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Showing posts from January, 2024

गणतंत्र

मैं जब तक था स्वच्छंद नहीं अहसास कभी होता था कितना परेशान होते हैं इससे लोग मगर जब मुझे पहुंचने लगा कष्ट कुछ लोगों की मनमानी से तब अपनी गलती पता चली। अब नहीं लगाता आजादी का अर्थ निरंकुश होना रखता हूं खुद को शासन में जितनी पराधीनता होती है दुखदायी उतना बेलगाम होना भी घातक होता है अनुशासन में सब रहें तभी गणतंत्र सभी शासन से उत्तम होता है। रचनाकाल : 26 जनवरी 2024

प्रतिकार

होती है बेहद पीड़ा जब कोई मुझ पर झूठा आरोप लगाता है कोशिश करता था पहले दोषारोपण करनेवाले को समझाने की पर सन्न रह गया देख कि उसको रहता है सब पता मुझे आहत करने को जानबूझ कर वह प्रपंच फैलाता है! तब से बस चुप ही रहता हूं सह लेता हूं चुपचाप सभी हमलों को होता जाता हूं क्षत-विक्षत सूझता नहीं तरीका और दूसरा हमलावर का मत परिवर्तित करने का। रचनाकाल : 24 जनवरी 2024

मुखौटा

मैं तो न कभी था बेइमान सच था स्वभाव में ही हरदम पर झूठे लोगों ने मुझको ही सच का ओढ़ मुखौटा, झूठा बना दिया! पहचान छीन ली मेरी घर पर आये थे जो बन करके मेहमान मुझे ही बेघर करके अपना कब्जा जमा लिया! जो थे स्वभाव से हिंस्र, जंगली उनसे कुछ उम्मीद न थी पर काम वही आये हैं आड़े वक्त शरीफों ने ही मुझसे दगा किया। रचनाकाल : 23 जनवरी 2024

अच्छाई के पथ पर

अच्छाई मुझको आती नजर जहां भी कोशिश करता हूं अपनाने की बचता ही नहीं समय कि बुराई देखूं, निंदा करूं पैरवी करूं बुरे लोगों को दण्डित करने की। प्रेरित मुझको करते हैैं अच्छे लोगों के जीवन के कई प्रसंग लौटते थे जब करके गंगाजी में स्नान संत कोई तो महिला एक उलट देती थी उनके ऊपर कचरा रोज दुबारा उन्हें नहाना पड़ता था। हद तो पर तब हो गई एक दिन उन्हें नहाना पड़ा सैकड़ों बार मगर गुस्सा आया न जरा भी होकर शर्मिंदा वह महिला उनके पैरों पर गिर गई बुराई उसके मन के भीतर की मिट गई संत की सहनशीलता जीत गई। थे परम भक्त ईश्वर के कोई एक चलाते थे दुकान कपड़े की गुस्सा कभी न उनको आता था उकसाने खातिर उनको पहुंचा नौजवान उनकी दुकान पर एक पूछ कर भाव एक महंगी साड़ी का करके उसके दो टुकड़े, पूछा अब कितने की होगी? वह टुकड़े करता गया, संत कीमत कम करते गये अंत में बोला वह अब तो यह मेरे किसी काम की नहीं रही! वह साधु पुरुष बोले यह सचमुच किसी काम की नहीं रही तब उनके पैरों पर गिर कर वह लगा मांगने माफी बोले भक्त कि कोई बात नहीं बस टुकड़े जो भी किये जोड़ दो वह सारे। अहसास हुआ तब नौजवान को सरल तोड़ना है जितना उतना ही होता कठिन जोड़ना चीजों

