चलें गांव की ओर
बड़े-बड़े आयोजन या होटल में जाने से मुझको डर लगता है
मैं नहीं जानता मैनर उच्च घरानों के
चाकू-कांटों का ज्ञान नहीं मुझको, अपने हाथों से खाना खाता हूं
चिकनी-चुपड़ी बातें मैं बना नहीं पाता
जैसे रामू से वैसे अपने अरबपति मालिक से बतियाता हूं
सचमुच गंवार हूं मैं, अनगढ़
डर मुझको चमक-दमक से लगता है
जंगली कहे जाने से भी है मुझको न कोई आपत्ति
गांव-देहात जंगलों जैसा अपना सुंदर लगता है
कोशिश तो मैंने बहुत करी, एडजस्ट शहर में होने की
दो दशक कीमती गंवा दिये अपने इस चक्कर में
आखिर में पर अहसास मुझे होता है यही
मैं नहीं हूं ऐसा पौधा शहरी मिट्टी में फल-फूल सकूं
गमलों में दम घुटता है, मुझको जंगल घर सा लगता है
मैं नहीं चाहता जीना बीच मुखौटों के
मुंहफट, गंवार, जंगली कहे जाने वाले
अपने लोगों के बीच लौट जाने का अब मन करता है।
रचनाकाल : 21 मई 2021
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