दु:स्वप्नों का अंत
दु:स्वप्नों जैसे बीत गये दो साल
डराती हैैं स्मृतियां हम सबको
अपने परिजन-प्रियजन खोने की।
सपने में कोई मर जाये अपना तो
खुल जाती है सहसा नींद
हकीकत में आकर राहत मिल जाती है
सचमुच में लेकिन खोता जो अपनों को
राहत सपनों में उसको थोड़ी सी भले मिले
पर नींद टूटते ही उसको जीवन अपना
दु:स्वप्न सरीखा क्या न सदा लगता होगा!
अनगिनत घाव दो वर्षों में
दे चुका सभी को कोरोना
अब किसी भयानक स्मृति सा वह
सपनों में ही रह जाय
लगे हम सबको ऐसा नये साल में
जाग उठे हैैं देख भयानक स्वप्न
कि फिर से मिल जायें हम सबको
अपने वही पुराने दिन
दो वर्षों का यह बीता काल
एक सपना जैसा बन जाय
हकीकत में न कहीं रह जाय निशानी कोरोना की!
रचनाकाल 1 जनवरी 2022
Comments
Post a Comment