Posts

Showing posts from April, 2022

नवसंवत्सर

विस्तृत होने की इच्छा से मैंने अपनाया अंगरेजी का रंग-ढंग दुनिया से खुद को जोड़ लिया लोकल से ग्लोबल होने का सुख भोग लिया वैश्विक होने की धुन ने पर मुझको अपनी संस्कृति से ही कर दिया दूर जड़ से कटकर हो गया खोखला भीतर से पुरखों ने सौंपी थी अनगिनती वर्षों की वह सभी विरासत विस्मृत हुई हिंदी की देसी तिथियों ग्रह-नक्षत्रों को सावन-भादों-बैसाख-चैत-फागुन की अपनी   अलग-अलग तासीरों को भी भूल गया। ग्लोबल होने के बाद मगर अब फिर से देसी होने का मन करता है नवसंवत्सर के अवसर पर लौटना जड़ों की ओर प्रीतिकर लगता है। रचनाकाल : 2 अप्रैल 2022

परिपूर्णता की चाहत

पहले जब मैं कच्चा था तब ज्यादा सीधा-सच्चा था हसरत होती थी कितनी जल्दी बन जाऊं मैं समझदार अपनी गलती-कमजोरी को मुस्कान तले तब ढकता था कच्चेपन का अहसास सदा ही नम्र बनाये रखता था। अब समझदार तो हुआ खूब दुनियादारी सब सीख लिया पर अहंकार ने बना दिया मन को कठोर अब नहीं बची नम्रता पुराने दिन जैसी विद्वत्ता ने बना दिया पत्थर जैसा मुझको पक्का। अब हसरत होती है मन में बन जाऊं पहले सा कच्चा यह कैसा अजब छलावा है परिपूर्ण नहीं लग पाता है क्यों वर्तमान? रचनाकाल : 2 अप्रैल 2022