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Showing posts from May, 2021

जिंदगी और मौत के बीच

जिंदगी खत्म होना दुखद है बहुत किंतु मर पाये भी जो नहीं ठीक से सांस चलती रहे, फिर भी जीवित न हो त्रासदी कोई इससे भी हो सकती है क्या बड़ी! जिंदगी के लिये तो सभी लोग करते दुआ मौत आने की खातिर भी करनी पड़े प्रार्थना परिजनों के लिये इससे ज्यादा भयानक कोई और पीड़ा हो सकती है क्या? जानता है नहीं कोई होता है क्या मरने के बाद में किंतु रहना किसी का अधर में नहीं देख पाते हैं हम या तो इस पार कोई रहे या फिर उस पार जाये उतर बीच मझधार में कोई फंस जाय, बेहद है मर्मांतक। पीड़ा मरने की होती है सबसे बड़ी किंतु तिल-तिल कर आये अगर मौत तो क्रूरता की ये लगती पराकाष्ठा दो किसी को अगर जिंदगी तो सलीके से दो क्रूर इतने क्यों बनते हो ईश्वर, मनुष्यों के प्रति? रचनाकाल  : 30 मई 2021

मौत सहज स्वाभाविक

मरने से पहले ही चाहता हूं भोगना मैं पीड़ा मरणांतक ताकि अंत काल में कष्ट न हो मरने का असहनीय। लेकिन जब होगी नहीं पीड़ा ही मर्मांतक कैसे मर पाऊंगा? तो क्या फिर पीड़ा का सहन नहीं होना ही मौत है? नहीं, नहीं, ऐसा हो सकता नहीं होने ही चाहिये जन्म-मृत्यु स्वाभाविक मरणांतक कष्ट कभी हो ही नहीं सकते हैैं प्राकृतिक। इसीलिये चाहता हूं इतना तपाना शरीर को कि कुछ भी न रह जाय असहनीय अंत में प्राण निकल जायें पूरी सहजता से निकलती है सूख कर नारियल की गिरी जैसे खोल से गिरते हैं फल जैैसे  पक कर सहजता से पेड़ से। रचनाकाल : 29 मई 2021

जिंदादिली

दु:स्वप्न बन जाये जब जिंदगी ऐसे जीवन का आखिर करे क्या कोई? अगली बारी है किसकी समाने को आगोश में मौत के भय के साये में बीतें अगर दिन यही सोचते-सोचते मृत्यु से भी क्या बदतर नहीं होगी तब जिंदगी? होने देना है लेकिन ये हर्गिज नहीं चिर विदा हो गये जो, उन्हें याद कर शोक में बैठने का समय ये नहीं युद्ध जारी है घनघोर जो इन दिनों काल से जीतने उसमें देना नहीं है किसी मूल्य पर मौत को देनी आहुति पड़े चाहे कितने ही लोगों की पर मुर्दनी छाने पाये न दुनिया में, जिंदा है जब तक यहां एक इंसान भी जिंदगी को नहीं होने देना है शर्मिंदा दयनीय बन आखिरी सांस तक रखनी कायम है हरएक इंसान को अपनी जिंदादिली। रचनाकाल : 29 मई 2021

मन की शक्ति

जब उम्र नई थी, अतुलित बल था भीतर कुछ भी नहीं असम्भव था तब मेरी खातिर चौबीसों घण्टे मैं घोर परिश्रम करता था होती थी नहीं थकान, उल्लसित रहता था मन हरदम खुद को भाग्यवान दुनिया में सबसे ज्यादा अनुभव करता था। ढलते ही पर नई उम्र, अचानक शक्तिहीन हो गया रह गया हक्का-बक्का बहुत दिनों तक समझ ही पाया नहीं कि आखिर क्या से क्या हो गया! निराशा भरे दिनों में उन्हीं, हुआ सहसा ही यह अहसास शक्ति का स्रोत तन नहीं, मन है मन में हो अदम्य विश्वास अगर तो बाधा कोई रोक नहीं सकती है आगे बढ़ने से। विश्वास यही है मन का जिसके बल पर गांधी मरणासन्न अवस्था में भी उपवास पूर्ण करते इक्कीस दिनों का श्रवणशक्ति के बिना बिथोवन रचते हैैं अप्रतिम धुन छूती हैैं पैरों के बिना अरुणिमा शिखर हिमालय का लगभग पूरा अपंग होकर भी जिजीविषा के बल पर ही दशकों जीवित रहते स्टीफन हॉकिंग हेलेन केलर प्रेरित करतीं पूरी दुनिया को अनगिनत प्रेरणादायक लोग हैैं ऐसे मन की ताकत के बल पर जिनने रच डाला है इतिहास रोक पाई न अक्षमता तन की, जिनकी राहों को। मैं भी भरकर विश्वास लबालब मन में फिर से होता हूं उठ खड़ा कि अब तक जीती जो आसान दौड़ थी, तन की मन की ताकत

