नवसंवत्सर
विस्तृत होने की इच्छा से
मैंने अपनाया अंगरेजी का रंग-ढंग
दुनिया से खुद को जोड़ लिया
लोकल से ग्लोबल होने का सुख भोग लिया
वैश्विक होने की धुन ने पर
मुझको अपनी संस्कृति से ही कर दिया दूर
जड़ से कटकर हो गया खोखला भीतर से
पुरखों ने सौंपी थी अनगिनती वर्षों की
वह सभी विरासत विस्मृत हुई
हिंदी की देसी तिथियों ग्रह-नक्षत्रों को
सावन-भादों-बैसाख-चैत-फागुन की अपनी
अलग-अलग तासीरों को भी भूल गया।
ग्लोबल होने के बाद मगर
अब फिर से देसी होने का मन करता है
नवसंवत्सर के अवसर पर
लौटना जड़ों की ओर प्रीतिकर लगता है।
रचनाकाल : 2 अप्रैल 2022
बहुत अच्छी रचना।
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