सच के रूप अनेक


जब गांधीजी ने कहा
कि है भूकंप हमारे पापों का परिणाम
किया था तब घनघोर विरोध
कहा टैगोर ने कि घटनाओं का प्राकृतिक
हमारे कर्मों से संबंध नहीं हो सकता है।
मुझको भी लगता था कि दृष्टि से वैज्ञानिक
टैगोर सही हैं, गांधीजी का कथन अवैज्ञानिक है जिससे
फैल न जाये कहीं अंधश्रद्धा जनमानस के भीतर!
पर कवि मन मेरा कहता था
चंदा जब हो सकते मामा
चरखा जब वहां चला सकती है बुढ़िया मां
जब पंचतंत्र में इंसानों की तरह बोल सकते पशु भी
तब भूकंपों का पापों से, संबंध नहीं क्यों जुड़ सकता!
कहते हैं कई दार्शनिक भी
दुनिया में कोई पत्ता भी जब झरता है
महसूस उसे ब्रह्माण्ड समूचा करता है!
सहसा तब मुझको लगा कि सच के
रूप अनगिनत होते हैं
जड़-जीव जगत को फर्क पड़े, न पड़े लेकिन
अपना सच गढ़कर हम अपनी
उन्नति-अवनति कर सकते हैं
कवि का सच हो न अगर तो दुनिया इंसानों के
जीने के काबिल कैसे रह पायेगी!
आश्चर्य मगर यह होता है
नीरस माने जाने पर भी गांधीजी ने
कवि के सच को पहचान लिया
कवि होकर भी लेकिन गुरुवर
सच का वह रूप समझ न सके!
रचनाकाल : 11 जुलाई 2023

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