चलें गांव की ओर

बड़े-बड़े आयोजन या होटल में जाने से मुझको डर लगता है मैं नहीं जानता मैनर उच्च घरानों के चाकू-कांटों का ज्ञान नहीं मुझको, अपने हाथों से खाना खाता हूं चिकनी-चुपड़ी बातें मैं बना नहीं पाता जैसे रामू से वैसे अपने अरबपति मालिक से बतियाता हूं सचमुच गंवार हूं मैं, अनगढ़ डर मुझको चमक-दमक से लगता है जंगली कहे जाने से भी है मुझको न कोई आपत्ति गांव-देहात जंगलों जैसा अपना सुंदर लगता है कोशिश तो मैंने बहुत करी, एडजस्ट शहर में होने की दो दशक कीमती गंवा दिये अपने इस चक्कर में आखिर में पर अहसास मुझे होता है यही मैं नहीं हूं ऐसा पौधा शहरी मिट्टी में फल-फूल सकूं गमलों में दम घुटता है, मुझको जंगल घर सा लगता है मैं नहीं चाहता जीना बीच मुखौटों के मुंहफट, गंवार, जंगली कहे जाने वाले अपने लोगों के बीच लौट जाने का अब मन करता है।   रचनाकाल : 21 मई 2021

सोशल-अनसोशल

मैं नहीं यूज करता हूं फेसबुक, या फिर इंस्टाग्राम कि जिस दुनियादारी के कोलाहल से बचकर लिखना चाह रहा हूं कविता मुझको वही शोरगुल नजर वहां भी आता है। करते हैैं जब आग्रह मुझसे लोग कि लाइक कर दूं उनकी पोस्ट या कि सबस्क्राइब कर लूं चैनल धर्मसंकट में तब मैं बहुत बड़े पड़ जाता हूं रुचि जिसमें नहीं है मेरी या जो मुझको नहीं पसंद उसी को लाइक या सबस्क्राइब करके झूठा कैसे बन जाऊं मैं अपनी ही नजरों में! सच तो यह है जो आती चीज पसंद मुझे उसका भी मैं नहीं पीटता डंका बस चुपके से मैसेज करके अपनी राय बता देता हूं। दरअसल दिखावे के युग में नफरत सी होती है मुझको विज्ञापन से मैं नहीं चाहता कोई मेरा कर ले इस्तेमाल किसी का करता आऊं नजर न मैं विज्ञापन जाने-अनजाने में। माध्यम प्रचार का नहीं किसी के बन पाने की कीमत तो बेशक मुझे चुकानी पड़ती है शुभचिंतक भी धीरे-धीरे दुष्चिंतक बनते जाते हैं  सोशल मीडिया के बूम भरे इस युग में भी अनसोशल मैं रह जाता हूं। रचनाकाल : 19 मई 2021

मजबूरी और मजबूती

ऐसा नहीं कि मुझको डर नहीं लगता है। मैं नहीं कराता बीमा, मेडिक्लेम कहा था गांधीजी ने ईश्वर पर है अविश्वास, ऐसा करना मुझको भी लगता है कि सुरक्षित जितना ज्यादा करता हूं मैं जीवन को यह नीरस उतना ज्यादा होता ज्यादा है यह बात मगर प्रचलित धारा के इतनी ज्यादा है खिलाफ सच कहने में डर लगता है बन जाऊं ना मैं कहीं पात्र उपहास का। डर लेकिन सचमुच लगता है जब खतरा हारी-बीमारी का नजर सामने आता है मर रहे महामारी से हर दिन लोग अनगिनत लाखों से कम बिल बनता नहीं अस्पतालों का सचमुच यदि बीमार पड़ गया लाखों रुपए कहां से आखिर लाऊंगा! दो पल को तब विश्वास डगमगा जाता है ईश्वर पर तो क्या करके मेडिक्लेम सुरक्षित खुद को कर लूं? सहसा ही जगेश जैसे तब आ जाते हैैं याद मुझे सहकर्मी मामूली पगार में सोच नहीं सकते हैैं जो लग्जरी वहन करना बीमा या मेडिक्लेम सरीखी सुविधाओं का ईश्वर पर रखना विश्वास ही जिनकी मजबूरी है। अनगिनत लोग हों इस हालत में जहां वहां खुद को कर लेना सब खतरों से मुक्त भयानक मुझको लगता है कि मजबूरी में सहते जितने भी वे कष्ट उन्हें स्वेच्छा से सहकर उन्हें चाहता समझाना यह बात कि मजबूरी का नहीं बल्कि मजबूती का ही न

