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Showing posts from January, 2023

गणतंत्र दिवस

आकर्षित करता है मुझको गणतंत्र दिवस इच्छा होती है खुद को बांधूं नियम-कायदों के भीतर गढ़ पाऊं अपनी खातिर ऐसा संविधान जिसके नियमों का उल्लंघन यदि करूं सजा पा जाऊं खुद अपने द्वारा। इसलिये मनाता हूं यह दिन हर साल इसी आशा में हो पाऊंगा सफल कभी न कभी खुद को रखने में अनुशासित कुछ दूर जरा खुद से हटकर निष्पक्ष दृष्टि से देख सकूंगा कहीं कभी कर बैठा तो अन्याय नहीं! बस यही लक्ष्य मन में रखकर हर साल मना गणतंत्र दिवस यह याद दिलाता हूं खुद को इक दिन तो ऐसा आयेगा जब खुद की खातिर गढ़े गये नियमों पर मैं चल पाऊंगा! रचनाकाल : 26 जनवरी 2023

उजाले की ओर

समय निकलता जाता हैै जल्दी ही छंट जायेगा सब अंधियारा होती जायेंगी प्रखर सूर्य की किरणें गहमागमी बढ़ती जायेगी पर मेरी तो कुछ नहीं हो सकी तैयारी बोझिल हैैं पलकें निद्रा से क्या यूं ही बासीपन से, होकर अस्त-व्यस्त मैं अगले दिन में जाऊंगा? लुट गई जमा-पूंजी जो दी थी पुरखों ने मैंने जो संचित किये मूल्य वे निशाचरी जीवन में तो जंच जाते हैैं पर दिन के गहन उजाले में डरता हूं, अपना रूप देख आईने में खुद ही तो मैं भयभीत नहीं हो जाऊंगा! संक्रांति काल में बदहवास करता हूं कोशिश करके थोड़ा पॉलिश खुद को चमका लूं पर जैसे-जैसे बढ़ता जाता है प्रकाश खुलती जाती है कलई समूची, होता जाता बेनकाब अगली पीढ़ी जो सोचेगी वो सोचेगी पर अपनी ही नजरों में हे भगवान, नजर आता कैसा! क्या अंधकार युग बनकर ही मेरा यह युग इतिहास जमा हो जायेगा? रचनाकाल : 15 जनवरी 2022

जुआ

कोसता रह गया मैं युधिष्ठिर को ही मेरे साथी जुआरी सभी बन गये शेयर बाजार में रोज पैसा लगाकर मुनाफा कमाने की कोशिश ही धंधा गजब बन गया दे के सरकार को टैक्स अपराध के बोध से बच गये पर मैं समझाऊं कैसे उन्हें कुछ नहीं और बस यह जुए का ही तो दूसरा नाम है! है अजब त्रासदी हो गया हूं अकेला निपट चल रही सारी दुनिया ही सेंसेक्स की चाल से फिर मैं रोकूं उन्हें किस तरह ढूंढ़ते हैैं जो उसमें ही आजीविका? आइने की तरह साफ दिखता है मुझको गलत है ये सब पर नहीं कुछ भी कर पा रहा हो के असहाय बस देखने के सिवा भूल कर पुरखों की करना आलोचना, कर रहा प्रार्थना माफ भगवान करना हमें, दाग इतिहास में बन के ही रह गये! रचनाकाल : 12-14 जनवरी 2022