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Showing posts from July, 2023

सजा और सुधार

मैं देख बुराई औरों की जब गुस्सा होने लगता हूं आ जाता याद तुरंत कि खुद भी कहां अभी तक निर्विकार बन पाया हूं! गलतियां स्वयं की मुझे बनातीं सहनशील बनता हूं न्यायाधीश नहीं अपराधी के समकक्ष स्वयं को पाता हूं जब अपनी कथा बताता हूं मैं कैसे उबरा बुरी आदतों बुरे कर्म, अपराधों से तो अपराधी को दिशा दिखाई देती है उम्मीदों पर मेरी वह खरा उतरने की कर देता धरती-आसमान को एक मुझे हर रत्नाकर में वाल्मीकि का अक्स दिखाई देता है। रचनाकाल : 28 जुलाई 2023

अनुशासन

पहले मैं अक्सर होता था हैरान कि घण्टों समय बिताते पूजा में जो लोग पता जब उन्हें चलेगा ईश्वर उनका कहीं नहीं है विद्यमान टूटेगा जब भ्रम उनका, उस सदमे से क्या कभी उबर वे पायेंगे? क्यों नहीं लोग कर पाते उसका सदुपयोग जो समय भजन-पूजन में जाया होता है! हैरानी मेरी ज्यादा पर बढ़ गई देख कर यह कि बताया जब लोगों को नहीं देहधारी है कोई भी ईश्वर सब अनुशासित खुद ही होकर सब काम करें पर होते ही डर दूर किसी ईश्वर का सब स्वच्छंद हो गये, मची अराजकता ऐसी अनुशासन दकियानूसी का पर्याय बन गया डर कर मुझको कहना पड़ा कि ईश्वर फिर से लौट आया देगा वह उनको दण्ड करेंगे जो भी अपनी मनमानी। अब सोच रहा हूं कैसे समझाऊं सबको अनुशासन ही ईश्वर है, जो भी तोड़ेगा प्राकृतिक नियम वह भोगेगा अनिवार्य रूप से दण्ड बिना भय के आखिर क्यों नहीं स्वयं को स्वेच्छा से हम कर पाते हैं अनुशासित? रचनाकाल : 24 जुलाई 2023

साफ-सफाई

मैं जब भी सुस्ताने की कोशिश करता हूं मन बेलगाम होकर मनमानी करने लगता है इसलिये मुझे रहना पड़ता हरदम अलर्ट जब भी दिखता है कहीं जरा सा भी कचरा तत्काल सफाई करते रहना पड़ता है मैं जला दूध से कभी, इसलिये छाछ भी सदा फूंक-फूंक कर पीता हूं। अब भी मन से वे मिटी नहीं हैं स्मृतियां जब आलसी हुआ करता था मैं करता तब साफ-सफाई जब हो जाता कचरा खूब जमा उग आते थे जो व्यर्थ पेड़-पौधे उनको जड़ से उखाड़ कर बगिया निर्मल करता था। हो गई देर पर एक बार कुछ ज्यादा ही इतना ज्यादा हो गया इकट्ठा कचरा उसको करते-करते साफ पसीना छूटा फिर भी दाग रह गया उसका हरदम की खातिर कुछ पेड़ विषैले हो गये इतने बड़े डर गया मन ही मन, अब नहीं उखड़ वे पायेंगे पर किसी तरह प्राणों की बाजी लगा उखाड़ा उनको तो गड्ढा जो उससे बना नहीं आज तक पूरा वह भर पाया है।  इसलिये जरा सा भी कचरा या घास-फूस अब सहन नहीं कर पाता हूं करता हूं मन को साफ, दिनोंदिन निर्मल होता जाता हूं। रचनाकाल : 20 जुलाई 2023

अच्छे लोग

हर चीज मुझे पहले दुखदायक लगती थी गर्मी में हो जाता था लू से त्रस्त ठण्ड में शीतलहर से थर-थर कांपा करता था बारिश में कीचड़ से मन किचकिच हो जाता डर सांप-बिच्छुओं का भी हरदम लगता था घर में पत्नी से झगड़ा हर दिन बात-बात पर होता था आफिस में लगता था कि कंपनी मुझसे करती भेदभाव जितने का हूं हकदार हमेशा उससे कम ही देती है मन में थी इतनी भरी नकारात्मकता कोई अच्छा भी करता था, तो शक करता था होगा जरूर कुछ निहित स्वार्थ उसका इस मकसद के पीछे! जब भी मिलता था कहीं चार लोगों से हरदम निंदा रस की बातें करता-सुनता था। फिर मिले मुझे कुछ लोग, सकारात्मकता से थे भरे बुराई जितनी उनकी करता था, अच्छाई वे उससे भी बढ़कर करते थे वस्तुत: बुरा जितना था मैं, अच्छाई में वे उससे बढ़कर अच्छे थे। आखिर में उनसे हार गया, मैं रत्नाकर से वाल्मीकि बन गया सभी अब लगता मुझे सकारात्मक, दिखता कुछ कहीं बुरा भी तो अच्छाई अपनी और बढ़ा, मैं उसे दूर करने की कोशिश करता हूं जो लोग मिले थे अच्छे, उनका मुझ पर है जो कर्ज इस तरह उसे उतारा करता हूं। रचनाकाल : 19 जुलाई 2023