प्रार्थना

शौक नहीं है मुझे कष्ट सहने का दु:ख पर अपने हिस्से का भोगूं, यह इच्छा है हे ईश्वर मेरी पीड़ाएं मत हर लेना दे देना इतनी सहनशक्ति दु:ख असहनीय सहते सहते बस पागल कहीं न हो जाऊं। कल्पनातीत दु:ख भोग रहे जो, लोग इन दिनों मुझसे सहन नहीं होता मझधार बीच में लोग डूबते जायें मैं यह बैठ किनारे हर्गिज देख नहीं सकता मरने वालों के साथ कोई फायदा नहीं मरने से मुझको नहीं चाहिये ऐसी दुनियादारी भरी समझदारी चाहते अगर हो मुझे बचाना मरणांतक पीड़ा से तो फिर देना ऐसा दु:ख न किसी को जो मैं खुद भी सह न सकूं मंजूर नहीं है यदि यह तो, हे ईश्वर जो भी दु:ख हो सर्वाधिक कठोर मेरे हिस्से में ही उसको सबसे पहले तुम दे देना। रचनाकाल : 15 मई 2021

लड़ाई अंधकार से

घनघोर अंधकार मेंं अनजाने जीव-जंतुओं की कैसी ये दुनिया है? कहां गये मनुष्य जो उजालों में रहते थे करते थे प्रार्थना तमसो मा ज्योतिर्गमय सत्ता ये कैसे बदल गई? कहा यही जाता था हमेशा से जीतता नहीं है कभी अंधकार सह कर भी कष्ट लोग घनघोर लड़ते थे पक्ष में सच्चाई के टूटता नहीं था कभी उनका विश्वास यह कि जीत होगी सत्य की ही अंत में। छंट नहीं रहा है क्यों अंधेरा फिर लड़ रहे थे सत्य के जो पक्ष में कहां गये जयकार हो रही जब अंधकार की फिर सामने आता नहीं है कोई क्यों विरोध में? प्रजाति क्या वो खत्म हो चुकी जिसे उजाले की संतान कहा जाता था? नहीं, नहीं, कदापि नहीं हो सकता सत्य यह ढूंढ़ना ही होगा मुझे उनको हो सकता है जो कहीं पड़े हों लहूलुहान ताकतवर बेशक है अंधकार बेहद कहीं कर न दिया हो इसने मरणासन्न सत्य को! इसके पहले कि सहस्राब्दियों तक एकछत्र कायम हो राज्य, अंधकार का ढूंढ़ना ही होगा मुझे सत्य की संतानों को लड़ना ही होगा उनके साथ मिलकर तमस से हो न जाय युगों जितनी ताकि लम्बी रात यह। रचनाकाल : 14 मई 2021

काल से होड़

बेशक भयानक है समय बेहद शोक में गंवाना किंतु उचित नहीं वक्त नहीं बैठ कर तटस्थ यह विश्लेषण करने का जितना ही भीषण कहर बरपेगा जीना होगा उतनी जिंदाजिली से जीतने न पाये खौफ मौत का भीषण इस युद्ध में। लड़नी पड़ती हैं सबको अपने-अपने हिस्से की लड़ाइयां नियति है हमारी अगर लड़ना महामारी से तो यही सही मरना तो सबको है एक दिन जीते जी मरना पर उचित नहीं लड़ें इतने सुंदर हम ढंग से कि मरणांतक पीड़ा भी बन जाये आकर्षक गोद में भी मौत की भूलने न पायें जीवन मूल्यों को काल को भी रश्क हो कि पाला पड़ा था उसका शानदार कैसे मनुष्यों से ढुलक पड़ें उसकी भी आंखों से आंसू की बूंद चंद। रचनाकाल : 13 मई 2021

