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Showing posts from April, 2021

हसरत

जिंदगी इतनी सस्ती तो होनी नहीं चाहिये मौत कीड़े-मकोड़ों के जैसे हम इंसानों को ले चले! परिजनों-प्रियजनों को पहुंचती है पीड़ा बेशक मर्मांतक शेष ब्रह्माण्ड को पर नहीं फर्क पड़ता है क्या कोई भी? एक-दूजे से हम हैैं जुड़े इस तरह एक पत्ता भी टूटे तो कहते हैैं पड़ता है ब्रह्माण्ड पर सारे उसका असर मौत जब छीनती जा रही जिंदगी थोक के भाव से चीख उठती नहीं क्यों किसी कोने से भी इस ब्रह्माण्ड के? फर्क पड़ता नहीं क्या कोई भी सचमुच सारे ब्रह्माण्ड को हम मनुष्यों के होने, नहीं होने से! हद तो ये है मनुष्येतर जीवों में भी धरती पर फर्क पड़ता नहीं दीखता निखर आई प्रकृति उल्टे कुछ और भी वन्यप्राणी प्रफुल्लित धमाचौकड़ी करते हैैं सड़कों पर। तो क्या ब्रह्माण्ड का बुद्धिमान है जो प्राणी सभी से यही उसका बस मूल्य है? मृत्यु से तो मुझे डर नहीं, चाहता पर कि जीवन दुबारा मिले तो जियूं ऐसे आये कि जब मौत तो शोक उसका हो सारे ही ब्रह्माण्ड को खालीपन मेरे जाने से महसूस ऐसा करें सब कोई स्थान लेना मेरा फिर न मुमकिन किसी के लिये हो कभी। रचनाकाल : 24 अप्रैल 2021

जीने का ढंग

अब तक जीता रहा डरते-डरते ही मैं मौत आ जाय कब कुछ भी तय था नहीं भय भरा था, नहीं जिंदगी में थी कोई भी जिंदादिली किंतु आई महामारी जब एकदम मौत टूटी कहर बन के धरती के सारे ही इंसानों पर भय अचानक ही भीतर से सब छंट गया सबकुछ स्वीकार मैंने सहज कर लिया मान कर यह कि जो भी बची जिंदगी, मिली बोनस है वह रोज जीता हूं खुश हो के भय छोड़ कर मानता हूं कि ईश्वर का अहसान है एक दिन और उसने मुझे जीने खातिर दिया। जब समझता था मैं जिंदगी पर मेरा हक है सौ साल का छीन ले ना समय मेरे हिस्से का, डरता था तब मौत से किंतु हक छोड़ कर आने वाले दिनों पर किया मैंने जब से है तैयार खुद को हरएक आपदा के लिये मेरे भय सारे खुशियों में रूपांतरित हो गये बन गया सच्चे अर्थों में अपरिग्रही एक दिन से नहीं ज्यादा रखता हूं संचित कभी जिंदगी भय नहीं कोई लुटने का, जीता हूं निश्चिंत हो करके अब। रचनाकाल : 21 अप्रैल 2021

महामारी के बाद

जिसको किस्से-कहानी में सुनते रहे दादियों-नानियों से कि देखा उन्होंने है ऐसा समय लोग कितने ही भूखों मरे थे पड़ा था भयावह अकाल या महामारियां लील जाती थीं सारा का सारा ही गांव आज हमारे भी हिस्से में आया है वैसा भयानक समय दृश्य देखे नहीं जाते ऐसे विदारक हैैं चारों तरफ हर कोई क्षत-विक्षत है सभी खो चुके हैैं कोई ना कोई अपना प्रियजन-परिजन जिंदगी भर नहीं घाव जो भर सकें जिसको किस्से-कहानी में भी सुन के होंगे खड़े रोंगटे ऐसा सीने में ही दर्द लेकर जियेंगे कई नागरिक। क्रूर कितना भी हो पर समय तो कहीं कभी रुकता नहीं खण्डहर से भी फूटेंगी फिर कोंपलें फिर से गूंजेंगी दुनिया में किलकारियां जिंदगी फिर से आबाद होगी आयेंगी नई पीढ़ियां दादियां-नानियां फिर सुनायेंगी किस्से भयावह महामारी कोरोना के दर्द लेकिन क्या महसूस कर पायेंगे पूरी शिद्दत से वे बाज आयेंगे पर्यावरण की तबाही से धरती को समझेंगे सचमुच ही मां की तरह या कि इतिहास ही खुद को दोहरायेगा फिर हमारी तरह? रचनाकाल : 18 अप्रैल 2021

