साइकिल और मोटरसाइकिल
चलाता मैं साइकिल बनता हूं दीन-हीन लोगों की नजरों में झेलता हूं अपनों के बढ़ते दबाव को होते वे शर्मिंदा गिरता ही जाता है स्टेटस मुहल्ले में। मेरा भी कभी-कभी मन डगमगाता है लगता हूं सोचने कि ले लूं मोटरसाइकिल आफिस में इज्जत बढ़ जायेगी मानेंगे गरीब नहीं लोग आसपास के घण्टों का समय और शक्ति भी बच जायेगी लगती आने-जाने में जो तीस किलोमीटर दूर। लेकिन फिर लगता है बिगड़ता ही जाता है दिन-दिन जो पर्यावरण मैं भी हुआ शामिल यदि बढ़ाने में प्रदूषण तो अपनी ही नजरों में कैसे उठ पाऊंगा कविता फिर कैसे लिख पाऊंगा? इसीलिये झेलता हूं बढ़ते दबाव को मांगता हूं ईश्वर से शक्ति देना टिकने की डिगने नहीं देना मेरे मन के विश्वास को कि एक दिन कभी न कभी मेरी यह मेहनत रंग लायेगी दुनिया मेरे काफिले में शामिल हो जायेगी। अपने इसी सपने के बल पर मैं चलाता हूं साइकिल टालता ही जाता हूं लेना मोटरसाइकिल। रचनाकाल : 22 अप्रैल 2023