स्वैच्छिक सजा

राह  तो दिखाई थी पूर्वजों ने, मैं ही पर करता रहा अनदेखी जान-बूझ बचता रहा यात्रा करने से कठिन भोगने में मग्न रहा सुख-सुविधा मान लिया बीत जायेगी यूं ही जिंदगी ये सारी शांति काल में। प्रकृति तो उदार थी, अपार दिये संसाधन कृतज्ञता जताने के बदले पर लूटा-खसोटा हमने उसको निर्दयता से मनुष्येतर जीवों पर दुनिया के जुल्म ढाये पूरी बेशर्मी से। खत्म हो चुकी है मगर सहनशक्ति प्रकृति की मांग रही है हिसाब गिन गिन कर सारे अपराधों का दे रही है अनगिनती लोगों को सजा मृत्युदण्ड की शेष बच रहे हैैं जो भोगना है उनको आजीवन कारावास शामिल तो सब ही थे नोंचने-खसोटने में प्रकृति को मिली थीं जो लूट में सुख-सुविधाएं हिस्सा तो बंटाया सबने जाने-अनजाने में कैसे फिर कोई बच सकता सजा पाने से? मैं भी स्वीकार करता फैसला सिर-माथे पर प्रकृति जो भी देगी सजा, उससे इंकार नहीं चाहता हूं लेकिन खुद करना पश्चाताप जिंदगी कठोर इतनी चाहता हूं जीना ताकि धुल जायें सारे ही पाप मानव जाति के निखर उठे फिर से मनुष्यता गरिमा उसकी बनी रहे होना न पड़े किसी के भी आगे शर्मिंदा। रचनाकाल : 10 मई 2021

महाभयावह रात

देखा था सपना भयावह चल रही हैैं आंधियां घनघोर लेकिन जागता तो देखता हूं हर जगह छाई है शांति डरावनी बादलों ने ढंक रखा आकाश सारा देख पर उनको खुशी होती नहीं भय और बढ़ जाता है भीतर का। इन दिनों इतनी हकीकत है भयानक चाहता हूं नींद आ जाये तो शायद शांति मिल जाये जरा सी देर को जागता हूं किंतु तो क्या देखता हूं थरथराहट थम नहीं पाई अभी तक याद कर दु:स्वप्न को। कर नहीं पाता मगर तुलना भयानक कौन है ज्यादा हकीकत या कि सपना? दिन वही हैैं, रात भी है वही जो कुछ माह पहले थी मगर इस बीच जाने क्या हुआ बदलाव बदले लग रहे हैैं मायने हर चीज के बस प्रार्थना करता हूं मन ही मन कि जल्दी बीत जाये यह भयानक रात हो जाये सवेरा, पूर्ववत हो जाय सबकुछ छोड़ कर जो भी अचानक जा चुके हैैं जागते ही वे सभी मिल जायें पहले की तरह! रचनाकाल : 9 मई 2021

क्या पाया, क्या खोया!

सिलसिला आज का है नहीं, काल प्राचीन से ही धरती लेती है करवट, बदलते हैैं मौसम बदलती हैैं ऋतुएं कई साल भर के ही भीतर कई आपदाएं तो आती हैैं सदियों में ही लौटकर जानते हैं मनुष्येतर प्राणी सभी होगा कब कैसा परिवर्तन धरती के ऊपर स्वयं को वे तैयार करते हैैं वैसे समय के लिये जुटाते हैैं खाना, बढ़ाते वजन गर्मियों के लिये दूर देशों का पक्षी सफर करते हैैं आपदाओं की आहट समझते हैैं वो जंगली जिनको हम मानते हैैं कई वो भी जनजातियां बचा लेती हैैं खुद को सुनामी जैसी आपदाओं में भी आते हैैं जब भूकम्प उसके पहले कई प्राणी देते पता अपनी बेचैनियों से कि आने ही वाली है जल्दी बड़ी आपदा। हम समझदार तो मानते हैैं बहुत खुद को मानव मगर समझ पाते नहीं हैैं कि कहती है क्या हमसे वसुंधरा आपदाओं की कर पाते पहले से कोई तैयारी नहीं शांति के काल को भी गंवा देते हैैं व्यर्थ में बस यूं ही करते जाते हैैं उन्नति तो हम खूब कृत्रिम मगर कटते जाते हैैं उतना प्रकृति की सहजता-सरलता से भी कौन जाने कि चक्कर में इस पाने-खोने के हम आगे बढ़ते हैैं या फिर पिछड़ते ही सबसे चले जाते हैैं! रचनाकाल : 6 मई 2021

