गूंगे का गुड़
जब नहीं जानता था कुछ
मैं चुप रहता था
जब जाना कुछ
चिल्ला-चिल्ला कर कहता था
अब सबकुछ जान गया जब तो
फिर से हरदम चुप रहता हूं
जिस जगह से चला था, फिर से
अब उसी जगह जा पहुंचा हूं
कहते हैं शायद इसीलिये
होते हैं एक सरीखे बच्चे और बूढ़े
सबको लगता मैं लौट के बुद्धू घर आया!
अधजल थी जब तक
गागर खूब छलकती थी
अब भरी हुई है उसी तरह से शांत
कि जैसे खाली हो
दिखते समान हैं दोनों
कौन बताये क्या है फर्क
कि गूंगा तो गुड़ खाकर भी
बस चुप ही रहता है!
रचनाकाल : 2-3 अगस्त 2023
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०६-०८-२०२३) को 'क्यूँ परेशां है ये नज़र '(चर्चा अंक-४६७५ ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत-बहुत धन्यवाद
Deleteवाह! बहुत सुंदर बात, जो कहीं न जा सके असली बात तो वही है
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद मैडम
Deleteगागर खूब छलकती थी
ReplyDeleteअब भरी हुई है उसी तरह से शांत
कि जैसे खाली हो
दिखते समान हैं दोनों
कौन बताये क्या है फर्क
कि गूंगा तो गुड़ खाकर भी
बस चुप ही रहता है!
वाह!!!
बहुत सटीक एवं चिंतनपरक ।
बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteसर जी, लेकिन आज से 10 वर्ष पूर्व ही बिना किसी अनौपचारिक परिचय के मैँ आपके विशाल व्यक्तित्व को समझ गया था- आपके विचार और व्यवहार की साम्यता से तो मैं इस कदर अभिभूत हूं कि आपके सम्मान में ‘नमस्ते’ शब्द भी छोटा प्रतीत होता है.
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद हरदहा जी
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