अभियोग

भय से व्याकुल तो इतने कभी हम न थे मौत नजदीक इतने कभी भी न थी किसकी बारी कब आ जाये कुछ तय नहीं जाने वालों से ज्यादा भयानक दशा बचने वालों की है। मृत्यु से तो अपरिचय कभी भी न था जो भी आता है जाना तो उसका सुनिश्चित ही है छीन कर किंतु गरिमा, सरेआम लाचार कर घेर कर झुण्ड में यूं शिकारी के जैसी कुटिल रीति से प्राण लेना ही था क्या उचित मृत्यु के देवता के लिये? पेड़ से फल पके जैसे गिरते सहज भाव से हम भी करते हैैं उनको विदा गाजे-बाजे के संग जिंदगी पूर्ण जीकर जो मरते हैैं अंतिम समय किंतु असमय किसी को भी धरती से करना विदा प्राकृतिक तो नहीं! तोड़ते हैैं नियम हम प्रकृति के तो मिलती रही है सजा किंतु ईश्वर ही तोड़े नियम तो सजा उसकी किसको मिले? मानते हैैं हम बेशक हुई होंगी हमसे कई गलतियां छीन लेना ही जीवन मगर बदले में क्या सही न्याय है? फैसले की कभी आयेगी जब घड़ी हम तो मंजूर कर लेंगे अपनी सभी गलतियों की सजा पा सकेंगे निरपराध ईश्वर भी क्या खुद को पूरी तरह? रचनाकाल : 16-17 अप्रैल 2021

दहशत

सपना या हकीकत है ये कौन सी दुनिया है? लाशों से पटे हैैं अस्पताल हर चेहरे पर मरने का भय अनगिनत चिताएं सजी हुईं  धू धू कर जलते श्मशान ये धरती जिंदा है या मौत का साम्राज्य है? रणक्षेत्र ये कैसा है दिनरात ये चलती हैैं बंदूकें या एम्बुलेन्स के सायरन दहशत पैदा करते हैैं! दु:स्वप्न देखता हूं या सच में हकीकत है? देखते हुए टीवी या पढ़ते हुए अखबार डर क्यों अब लगता है आता है किसी का फोन अनहोनी की आशंका से मन भर उठता है। जीने का मतलब यूं दहशत तो कभी भी न था ये कैसा है मौत का भय जो कुछ को मारता है बाकी सबको लेकिन तिल-तिल कर लीलता है! रचनाकाल : 15 अप्रैल 2021

अर्थ बदलते सुख-दु:ख

अक्सर मैंने महसूस किया है सुख-दु:ख सारे सापेक्षिक होते हैैं अस्तित्व नहीं है उनका खुद में तुलना करने पर ही वे कम ज्यादा होते हैैं। जब कष्ट भयानक सहता था मैं छोटे दु:ख तब सुख के जैसे लगते थे आदी लेकिन जब होने लगा सुखों का तब छोटे-छोटे सुख नीरस लगने लगे सुनहरी स्मृतियां लगने लगीं दु:खों वाले दिन की। इसलिये भागता नहीं सुखों के पीछे अब करना होता है दूर किसी के कष्टों को तो उससे भी ज्यादा दु:ख सहने लगता हूं आराम उसे मिलता है मुझको संग पाकर दु:ख में ही सुख महसूस उसे होने लगता है, मुझको भी अद्भुत है यह कीमियागरी जब सुख पाने की कोशिश करता था तब दु:ख ही मिलता था अब जितना ज्यादा दु:ख-कष्टों को सहता हूं, सुख मिलता है। रचनाकाल : 12 अप्रैल 2021