भविष्य की यात्रा

छाई यह कैसी धुंध, घुटन सी होती क्यों क्यों लगा हुआ है मास्क सभी के चेहरे पर? बच्चे उदास यह मरियल जैसे किसके हैं हरियाली गायब हुई कहां सब वृक्ष गये! हे ईश्वर! मैं यह किस ग्रह पर आ गया यहां तो सभी अपरिचित और भयावह दिखता है? जिंदादिल कोई नहीं, सभी के चेहरे मुरझाये से हैं मैं जहां आ गया कहीं मौत का है यह तो साम्राज्य नहीं! वह हरी-भरी प्यारी सी धरती कहां गई वे संगी-साथी कहां गये जिनके अंदर मानवता थी  घुटती जाती है सांस, मौत दिखती करीब हे ईश्वर, मुझको क्यों लाकर मेरे ग्रह से इस जगह भयानक छोड़ दिया? सहसा खुलती है नींद, चौंक कर उठता हूं तर-ब-तर पसीने से, पाता हूं अब भी कांप रहा थर-थर सपने में यह किस अनजाने ग्रह पर जाकर मैं आया था?  रचनाकाल : 16 जुलाई 2023

सच्चाई का बल

मेहनत से जब मैं डरता था थोड़ा सा भी फल बहुत दिखाई पड़ता था जब  पास हुआ था फर्स्ट, साठ प्रतिशत लाया ऐसा तब लगा कि फतह कर लिया एवरेस्ट बच्चे जब लेकिन मेहनत से, नब्बे के ऊपर लाये तब आंख खुली, यह सोच लगा गहरा झटका मेहनत से बचकर, रखकर छोटा लक्ष्य महाअपराध जिंदगी में मैंने यह कर डाला! खुश था मैं छोटे शिखरों पर ही चढ़ क्यों जब सचमुच चढ़ पाना एवरेस्ट पर हर्गिज नहीं असंभव था? तब से मेहनत करता अब मैं घनघोर तरसता था जिस फल को, ढेर लगा है उसका अब पहले थोड़े से कामों को भी बढ़ा-चढ़ाकर मुझे बताना पड़ता था अब पूरा उन्हें बताने में ही सच, सकुचाना पड़ता है समझें न लोग यह ताकि कर रहा अतिशयोक्ति! कल्पना नहीं भर पाती थी जितनी उड़ान कुछ लिखने में सच शुरू किया जब से लिखना कल्पना से कई गुना मुझे तो अब वह अद्‌भुत लगता है मेहनत लगती थी जितनी झूठ बोलने में अब राज खुला यह सच कहना तो सहज बहुत ही लगता है! रचनाकाल : 13 जुलाई 2023

सच के रूप अनेक

जब गांधीजी ने कहा कि है भूकंप हमारे पापों का परिणाम किया था तब घनघोर विरोध कहा टैगोर ने कि घटनाओं का प्राकृतिक हमारे कर्मों से संबंध नहीं हो सकता है। मुझको भी लगता था कि दृष्टि से वैज्ञानिक टैगोर सही हैं, गांधीजी का कथन अवैज्ञानिक है जिससे फैल न जाये कहीं अंधश्रद्धा जनमानस के भीतर! पर कवि मन मेरा कहता था चंदा जब हो सकते मामा चरखा जब वहां चला सकती है बुढ़िया मां जब पंचतंत्र में इंसानों की तरह बोल सकते पशु भी तब भूकंपों का पापों से, संबंध नहीं क्यों जुड़ सकता! कहते हैं कई दार्शनिक भी दुनिया में कोई पत्ता भी जब झरता है महसूस उसे ब्रह्माण्ड समूचा करता है! सहसा तब मुझको लगा कि सच के रूप अनगिनत होते हैं जड़-जीव जगत को फर्क पड़े, न पड़े लेकिन अपना सच गढ़कर हम अपनी उन्नति-अवनति कर सकते हैं कवि का सच हो न अगर तो दुनिया इंसानों के जीने के काबिल कैसे रह पायेगी! आश्चर्य मगर यह होता है नीरस माने जाने पर भी गांधीजी ने कवि के सच को पहचान लिया कवि होकर भी लेकिन गुरुवर सच का वह रूप समझ न सके! रचनाकाल : 11 जुलाई 2023