अवांछित

एक तरफ है मौत का ताण्डव निखर रही है प्रकृति दूसरी ओर भयानक कैसा मंजर है! ग्रीष्मकाल के चरम समय में छाये हैैं ये कैसे बादल बूंदाबांदी हरती तो है ताप, मगर मन में जाने क्यों अनजानी दशहत सी होती है। सबकुछ असमय हो रहा इन दिनों वर्षा ऋतु में पड़ता अकाल गर्मी में मूसलधार बरसता है पानी। बच्चे जवान मर रहे महामारी से दारुण चीखों से दिल दहल-दहल जाता है लेकिन वन्य जीव जब जंगल से सड़कों पर आ, कर रहे नृत्य उल्लसित दिखाई देती है जब प्रकृति नसें तब लगता है मस्तिष्क की चटक जायेंगी। अवांछित इतने हैैं क्या हम मानव इस धरती पर अस्तित्व हमारा ही संकट में आता हो जब नजर मनुष्येतर तब सारे जीव-जंतु खुश होकर नाचें-गायेंगे? हे ईश्वर! यह सब साबित हो न हकीकत जल्दी से जल्दी यह बीत जाय दु:स्वप्न हमारी मानवता हमको वापस मिल जाय अवांछित बन कर हम धरती पर जिंदा रह नहीं पायेंगे। रचनाकाल : 2 मई 2021

विध्वंस और सृजन

त्रासदी है बहुत गहरी बेशक मगर शोक करने का हर्गिज समय यह नहीं जितनी रफ्तार से हो रहा है विध्वंस उतनी ज्यादा ही सृजनात्मकता लायें हम जिंदगी-मौत की इस लड़ाई में होने न पाये विजय ताकि यमराज की। मृत्यु आती अकेले कभी भी नहीं शोक, व्याकुलता, बेचैनी, गहरी उदासी अकर्मण्यता साथ में लाती है जिंदगी के उजाले से डरती है वो चाहती है कि फैले अंधेरा घना तम में डूबा रहे सारा अस्तित्व ही जिंदगी का न हो कोई नामो-निशां। हम उजाले की संतान हैैं पर मनुज पूर्वजों ने पराजित किया है सदा तम के अंधियारे को हार मानेंगे हम भी नहीं, मौत जितनी भी विकराल हो छीन ले कितने भी बंधुओं को मगर फैलने देंगे हर्गिज न साम्राज्य अंधियारे का जितनी तेजी से सब कुछ मिटायेगी वो उतनी तेजी से जारी रखेंंगे सृजन मिटने देंगे न धरती से अच्छाई को हावी होने न देंगे भय को मृत्यु के मर के भी राख से अपनी लेंगे जनम खण्डहर पर बनायेंगे फिर-फिर भवन। रचनाकाल : 28 अप्रैल  2021

प्रार्थना

त्रस्त होकर कोरोना महामारी से सारी धरती के इंसानों की ओर से दूर करने की खातिर विकट आपदा कर रहा था मैं ईश्वर से जब प्रार्थना मैंने देखा कि धरती के सब चर-अचर हाथ जोड़े खुशी से खड़े थे वहां कर रहे थे अदा अपनी कृतज्ञता खत्म करने की खातिर विकट आपदा मिल गई थी उन्हें मुक्ति इंसान के सदियों के त्रास से। देख कर स्तब्ध था मैं निष्ठुर सत्य को खुद को नायक समझते थे दुनिया का हम किंतु कर्मों से अपने खलनायक बन बैठे सभी के लिये इसलिये जब फंसे घोर संकट में तो उल्लसित थी प्रकृति सारी, चेहरे पे सबके निखार आ गया। मैं था शर्मिंदा कैसे करूं प्रार्थना कष्ट हरने को ईश्वर से इंसानों का हाथ जोड़े व्यथित बस यही कह सका कष्ट जो भी दिये, उनको सहने की भी शक्ति देना हमें महामारी की इस अग्नि में स्नान कर मौका यदि फिर मिला, बच गये हम अगर तब ये कोशिश करेंगे कि सचमुच के नायक बनें त्रस्त हमसे न हो कोई भी चर-अचर गोद में धरती मां की सब निर्भय रहें मुक्ति हमसे न पाने की कोई करे प्रार्थना। रचनाकाल : 23 अप्रैल 2021