दु:स्वप्नों का अंत

आजकल सपनों से डर लगता है अंधविश्वासी तो मैं कभी न था पर समय आजकल इतना ज्यादा मुश्किल है सपने में भी यदि मौत किसी की होती है असली जैसा मन थर-थर कांपने लगता है। होती हैैं इतनी मौत रोज इन दिनों कि मन में यही प्रार्थना चलती है हे ईश्वर सबकुछ शुभ करना सब सही सलामत रहें मेरे प्रियजन-परिजन। लज्जित लेकिन हो उठता हूं अगले ही पल अपने ऊपर मर रहे रोज जो उनके प्रियजन-परिजन के दारुण दु:ख का है क्या कोई भी मोल नहीं! उनके दु:ख में सहभागी होना है क्या मेरा धर्म नहीं!! उतनी ही शिद्दत से लेकिन उनका दु:ख महसूस नहीं कर पाता हूं तब जानबूझकर सहता हूं उनसे ज्यादा दु:ख-कष्ट कि छोटी कर न सकूं उनकी लकीर पीड़ा की पर उनसे भी ज्यादा बड़ी खींच दूं रेखा अपने कष्टों की महसूस अकेला नहीं करें वे खुद को दु:ख के सागर में कुछ इसी तरह से सबके दु:ख में कोशिश करता हूं मैं हाथ बंटाने की। पाता हूं तब दु:ख मेरे कोई निजी नहीं रह जाते हैैं दु:स्वप्नों से छुटकारा मिलता जाता है परिवार मेरा धरती के जितना विस्तृत होता जाता है। रचनाकाल : 11 अप्रैल 2021

विनाश और आजादी

वो रात बहुत ही गहरी थी धरती डूबी थी पानी में आई थी प्रलय भयानकतम बस गिने-चुने ही जीव बचे थे दुनिया में। था बेहद मुश्किल समय बचाये रखना था अस्तित्व किसी भी तरह मगर उस कठिन काल में भी जिंदा इंसान रहा आया जूझ कर सारे झंझावातों से भी करता रहा विकास मिला अनुकूल समय तो खूब फला-फूला फिर वह सिरमौर बन गया धरती पर सब जीवों का। आई है फिर से रात वही बेहद गहरी फिर से हो चुका विनाश शुरू है कठिन समय अस्तित्व बचाये रखने का सभ्यता ध्वस्त होने को है जो पहुंच चुकी है शायद अपने चरम बिंदु पर क्या पता बचेगा कौन राज किन जीवों का होगा फिर से धरती पर हम इंसान बचेंगे या अतीत के पन्नों में खो जायेंगे! पर मूक प्राणियों ने कर लिया विकास अगर यदि समझ गये वे शोषण कैसे हुआ अभी तक उनका तो क्या मानव का विध्वंस नहीं बन जायेगा आजादी का पर्व मनुष्येतर सब जीवों का! रचनाकाल : 9 अप्रैल 2021

उम्मीदों के गीत

जब घना अंधेरा छाया हो  हाथों को सूझे हाथ नहीं जब बांह पसारे मौत खड़ी हो भय पसरा हो दुनिया में मैं उम्मीदों के गीत चाहता हूं लिखना। मैं कभी न था हक में धरती के शोषण के हरदम विरोध करता आया होता विकास जो तथाकथित पर झगड़े का यह समय नहीं जिस मानवता का हिस्सा हूं चाहता बचाना हूं हर कीमत पर उसको। मालूम मुझे है कल फिर से हालत वैसी हो जायेगी हो जायेंगे फिर से मनुष्य उच्छृंखल फिर से जुट जायेंगे करने में वे पर्यावरण विनाश, और मैं भी कर दूंगा फिर से शुरू विरोध, मगर संकट के इस क्षण में मैं रह सकता नहीं तटस्थ नष्ट मानवता को यूं होते देख नहीं सकता विकराल महामारी जो करती जाती है भयभीत पराजित करने खातिर उसको मैं उम्मीद चाहता हूं हर मानव के मन में पैदा करना रचनाकाल : 4 अप्रैल 2021

अंत से पहले

मैंने देखी हैं इंसान की खूबियां उसका होना खतम मुझसे देखा नहीं जा रहा  राह भटका था बेशक वो लेकिन सजा इतनी भारी तो मिलनी नहीं चाहिये खत्म दुनिया से हो उसका अस्तित्व ही, ये उचित तो नहीं! पर नहीं हूं मैं न्यायाधिपति मुझको कोई शिकायत नहीं जो भी लेगी प्रकृति फैसला जो भी तय होगा अपराध का दण्ड मंजूर है वो मुझे  मैं हूं हिस्सा मनुष्यों का इंकार मुझको नहीं है विरासत से अपनी वो जैसी भी है। खत्म होना ही होगा अगर दुनिया से तब तो लेकर विदा हम चले जायेंगे बच गये किंतु इस अग्नि में स्नान कर फिर से कोशिश करेंगे बनाने की दुनिया जो निर्दोष हो गलतियां हमसे बेशक हुई हैं बहुत कर्ज हम पर मनुष्येतर जीवों का है पर शुरू से ही ऐसे तो थे हम नहीं देवता भी तो हम ही बने थे कभी! आज जाना ही है तो चले जायेंगे छोड़ जायेंगे लेकिन धरा पर ये प्रश्न इतनी निर्मम सजा के क्या हकदार थे? रचनाकाल : 8 अप्रैल 2021

वरदान या अभिशाप?