नजरिया

पहले अक्सर ही हो जाता था परेशान खामी मुझको सारी चीजों में दिखती थी होते ही एक समस्या हल तैयार दूसरी मिलती थी लेकिन जब झांका अपने मन के भीतर तो खामी की जड़ आ गई पकड़ में मैंने अपना दृष्टिकोण ही बदल लिया जो जैसा है वैसा ही अब करके उसको स्वीकार वहीं से अच्छाई के पथ पर बढ़ने खातिर प्रेरित करता हूं तुलना ही करता नहीं कभी अच्छाई और बुराई की यह समझ गया हूं खोजूंगा यदि निष्कलंक सम्पूर्ण कोई इंसान अगर तो कभी नहीं मिल पायेगा इसलिये लचीलापन रखता इतना ज्यादा अपने भीतर झंझावातों में झुकना चाहे जितना ज्यादा पड़े मगर दीपक की लौ की तरह दिशा हरदम ऊपर ही रखता हूं कितनी भी बुरी परिस्थिति हो आशावादी ही रहता हूं हर एक आपदा में अवसर अब मुझे दिखाई पड़ता है। रचनाकाल : 16 जनवरी 2024

समय

जब मन अशांत रहता था कविता लिखना करके स्थगित समय अच्छा आने का इंतजार बस करता था। इस चक्कर में ही समय मगर मैंने कितना ही गंवा दिया अब बुरे समय को ही अच्छे में परिवर्तित करने की कोशिश करता हूं कितनी भी हो प्रतिकूल परिस्थिति अच्छाई से जोंक की तरह हरदम चिपटा रहता हूं यह समझ गया हूं समय नहीं होता अच्छा या बुरा हमीं अपने कर्मों से ही उसको अच्छा या बुरा बनाते हैं जीवन सबको मिलता है एक समान प्रतीक्षा में अनुकूल समय की हम जो रोज गंवाते जाते हैं उतने ही दिन में महापुरुष कायम मिसाल कर जाते हैं। रचनाकाल : 9-14 जनवरी 2024

प्राकृतिक जीवन

जब नहीं समझता था संकेत प्रकृति के ईश्वर से अपनी इच्छाओं को पूरा करने की अक्सर ही जिद करता था बचकानेपन की हद थी बारिश होती जब घनघोर परीक्षा लेने खातिर ईश्वर मेरी बात मानता है कि नहीं बरसात बंद कर दे तुरंत बेतुकी मांग यह करता था जब रुक जाता था पानी तब ईश्वर को अपना मित्र मान बेहद प्रसन्न हो जाता था। अब जान गया हूं ईश्वर की सहृदयता वह जो भी करता है हरदम अच्छे की ही खातिर करता है इसलिये समझने की कोशिश करता उसके संकेतों को अपनी इच्छा से नहीं, प्रकृति की इच्छा से जीने की कोशिश करता हूं जीवन को कृत्रिम बनाने की इच्छाओं ने नुकसान बहुत पहुंचाया है। रचनाकाल : 2-3 जनवरी 2024

स्वभाव

जो जैसा है मैं उसके संग वैसा ही बन जाने की कोशिश करता हूं ईश्वर की बातें करता हूं आस्तिक लोगों के बीच नास्तिकों के संग करता हूं चर्चा ईश्वर के बिना सहारे के मानव जीवन कैसे उन्नत हो सकता है। भौतिकतावादी लोगों से बातें करता जीवन समृद्ध बनाने की अध्यात्मवादियों से आत्मा को उन्नत करने के गुर सीखा करता हूं। नई पीढ़ी को देता हूं यह मशविरा पुरानी धूल झाड़कर नव पथ का निर्माण करें जो बचे हुए हैं रत्न पुरानी पीढ़ी के अनमोल विरासत उनसे हासिल करता हूं। चाहे यह लगे विरोधाभासी कितना भी कितनी भी हों विपरीत परस्पर राहें सबके जरिये हम अपनी उन्नति कर सकते हैं बस खुद के प्रति ईमानदार यदि रहें जहर को भी अमृत में परिवर्तित कर सकते हैं। इसलिये किसी के भी स्वभाव को नहीं बदलने के चक्कर में पड़ता हूं जो जैसा भी है वैसा ही वह सर्वश्रेष्ठ बन सके इसी हरदम प्रयत्न में रहता हूं। रचनाकाल : 1 जनवरी 2024