

सफर

जब बुरी तरह थक जाता हूं तब अक्सर सोचा करता हूं रुक कर सुस्ता लूं कुछ पल, ऊर्जा संचित कर लूं टूट न जाये ताकि मार्ग में ही दम, सफर अधूरा ही ना रह जाये। रुकते ही लेकिन ठहरे पानी जैसा सड़ने लगता जीवन छोटे-मोटे दोष कई घर करने लगते हैैं तन में इसलिये चाल धीमी कर देता, जब ज्यादा थक जाता हूं कोशिश करता हूं थमें न पूरी तरह कदम रुक जाना मुझको मृत्यु सरीखा लगता है। रचनाकाल 27 दिसंबर 2021

दाता

डरता हूं मैं बिना किये घनघोर परिश्रम अच्छी कविता लिखने से मैं नहीं खेलता जुआ लॉटरी लगना मुझको दहशत से भर देता है किस्मत से कोई चीज अगर मिलती है मुझको कर्ज सरीखी लगती है ईश्वर का भी रह जाये कर्ज बकाया तो वह बोझ की तरह मन के ऊपर रहता है। इसलिये हमेशा कोशिश करता देने की दाता बनने का सुख ही अनुपम होता है देवता हमेशा देते, ऐसा कहते हैैं मानवता को मिल सके देवता का दर्जा यह सपना मुझको बहुत मनोरम लगता है पत्थर के बदले फल देते जो पेड़ मुझे वे ईश्वर जैसे लगते हैैं ऐसा ही ईश्वर बन पाने का मेरा भी मन करता है। रचनाकाल 11 दिसंबर 2021

वृक्ष का संघर्ष

लोगों ने मुझको पहले ही समझाया था मैं ही था धुन का पक्का या फिर पागल था जो बरबस ही चल पड़ा उगाने जंगल रेगिस्तान बीच घनघोर! समझाते थे सब लोग मुझे मत रखो पेड़ घर के भीतर जड़ इसकी जाती गहरे तक दर्रे पड़ जायेंगे इससे दीवारों में कमजोर इमारत हो जायेगी सिर्फ तुम्हारी नहीं बल्कि यह आसपास जो जंगल कांक्रीट का है ढह सकता है। जंगल तो मैंने उगा लिया था बंजर में बेरहम नहीं थी प्रकृति, साथ मेरा उसने भरपूर दिया पर एक पेड़ को अपने घर के बीच बचाना होता ही जाता है बेहद कठिन थपेड़ों से मैं गर्म हवाओं के भी नहीं झुलस पाया था इतना ज्यादा बीच मरुस्थल में पर कांक्रीट के जंगल में होता ही जाता है मुझको दुश्वार बचाना एक पेड़ मैं नहीं अकेला पड़ा कभी इतना ज्यादा जंगल में भी जितना ज्यादा महसूस कर रहा एक पेड़ यह बस्ती में सहसा मुझको लग रहा कि जो संघर्ष कर रहे पेड़ बचाने को अपना अस्तित्व, भयानक कांक्रीट के जंगल से खतरा उनको बंजर से ज्यादा है या हम इंसानों से? रचनाकाल 5 दिसंबर 2021