बेशक हैैं हम इंसान सभी से बुद्धिमान प्राणी इस दुनिया में पर अक्सर ही होता मुझको संदेह कि अपनी तीव्र बुद्धि से हासिल क्या कर पाये हैैं हम अपने या औरों की खातिर अब तक? दुनिया के सारे प्राणी जितना लेते हैैं उतना या उससे ज्यादा देकर जाते हैैं इस धरती को हमने अब तक क्या दिया किसी को या खुद को समृद्ध बनाया कितना? क्या हिस्सा लेना हड़प किसी का, शोषण करना या खुद को कमजोर बनाते जाना ही पैमाना है चतुराई का? मजबूरी में या प्रकृतिजन्य नियमों के वश प्रतिकूल मौसमों को सह कर सारे प्राणी मजबूत हुए हैं जैसे हम भी स्वेच्छा से सारे दु:ख-कष्टों को सह कर क्या नहीं बना सकते थे अपनी काया को भी ताकतवर? परजीवी जैसे खून चूसकर औरों का जीते हैं  हम भी बनने की खातिर ही आरामतलब दोहन क्या करते नहीं जा रहे हैैं सारे संसाधन का? बेशक हम हैैं बुद्धिमान प्राणी सबसे इस दुनिया में पर यही बुद्धि का होना है यदि हश्र अगर तो जिसको हम वरदान मानते आये हैं अब तक क्या वह अभिशाप नहीं है दुनिया का? रचनाकाल : 3अप्रैल 2021

गरिमामय जीवन

दु:ख -कष्टों का हूं ऋणी कि उनके बिना न जीवन होता रंग-बिरंगा आता मुझको नहीं पसंद अगर पर्वत-जंगल-घाटियों बिना जीवन होता सीधा-सपाट मैदान कि दु:ख-कष्टों से पैदा होता है जीवन में रोमांच। मगर मैं सहन नहीं कर पाता हूं उस पीड़ा को जो लोग झेलते मजबूरी में स्वेच्छा से दु:ख सहने में आता है जो आनंद भयानक पीड़ा उतनी ही होती है मजबूरी में वही सहन दु:ख करने में। इसलिये प्रार्थना करता हूं ईश्वर से या तो सहनशक्ति दे लोगों को स्वेच्छा से सबकुछ सहने की या मुझको ही वह दे दे सारी दुनिया के दु:ख कष्ट, क्योंकि सह सकता हूं मैं सबकुछ लेकिन सहन नहीं कर पाता हूं पीड़ा से उपजी मर्मांतक चीखों को गरिमा बनी रहे मानवता की हो दीन-हीन कोई भी नहीं मनुष्य यही बस कोशिश मेरी है। रचनाकाल 2 अप्रैल 2021

मन के घाव

मन के घाव भयानक होते हैैं वे दिखते नहीं मगर रह रह कर उठती उनमें टीस नींद दु:स्वप्नों से भर जाती है खोया हो जिसने अपना प्रियजन-परिजन जिसका मन हो जितना ही संवेदनशील घाव उतना ही ज्यादा गहरा होता है वरदान मिला है सिर्फ मनुष्यों को जान सकते हैैं केवल वे ही भूत-भविष्य मगर अभिशाप यही दुर्दिन में बन जाता है भाग्यशाली साबित होते हैैं जीव मनुष्येतर जीते हैैं जो बस वर्तमान में कोई चिंता नहीं, नहीं उम्मीद कोई बस सहज प्रवाह नदी के जैसा सबकुछ चलता जाता है। हासिल तो हमने बहुत किया पर खोया भी कम नहीं पाये जितने भी वरदान मिले अभिशाप कम नहीं उससे जाने कौन हमारे लिये कि क्या बेहतर है? बस चरम क्षणों में दु:ख के लगता यही कि ईश्वर ले ले अपने हाथों में ही बागडोर सब चिंताओं से कर दे मुक्ति प्रदान मनुष्येतर जीवों के जैसे ही हम भी बस जीने लगें क्षणों में वर्तमान के! रचनाकाल : 31मार्च 2021